शनिवार, 22 मार्च 2025

वृन्दावन प्रस्थान 99

आप सत्कर्म भगवान को समर्पित कर सकते हो पाप कर्म नहीं। कोई यदि यह सोचे कि अच्छे बुरे करते रहो दिन भर और शाम को लौटकर मंदिर में जाये भगवान को कह दें- “कायेन बाचा मनसेन्द्रियेर्वा” कायिक, वाचिक, मानसिक जो भी हमारे कर्म के बंधन से मुक्त हो जाएंगे, ऐसा बिल्कुल मत समझना। चोर चोरी करेगा, डाका डालेगा और शाम को मंदिर जाएं, कहे भगवन हमारे मन वाणी इंद्रियों से कर्म बने हैं वो सब आपको समर्पित है। लेकिन चोरी करके जो धन लाया है वह समर्पित नहीं करेंगे। भगवान को सत्कर्म समर्पित किया जा सकता है। दुष्कर्म का फल तो दुख को भोगना पड़ेगा। राजा ने अगर कुछ इनाम दिया तो आप उसे लौटा सकते हैं, पर राजा ने यदि कुछ सजा दी है तो आप उसे वापस नहीं कर सकते यह तो आपको ही भुगतनी पड़ेगी। भगवान ने सुखिया पर कृपा की निष्काम कर्म का फल है भक्ति। सुखिया धन्य हुई। 

भक्ति का धन आया जिसके जीवन में वही हकीकत में सुखी है, धनवान है। भगवान अपने धाम को छोड़कर ऐसे भक्त के पास आते हैं। क्योंकि भगवान भी भक्तिसूत्र में बंधे हैं। भगवान भक्ताधीन है, जगत भगवान पर आधीन है। सुखिया पर भगवान ने अनुग्रह किया। 

बाबा नंद और ग्वाल बाल सभी बैल गाड़ी में घर का सामान रख रहे हैं। सब गोपियाँ भी अपने अपने बच्चों को लेकर बैलगाड़ी में बैठीं और गायों के वृंद को लेकर सब ग्वाल गोकुल को छोड़ कर चले। गोकुल से वृन्दावन की दूरी 26 km है। आये वृन्दावन, वहां बसाई बस्ती। वृन्दा याने तुलसी, और वन इसलिए इसका नाम वृंदावन। अब वृन्दावन की शोभा देखने चले श्रीकृष्ण और दाऊ अपने मित्रों के साथ, वृंदावन की शोभा देखते ही भगवान अति प्रसन्न हो गए। गोविंद को तुलसी अति प्रिय है, फिर यह तो तुलसी का वन है। 

कन्हैया, दाऊ दादा से बोले- दादा यहां घूमने का मन कर रहा है। चलो ऐसा करते हैं दादा गाय चराएँ, तो माँ और बाबा इस तरह से घूमने तो नहीं जाने देंगे। कहेंगे जंगल है बच्चों को नहीं जाना चाहिए। लेकिन यदि हम गाय चराएँ तो हमें घूमने को मिलेगा। तो आए श्रीकृष्ण और दाऊ बाबा नंद के पास और बोले बाबा हम तो ग्वाल है न, हम तो अब बड़े हो गए हैं। हम भी गाय चराएंगे। माता जसोदा ने कहा- बेटा! तुम अभी बहुत छोटे हो तुम गायों को सम्हाल नहीं पाओगे। पर जब बहुत जिद की तो कहा- अच्छा ठीक! अभी बछड़ों को लेकर तुम जाओ, बछड़े चराओ। बछड़े भी छोटे हैं, तुम भी छोटे हो! तुम गायों को सम्हाल नहीं पाओगे। पर जब बहुत जिद की तो कहा, अच्छा ठीक अभी बछड़े को लेकर तुम जाओ, बछड़े चराओ। बछड़े भी छोटे हैं तुम भी छोटे हो। कन्हैया ने कहा- दाऊ बछड़े तो बछड़े हैं चलो घूमने को तो मिलेगा। कन्हैया अब बछड़े चराने लगे।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

यमलार्जुन की स्तुति(भाग 2) 98

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां, हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे, दृष्टिः सतां दर्शनेsस्तु भवत्तनूनाम्।।

हे नाथ! हमारी वाणी आपके गुण कथन में लगी रहे। कान सदा आपके कथा श्रवण में लगे रहे। हे दामोदर! नेत्र सदा दर्शन करें। हमारे हाथ सदा आपके पूजा में लगे रहे। हमारे पैर तीर्थ यात्रा करें और मस्तक सदा आपको नमस्कार करें। हमारी सब इन्द्रियां आपकी सेवा में लगी रहे। हे भगवान! जब इन्द्रियां आप को छोड़कर अन्यत्र जाती है तब ही पाप की संभावना बढ़ती है। इस प्रकार भगवान से भक्ति की मांग की याचना, भगवान से लौकिक सुख माँगना! मूर्खता है। 

बादशाह किसी किसान पर खुश हो! मांग तुझे क्या चाहिए। तो वह बादशाह से धन छोड़ कर एक बैलगाड़ी भूसा मांगे, तो यह उसकी मूर्खता नहीं है क्या?.. इसी प्रकार भगवान से लौकिक सुख मांगना भूसा मांगने जैसी मूर्खता है। एक भक्त मंगलवार का व्रत करता था रोज़ हनुमानजी के मंदिर जाता और कहता है। हनुमान जी! मुझ पर कृपा करो… मुझे सिर्फ एक लाख रुपए चाहिए। सिर्फ एक लाख रुपए दीजिये। अब हनुमान जी तो हनुमान जी हैं, हर सिद्धि उनके पास हैं। माता जानकी जी ने वरदान दिया। 
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता। 
अस वर दीन्ह जानकी माता।। 

मैं हर शनिवार को एक पांव तेल चढ़ाऊंगा, मंगलवार को चोला चढ़ाऊंगा। एक माह तक प्रार्थना करता रहा तो हनुमान जी को बड़ा गुस्सा आया। मूर्ख मेरे पास एक लाख होता तो तू एक पांव तेल चढ़ाएं, इससे अच्छा तो यह होता न कि मैं खुद तेल का तालाब बनाकर उनमें तैरता रहता। 

भगवान से लोकिक सुख मांगना तो तुच्छता है, मूर्खता है। नलकूबर और मणिग्रीव ने नन्द नंदन की स्तुति की शाप मुक्त हो दोनों अपने धाम चले गए। दोनों वृक्ष जब जमीन पर गिरे तो आवाज सुनकर नन्दादि सब ग्वाल दौड़कर आए। श्रीकृष्ण को बंधा था ऊखल, नंदबाबा ने छोड़ा। सोचा ये वृक्ष गिरे कैसे?.. अगर ये वृक्ष कन्हैया पर गिरते तो क्या होता। यहाँ तो बहुत अनिष्ट हो रहा है, कंस के सेवकों ने बहुत उपद्रव मचाया है। अब तो यह स्थान छोड़कर कहीं जाना पड़ेगा, गोकुल छोड़ने का निर्णय लिया गया। तभी उप नंदा ने बताया बाबा! यहाँ से थोड़े दूर वृन्दावन है, वह बड़ा दिव्य वन है। वहाँ हमारी गायों को घास भी मिलेगी, पास में ही गोवर्धन है यमुना है। पूर्ण निर्णय होगया कि अब गोकुल को छोड़कर वृंदावन में बसेंगे। 

तब सुखिया आई है, फल बेचने उसको नन्द नंदन के दर्शन करने की बड़ी इच्छा थी। इसका नाम सुखिया है, पर इस संसार में सुखिया हैं कौन?.. सब दुखिया है। बोले- जो कर्म तो करते हैं, साथ कर्म के पौधे को पुरुषार्थ का जल पिलाए फिर कर्म के पौधे पर जो फल लगे, उसे भगवान को समर्पित कर दें। यानी ऐसा निष्काम कर्म करने वाला साधक ही सुखिया है, बाकी दुखिया है। कर्म करो कर्म के पौधे लगाओ और पुरुषार्थ का पानी भी पिलाओ पर जब फल आए, तो फल भगवान को समर्पित करो।

रविवार, 17 नवंबर 2024

यमलार्जुन उद्धार भाग - 1 (97)

एक बार मां यशोदा को विचार आया मेरे घर में इतना सारा माखन है फिर भी कन्हैया मेरे घर का माखन नहीं खाता है। पूरे गोकुल में चोरी करता फिरता है, भला घर में क्यों नहीं खाता होगा?..

मां ने विचार किया तब मां को लगा, गोपियां स्वयं माखन उतारती हैं, स्वयं दधि मंथन करती हैं और मेरे घर तो दास दासियां दधि मंथन करती हैं। भगवान की सेवा दूसरों से करानी नहीं चाहिए, स्वयं ही करनी चाहिए। मैं खिलाती हूं तो खाता नहीं और गोपियों से छीनकर-लूटकर खाता है। आज से लाला के लिए मैं स्वयं दधि मंथन करूंगी और अपने लाला को अपने हाथों से खिलाऊंगी। आज मइया ने स्वयं दधि मंथन प्रारंभ किया। दधि मंथन करती हुई माँ का शब्द चित्र श्री शुकाचार्य जी ने यहां बताया।

क्षौमं बासः प्रथुकटीतटे, विभृती सूत्रनध्दं पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं, जात कम्पं च सुभ्रूः। रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्, कड़्कणौ कुण्डले च, स्विन्नं बक्त्रं कवरबिगलन् मालती निर्ममन्थ।। ३//१०

बैठी है माँ छोटी सी खटिया पर दधि मंथन कर रही है और हाथों में जो कंगन पहने हुए हैं, उसका मधुर स्वर आ रहा है। माँ का पूरा शरीर हिल रहा है। जरा ध्यान दें! मां ने कानों में कुंडल पहने हुए हैं जो हिल रहे हैं, मां ने अपने बालों में जो फूल लगाएं हैं। वह नीचे गिर रहे हैं, मां को कृष्ण के प्रति वात्सल्य के कारण दूध अपने आप बह रहा है। यह ज्ञाननिष्ठ, कर्मनिष्ठ और भक्तिनिष्ठ की क्रियाओं का दर्शन है। इसका संतों ने अर्थ निकाला है।

हाथ के कंगन कर्मनिष्ठ की क्रिया है, कानों के कुंडल ज्ञाननिष्ठ की क्रिया बताती है और स्नेह के कारण दूध का अपने आप बहना भक्ति को बताती है। देखो मइया दधि मंथन कर रही है यह कर्म हुआ और किसके लिए है?. कृष्ण के लिए! तो कृष्ण मन में समाया है। कि मैं माखन निकालूंगी अपने कन्हैया को खिलाऊंगी यह भक्ति को बताता है और यदि ज्ञान नहीं तो कर्म में कुशलता नहीं हो सकती और जब तक कुसलता नहीं आएगी, तब तक हम योगी कैसे बन सकते हैं। भगवान योग की परिभाषा देते हुए कहते हैं। योग: कर्म सुकौसलम् अपने कर्म में माहिर बने कुसल बने यह भी योग है।


ब्राह्मण को अपने कर्म में कुशल होना चाहिए, क्षत्रिय को अपने कर्म में माहिर होना चाहिए वैश्य बनिया को अपने कर्म में निपुण होना चाहिये और शूद्र को अपने कर्म में संतोष होना चाहिये। तो अपने कर्म में कुशलता प्राप्त करना ही योग है और यह बिना ज्ञान के नहीं आएगा। आपका जो कर्म है, उसका पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए।

 

एक स्त्री को भोजन पकाने का ज्ञान होना चाहिए, तब वह कुशलता से भोजन पकाएगी यह कर्म है। अपने पति के प्रेम को मन में रखते हुए, की आज मैं खीर बनाऊंगी अपने पति परमेश्वर के खिलाऊंगी, वे खायेंगे और मेरे पर प्रसन्न होंगे। यह एक स्त्री की भक्ति है जब ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होता है तब अच्छी रसोई बनती है। पत्नी पकाये पति के लिए, बहन पकाये भाई के लिए, पुत्री पकाये पिता के लिए और मां पकाये पुत्र के लिए। यह एक ही स्त्री के चार रूप होते हैं और इन चारों रूपों में भक्ति है। माँ दधि मंथन कर रही थी और कृष्ण के बाल चरित्रों का गान कर रही थी, याद कर रही थी माँ कृष्ण के बाल चरित्रों को। उस वक्त भगवान माँ के इस प्रेम को देखकर प्रसन्न होकर वहाँ आए। इस समय कृष्ण भूखे हैं, आए और दही मथनी को पकड़ लिया।

 

मानो भगवान कहना चाहते हैं कि माँ बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रज्ञ लोग पुराणों, उपनिषदों का मंथन करते हैं और उस मंथन से प्राप्त तत्व मैं हूँ। तुम क्यों मंथन कर रही हो?.. मैं तो तुम्हें सहज ही प्राप्त हूँ। छोड़ो इस मंथन को और मुझे दूध पिलाओ। मैं तो तुम्हारे प्रेम का भूखा हूँ। माँ ने तुरंत दधि मंथन कर दिया बंद, लाला को उठाया गोद में और दूध पिलाने लगी।

 

श्री कृष्ण ने पूछा- मैया! एक बात पूछूं! माँ ने कहा- हाँ बेटा पूछ! काह बात है। कन्हैया ने कहा- माँ! तुम्हें दूध प्यारा है कि पूत प्यारा है। माँ ने कहा- हाँ बेटा! मुझे पूत प्यारा है। क्यों?.. कन्हैया ने कहा- बस यूं ही माँ। ठीक उसी समय चूल्हे में रखा दूध पक रहा था तो वह उबलकर नीचे गिरने लगा, माँ का ध्यान वहाँ गया तो कन्हैया को बैठाया नीचे और पहुंची दूध को बचाने।

 

यह देखकर कन्हैया को आ गया गुस्सा! कि अभी तो माँ ने कहा, कि मुझे पूत प्यारा है। पर अपने पूत को छोड़कर दूध को बचाने दौड़ पड़ी। कन्हैया ने उठाया एक पत्थर और दे मारा मटकी पर, मटकी फूटी सारा छाछ घर में बिखर गया। यहाँ माँ ने जैसे ही दूध उतारा चूल्हे से, तो धमाका सुनाई पड़ा, क्या हुआ? देखने दौड़ी माँ, देखा! तो माखन की भरी मटकी फूटी पड़ी है। छाछ फैला है पूरे घर में, यह देखा तो माँ को भी बड़ा गुस्सा आया। उठाया हाथ में लकड़ी बहुत शरारती हो गया, आज तो इसको दंड दे के रहूंगी, छोड़ूंगी  नहीं।

 

दौड़ते-दौड़ते मइया थक गई, तो कन्हैया को दया आ गई। माँ ने कहा- कन्हैया! रुक जा। कन्हैया ने कहा- मैया तुम मारोगी। यह सुनकर मइया ने अपने हाथ की लकड़ी को फेंक दिया। आजा मैं नहीं मारूंगी! तब कन्हैया धीरे-धीरे माँ के पास आए और माँ ने पकड़ लिया। चल आज मैं तेरी आरती उतारती हूँ। तू इतना भी सबर नहीं कर सकता, इतना भी नहीं रुक सकता कि मैं दूध उतार सकूँ। ऐसी कौन सी भूख लगी है तुझे?.. कितना नुकसान कर दिया! मेरी सास की दी मटकी तू ने फोड़ दी। आज तेरा भोजन बंद! यह है मातृ प्रेम; भोजन खिलाती ही नहीं! भूखा भी रखती है दंड देने के लिए। सच में भोजन नहीं देती और न स्वयं लेती! चल आज तुझे ऊखल के साथ बांधती हूँ। कन्हैया रोते रहे, मां ने एक न सुनी। माँ रस्सी लेकर आईं, बाँधने लगी! तो दो अंगुल छोटी पड़ गई और दूसरी रस्सी लाई फिर छोटी पड़ी। ये कौन सी रस्सी है?.. यह दाम है! ब्रज में दाम उसे कहते हैं जिस रस्सी से गाय को दुहते समय उसके पिछले पैरों में जो बांधा जाता है। ऐसी कई रस्सियों अर्थात दाम को जोड़ा, लेकिन कृष्ण नहीं बंधे। मतलब जो ये दाम है, ये सब भगवत प्राप्ति के साधन है योग, यज्ञ, दान, जप, पूजन! लेकिन जब अहंता और ममता का त्याग नहीं होगा, तो भगवान बंधन में आएंगे कैसे?.. कितनी भी कोशिश क्यों ना करो, कितना भी तप, जप, ध्यान, योग क्यों ना करलो। जब तक अहंता और ममता को नहीं छोड़ोगे तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रभु को पाने के लिए स्वसमर्पण और सर्व समर्पण करना होता है। स्वसमर्पण से ममता और सर्वसमर्पण से अहंता का नाश होता है।

 

स्वसमर्पण ही आत्मनिवेदन है, जो नवधा भक्ति का अंतिम सूत्र है। जब मां ने स्वसमर्पण किया, फिर सर्वसमर्पण कर दिया, तो भगवान बंधन में आ गए और नाम पड़ा दामोदर। फिर माँ लग गई अपने काम में, रोते रहे नंदलाल! माँ ने आज एक बात भी नहीं सुनी रोते-रोते थक गए कन्हैया। फिर सोचा अब किसको सुनाए?. माँ तो हमारा सुन ही नहीं रही। रोना तब चाहिए, जब मनाने वाला कोई हो।

 

रोते हुए भगवान का ध्यान गया यमलार्जुन के वृक्ष पर, भगवान ने सोचा! हम तो बंधनावस्था में हैं, पर इनको मुक्त कर देते हैं। भगवान आगे चले पीछे-पीछे ऊखल घसिटता हुआ चला आया। घसीटते हुए ऊखल को ले गए, दो यमलार्जुन वृक्ष के मध्य में बहुत कम जगह थी। कन्हैया तो निकल गए पर ऊखल फंस गया और फिर कन्हैया ने ऐसा ज़ोर लगाया कि दोनों वृक्ष मूल से उखड़कर धरती पर गिरे धड़ाम। उसमें से दो पुरुष प्रकट हुए, नलकूबर और मणिग्रीव। भगवान है बंधन में, तब काम किया शापित को मुक्त करने का। यह करुणा है परमात्मा की, स्वयं बंधन में है, तब भी भक्त को मुक्त करते हैं। ये नलकूबर और मणिग्रीव कुबेर के दो पुत्र हैं। भगवान रुद्र के अनुचर है, मदिरा पीकर कैलाश के रमणीक उपवन में जल क्रीड़ा कर रहे थे स्त्रियों के साथ उस समय वहाँ से देवर्षि नारदजी निकले नारद जी को देखकर स्त्रियों ने तो वस्त्र पहन लिए, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव ने वस्त्र धारण नहीं किया। तो नारदजी ने शाप दे दिया मेरे सामने तुम ऐसे खड़े हो जैसे वृक्ष खड़ा होता है। वस्त्र नहीं पहन सकते तो जाओ तुम दोनों वृक्ष हो जाओ।

 

महाराज संत का क्रोध भी अनुग्रह होता है, संत का अपराध बना नलकूबर और मणिग्रीव का, उसके चार कारण बताते हैं। पहला संपत्ति का अभिमान, बाप कुबेर है। दूसरा सत्ता का अभिमान, रुद्र के अनुचर है पोस्ट अच्छी है। तीसरा व्यसन जहाँ सम्पत्ति और सत्ता का अभिमान होता है वहाँ व्यसन भी होता है और चौथा व्याभिचार! तो संपत्ति, सत्ता, व्यसन और व्याभिचार ये चार कारण थे संतों का अपमान भी करने लगे थे। पर संत का क्रोध भी अनुग्रह होता है। जब दोनों ने क्षमा मांगी तब नारद जी ने कहा- कि द्वापर के अंत में भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में प्रकट होंगे तब तुम्हारा मोक्ष होगा। देखो जिस कारण भगवान का दर्शन हुआ, उसे शाप या वरदान। यह क्रोध है की अनुग्रह। आज भगवान के द्वारा नल कूबर और मणिग्रीव का उद्धार हुआ दोनों को आज मुक्ति मिली तब भगवान की स्तुति की-

बुधवार, 30 अक्टूबर 2024

कान्हा की मिट्टी लीला 96

लेकिन एक दिन कन्हैया पकड़े गए इस दिन कन्हैया अकेले हैं अचानक बैठे बैठे मिट्टी उठाई और खाली ओर बल्लू दादा ने देख लिया बोले क्यों कन्हैया मिट्टी खा रहे हो छोड़ो बरना जाकर मैया से कहता हूँ पर कन्हैया ने मिट्टी नहीं छोड़ी और यहाँ बल्लू दादा आये और माँ से सिकायत करदी ओमिया कन्हैया मिट्टी का रहा है।

आई मैया कन्हैया के पास क्यों रे तुझे माखन कम पड़ गया जो अब मिट्टी खा रहा है। तब कन्हैया बोले-

नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन:।

यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य ये मुखम्।। ३५//१०

मां! हे अम्ब!.. मैं ने नहीं खाई, सब झूठे हैं। यदि तुम इनकी बात सच मानती हो तो मेरा मुख तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आंखों से ही देख लो अब यशोदा जी ने कहा- बताओ अपना मुख और जब कन्हैया ने अपना मुख खोला तो माँ यशोदा ने देखा।

सा तत्र ददृशे विश्वं जगत स्थास्नु च खं दिश: ।

साद्रि द्वीपाब्धि भूगोलं सवाश्वग्नीन्दुतारकम्।।३७//१०

मां ने पूरा विश्व देखा भगवान के मुख में, पुनः कन्हैया ने जब यह बताया कि माँ मैंने नहीं खाई। तो क्या भगवान झूठे हैं?

भगवान तो सत्यव्रत हैं, परमसत्य ही कृष्ण हैं। तो क्या भगवान ही असत्य बोले, कि  मैंने नहीं खाई। अगर भगवान ही असत्य बोलने लगे तो जीव क्या करेगा। जरा संस्कृत में शब्द को समझें कि कन्हैया ने क्या कहा- अहं “भक्षितवानम्ब” अहं कर्ता, अम्ब सम्बोधन, भक्षितवान क्रिया पद और वाक्य नकारात्मक। अब क्या नहीं खाया ये उन्होंने नहीं बताया। मतलब कन्हैया कहना चाहते हैं, मां! हम भोक्ता नहीं, हमने कुछ खाया नहीं। इस पद में क्रिया है, कर्ता है, पर कर्म नहीं है। क्या नहीं खाई यह नहीं बताया।

कोई बोले- क्या नहीं खाई? तो बताते मिट्टी नहीं खाई! तब यह कर्म होता, मिट्टी माने कर्म। क्रिया प्रकृति है, स्वभावगत है। क्रिया करनी नहीं पड़ती, क्रिया हो जाती है। यह क्रिया वाचक नहीं, कर्म वाचक है। जैसे- आंखों की पलकों का गिरना क्रिया है और किसी चीज को देखना कर्म वाचक है।

पलकों का गिरना, धड़कन का धड़कना, भूख लगना ये सब क्रिया है यह अपने आप होता है, इसमें हमारा कोई बस नहीं। क्रिया में न पुण्य होता और न पाप होता। कर्म के साथ पाप पुण्य जुड़ते हैं, क्रिया के साथ नहीं। तो भगवान की यह सहज क्रिया है, एक लीला है, इसमें कर्म है ही नहीं।

शेर प्राणी को मार कर खा जाता है, यह उसका सहज स्वभाव या प्राकृतिक क्रिया है। ऐसा करने पर शेर को कोई पाप य पुण्य नहीं होता क्योंकि शेर को पाप पुण्य का कोई ज्ञान नहीं। पर मानव को ज्ञान है पाप पुण्य का। बेचारे शेर को खेती करना रोटी पकाना तो आता नहीं। मानव को आता है फिर भी मानव जीव खाता है। इसलिए मानव को पाप लगेगा।

भगवान कर्म के बंधन में नहीं आते क्योंकि वे लीला करते हैं। एक तो उन्हें अभिमान नहीं, दूसरा कर्म के फल की कोई इच्छा भी नहीं है। इसलिए भगवान बंधन मुक्त हैं। भगवान की जो भी क्रिया हो रही है वह मात्र एक लीला । यहां पर भगवान ने कह दिया मां मैं भोक्ता नहीं, मिट्टी उठाई मुख में रखी पर मैंने भक्षण नहीं किया।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं

न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञ:।

अहं भोजनं नैव भक्ष्यं न भोक्ता

चिदा नंद रूप: शिवोहम् शिवोहम्।।

इस प्रकार भगवान ने अपने मुख में समूचे विश्व का दर्शन कराया। ऐसा विराट रूप देखा मां ने, जो कुछ है सब भगवान में ही है। सब लोग भगवान में हैं भगवान से अलग कुछ भी नहीं है। इस बात का ज्ञान जब मां को हुआ कि सारी धरती ही भगवान के अंदर है तो फिर खा क्या सकते हैं। मुझसे अलग कुछ है ही नहीं तो मैं खा क्या सकता हूँ। खाई तो वह जाती है जो स्वयं से अलग होमां को बताया! मां सर्वत्र और सर्वदा मैं ही हूं। 


माँ ने जब भगवान के इस विराट रूप को देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मैं अपने बच्चे के मुख में ये क्या देख रही हूं। यह स्वप्न है या माया, क्या यह मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है?.. फिर माँ ने निर्णय लिया, नहीं-नहीं यह स्वप्न नहीं! मैं तो जागृत हूं और यह  देवमाया भी नहीं है।

 

अब यह देवमाया नहीं, स्वप्न नहीं तो फिर क्या है? मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है। तो आज माँ को ज्ञान हो गया कि जिनको मैं पुत्र मान रही हूँ, वह सच में परमात्मा ही है। भगवान ही आए हैं मेरे घर पुत्र बनकर, कहते हैं! जिसके पास धन होता है उसे धनवान कहते हैं। उसी तरह जिसके पास भग होता है, उसे भगवान कहते हैं। छः प्रकार के भग हैं- ऐश्वर्य, वीर, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इसे कहते हैं “षडभग”। ये छः भग से जो युक्त है वह भगवान हैं, ब्रह्म है, निराकार हैं, साकार है। और ईश्वर जब अवतरित होता है तब भगवान कहलाता है। ब्रह्म, ईश्वर और भगवान इन तीनों शब्दों में इतना अंतर है। षडेश्वर्य  संपन्न होकर जब आते हैं तो भगवान कहलाते हैं। मां ने समझ लिया यह मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है। भगवान ही मेरे यहाँ पुत्र बनकर आये हैं।

 

माँ ने यहां पर भगवान के चरणों में वंदना किया, यह देख कन्हैया को अच्छा नहीं लगा। ऐसे में तो सारी लीला ही समाप्त हो जाएगी। मैं इनका पुत्र बनाकर आया हूँ, अब यह मुझे अपने गोद में नहीं बैठायेगी। हमारी पूजा होने लगेगी, हमारी आरती, स्तुति होने लगेगी। मैं तो यहां लीला करने आया हूँ यह क्या हो गया। तब भगवान ने अपनी माया का प्रयोग किया माँ पर।

 

महाराज इन्होंने अपनी मां को भी नहीं छोड़ा, मां पर भी माया का प्रयोग किया और यह कोई साधारण माया नहीं है, यह वैष्णवी माया है। भगवान अपने भगतों पर वैष्णवी माया का प्रयोग किया करते हैं। भगवान के प्रति जो अशक्ति है, वही वैष्णवी माया है और संसार के प्रति जो मोह है वह योगमाया है। हमारी आसक्ति संसार को छोड़कर यदि भगवान में लग जाये तो जीवन धन्य हो जाये। यह जो मोह है, इसे भक्ति कहते हैं। गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति जो मोह है वह भक्ति है।

 

इस प्रकार जब वैष्णवी माया का प्रयोग किया तो माता का श्रीकृष्ण के प्रति ईश्वरीय भाव पुत्र में परिवर्तित हो गया और जो देखा वह सब भूल गई। झट से अपने लल्ला को गोद में उठा लिया और पहले की भांति लाड़ लड़ाने लगीं।

 

यहां पर परीक्षित ने श्री शुकाचार्य जी से पूछा- महाराज! श्रीकृष्ण के जन्मदाता माता पिता तो वसुदेव देवकी हैं, इनको जो सौभाग्य नहीं मिला वह सौभाग्य नंद यशोदा को मिला। नंद यशोदा ने ऐसा कौन सा पुण्य किया था?.

 

तब शुकदेव जी बोले- परीक्षित पूर्व जन्म में ये दोनों द्रोण नाम के वसु और उनकी धरा नाम की पत्नी थी। ब्रह्मा जी के कहने से इन्होंने गायों की बहुत सेवा की, तब भगवान ने वरदान दिया कि मैं तुम्हारे घर गोपाल बनकर आऊंगा। भले ही मेरे माता पिता कोई अन्य हों, पर मां हम तुम्हारा ही दुग्ध पान कर बड़े होंगे। तुम्हारी अंगूरी पकड़कर चलना सीखेंगे। इसलिए द्रोण नाम के वसु और उनकी पत्नी धरा, आज नंद यशोदा बनकर आये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज रज अपने मुख में रख दी, और ब्रजरज की महिमा बढ़ गई। ब्रज में तो रज की ही महिमा है। ब्रह्म बेटा बनकर आया है माँ यशोदा का, खुले चरण भगवान ने विचरण किया है वृंदावन में इसलिए भी ब्रजरज की महिमा बड़ी है।

रविवार, 20 अक्टूबर 2024

प्रभावती और नटखट कान्हा की टोली भाग 3 (95)

और तभी प्रभावती घूँघट निकाले द्वार पर आई, पीछे ग्वालों की टोली है। माँ… ओ मइया जशोदा! निकलो बाहर, तुम मानती नहीं न! कहती हो रंगे हाथ पकड़ के लाओ। आज मेरे घर में चोरी करता पकड़ा गया है। इसके मुख में माखन लगा है, इसके कपड़ों में माखन लगा है। आज यदि इसकी मेरे सामने पिटाई न हुई तो मैं यहीं बैठी रहूंगी, जाऊंगी नहीं। जब तक इसकी पिटाई होगी। 

कन्हैया ने कहा- देखा मइया…! अपने देवर को पकड़ कर लाई है और कहती है पिटाई की बात। अब मइया यशोदा यह देख कर प्रसन्न हो हंस पड़ी। ये पागल तो नहीं हो गई..। अपने देवर को लेकर पिटाई कराने आई है। 

अब यह सुनकर प्रभावती को बड़ा आश्चर्य हुआ???.. मइया हंस रही हो… अब तो इसे पीटो, यह रंगे हाथ पकड़ा गया है आज। तब यशोदा मइया बोलीं- प्रभावती देख यहां बाबा नन्द नहीं बैठे अब तू अपना घूँघट उठा और देख। प्रभावती ने घूँघट उठाया और सामने देखा तो मइया के पास कन्हैया खड़े। प्रभावती ने सोचा ये यहां कैसे?..

और मैंने हाथ किसका पकड़ रखा है?.. जैसे देखा!.. तो उसका देवर… मुए तू यहाँ कैसे आया। भाभी मैं क्या जानूं तुमने ही तो पकड़ कर लाया। अब प्रभावती समझी, कि वो जो हाथ बदलने वाली बात थी न, उसी में कुछ चाल चली है। मां यशोदा ने कहा- प्रभावती क्यों मेरे बच्चे के पीछे पड़ गई है। क्या मिलता है तुम्हें?.. आओ तुम्हारा मेरे घर बैठो, चाय नाश्ता करो। मेरे बच्चे के पीछे क्यों पड़ी हो,.. जाओ घर जाओ। अब प्रभावती को काटो तो खून नहीं, ऐसी बुरी दशा हुई। इस प्रकार से कन्हैया की माखन लीला चल रही है।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

प्रभावती और नटखट कान्हा की टोली भाग- 2 (94)

अब दूसरे दिन ग्वालों ने पूछा लाला आज कहाँ जानो है?.. तो एक बोला- कन्हैया वही चलते हैं प्रभावती के घर, वहाँ बड़ा मजा आता है, कल बड़ा आनंद आया, वहीं जाते हैं। जो चिढ़ता है ना, बच्चे उसे ही ज्यादा चिढ़ाते हैं। कन्हैया ने कहा- तो फिर चलो; वही चलते हैं। 


यहाँ प्रभावती को भी भरोसा था कि आज फिर वह आएगा। तो बढ़िया ताजा-ताजा माखन निकाली और मटके में भरी फिर ऊपर छींके ऊपर टांग दिया और द्वार बंद करके स्वयं अंदर छिप गईं। आई टोली देखा कि दरवाजा बंद है, तो सोचा जमुना जल भरने गयी होगी, कल की तरह। कन्हैया ने कहा- दो खड़े रहो बरामदे में जब आए तो आवाज देना। दरवाज़ा खोला धक्का मार मारकर अब इस टोली में प्रभावती का देवर भी था। बुलाया कन्हैया ने; छोटा सा था देवर, पूछा- कहाँ रखा है माखन?. बताया इस कमरे में छींके में, सुनते ही बड़ी क्रोधित हुई प्रभावती अपने देवर पर। तुझे भी देख लूंगी; तू ही सब समाचार पहुंचाता है। प्रभावती ने सोचा इतना ऊपर है ये कैसे निकालेंगे?.. लेकिन उनके पास भी तरीका था पहले पांच फिर तीन फिर दो और उसके सबसे ऊपर कन्हैया। जैसे कन्हैया ने मटका पकड़ा मित्रों ने पूछा लाला पकड़ लियो। बोले- हाँ भैया! पकड़ लियो। ठीक उसी समय प्रभावती प्रगट हो गई। अभी ठहरो, देखती हूँ सबको; अरे भागो-भागो यहाँ तो प्रभावती है। गिरे सब नीचे गिरते पड़ते भागने लगे सब और कन्हैया लटके रह गए। 

प्रभावती ने कहा- वाह! बहुत सुन्दर लाला; तेरी मइया मानती नहीं ना, ऐसे लटके रहियो। अभी बुलाकर लाती हूँ तेरी माँ को और बताती हूँ की ये है तुम्हारे लाला का पराक्रम; तब तो पिटाई होगी तुम्हारी। 

कन्हैया ने कहा- ओए प्रभावती देख, मेरी बात सुन; तू घर पर जावेगी, माँ को बुलावेगी तब तक तो बहुत देर हो जाएगी और मैं लटका रह नहीं सकता। ऐसा कर ना मुझे ही ले कर चल मेरी माँ के पास, तुझे पिटाई ही करवानी है तो ऐसे करवा। तब तक तो मेरा हाथ दुखने लगेगा। 

प्रभावती ने कहा- आए ना ठिकाने पर; कहा- लाला को, अच्छा आ जाओ! अब कन्हैया नीचे आए, मुख साफ करने लगे तो प्रभावती ने कहा- खबरदार! साफ मत करना। रंगे हाथों पकड़ के ले जाना है यशोदा मइया के पास, अब अपनी दाएं हाथ से कृष्ण का बायां हाथ पकड़ा और घूंघट निकला, क्योंकि गली में बड़े बुजुर्ग बैठे रहते है। यह मर्यादा है, ले जाने लगी हाथ पकड़ के और कन्हैया की टोली भी पीछे-पीछे चली, बाहर खड़े इंतजार कर रहे थे ना! कब निकालेगा कन्हैया?.. देखा तो उनके पीछे-पीछे चल पड़े। आगे कन्हैया को पकड़ के प्रभावती पीछे-पीछे ग्वालों की टोली, मित्र बड़े चिंतित हो गए, आज हमारा सरदार पकड़ा गया। आज इसकी पिटाई होगी, क्या करें?.. घर नजदीक ही है, लाला ने भी सोचा यदि इस स्थिति में माँ के हाथ में देती है मुझे, तो मइया नहीं छोड़ने वाली, पिटाई अवश्य होगी। कुछ तो करना पड़ेगा! 


कन्हैया ने पीछे देखा तो प्रभावती का देवर भी आ रहा था, उसे इशारा किया नजदीक आओ और प्रभावती घूंघट निकाले हुए जा रही थी, माँ के पास और कहती जाती है। चल आज तेरी पिटाई करवाती हूँ। कन्हैया ने कहा- ठीक है पर तुमने मेरी कलाई कितनी कसके पकड़ी है,  हाथ लाल हो गए। देखो; बायां हाथ छोड़ो, दायां हाथ पकड़ो, ये हाथ मेरा दुखने लगा। 

प्रभावती ने कहा- यहाँ तो तुम्हारा हाथ लाल हुआ है! घर पहुंचो माँ ऐसी थप्पड़ लगाएगी के तुम्हारा गाल लाल हो जाएगा। आज तो पिटाई करवाऊंगी, पिटवाकर ही छोडूंगी मेरा नाम प्रभावती है। लाओ अपना हाथ। कन्हैया ने हाथ छोड़ा और दूसरा हाथ दिया प्रभावती के हाथ में, लेकिन अपना नहीं; उसके देवर का! ले.. जा; तेरा तुझको समर्पित। 

अब प्रभावती ने तो लंबा घूँघट निकाला हुआ है यह देख पीछे सब ग्वाल बाल हंसने लगे। वाह कन्हैया बढ़िया तरकीब निकाली। अब कन्हैया ने अपना मुख हाथ साफ किया और दौड़ते हुए गए जहां माँ यशोदा बैठीं थी आंगन में; उनकी गोद में जाकर बैठ गए और बोले- मैया! ओ प्यारी मैया! मैया ने कहा- काह बात है बेटा कन्हैया ने कहा बस यूं ही कन्हैया का बात है बताओ भैया ये गोपियां मुझे बहुत बदनाम करती है गोकुल में भला मैं क्यों चोरी करूँ हमारे पास तो इतनी सारी गाय है इतना सारा मक्खन है मैया साँची कहूँ ये सब गोपियां तुम्हारी ईर्ष्या करती हैं। माँ यशोदा बोलीं- ईर्ष्या वो क्यों करने लगी। कन्हैया ने कहा- तेरे जैसा लाला किसी को नहीं है ना, इसलिए! मैया बोली- चुप बदमाश अपने मुंह अपनी बड़ाई करता है। नहीं माँ!.. सच में, सब गोपियां ईर्ष्या करती है। इसलिए बार बार यहाँ शिकायत लेकर आती हैं। भला मैं क्यों चोरी करने लगा, झूठ मूठ मुझे बदनाम करती हैं। मैया- ने कहा- लाला! मैं जानती हूँ मेरा लाला बहुत सीधा है, बहुत अच्छा है। 

सच में बहुत बुरी आदत है इन गोपियन की जब देखो शिकायत लेकर मेरे घर चली आती है। इसलिए तो मैं उनकी एक नहीं सुनती। फिर कन्हैया ने रोने का बहाना बनाया और बोले- क्या नहीं सुनती माँ! बस यह मुझे बदनाम किए जा रही है। देखो अब तो मुझे लोग ही चोर कहने लगे, रोज़ मुझे चिढ़ाते हैं रोज़ कोई न कोई आ जाती है। देखना अभी कोई न कोई झूठी शिकायत लेकर आती ही होगी और मैं तो बैठा हूँ तुम्हारी गोद में और मुझे चोर कहेंगे। माँ जसोदा ने कहा- अच्छा तो आने दो उसे देख लूंगी मैं। लाला शांत! हाँ माँ… देखना।

सोमवार, 18 दिसंबर 2023

प्रभावती और नटखट कान्हा की टोली भाग-1 (93)

बड़ी नटखट लीलाएं हैं, नंदनंदन की, एक बार ऐसा हुआ कि कुछ गोपियां गई जमुना जी जल भरने, तो वहाँ चर्चा हो रही थी गोपियों में। ये यशोदा के लाला ने तो बहुत उपद्रव मचायो है सारे गोकुल में, वैसे है बड़ो सुंदर। 
एक गोपी बोली- बस लगता है उसे देखते ही रहें, इतनी मनमोहनी सूरत है। 
दूसरी ने कहा- लेकिन थोड़ा काला है। 
तीसरी बोली लेकिन मतवाला है। 
चौथी बोली- बड़ा नटखट है, एक बार ऐसा हुआ। मैं और ललिता सखी दोनों बात कर रही थीं, तो न जाने कब वो पीछे से आया और चोटी बांध कर चला गया दोनों की। फिर जैसे तैसे हम दोनों उठ खड़ी हुई और अलग हुए तो धड़ाम से गिरी नीचे, बहुत उपद्रव मचाता है। 

एक गोपी ने कहा- क्या बताऊँ! मेरी चोटी तो मेरे पति के दाड़ी से बांध दी थी उसने, सुबह-सुबह मैं उठी की पहली पहल नहा धो के तैयार हो जाएं अब उठकर जैसे चलने लगी तो पति देव भी पीछे-पीछे खींचे चले आए। 

एक गोपी ने कहा- मैं पानी भर के मटके में जा रही थी की रास्ते में मिल गया और पूछने लगा तुमने नहा लिया, मैंने कहा नहीं! बस तभी एक पत्थर उठा कर मेरी मटके में दे मारा, मेरा मटका भी फूटा और मैं भी भीग गई और फिर क्या कहता है मालूम?. कि पहले नहाया करो फिर घर का काम किया करो। सच बहुत नटखट है। 

पर एक गोपी थी जिसका नाम था प्रभावती उसने कहा- वो आता होगा तुम्हारे घर चोरी करने शरारत करता होगा तुम्हारे साथ! आवे मेरे घर, ऐसा सबक सिखाऊंगी कि सब भूल जावेगो, फिर आने का नाम ही ना लेगो। तो एक गोपी का लड़का अपनी माँ के साथ आया था जमुना जी में नहाने जब उसने सुनी यह प्रभावती की बात और वो कन्हैया का CID था, गुप्तचर दौड़ता हुआ गया यह समाचार कृष्ण को देने।

एक वृक्ष के नीचे टोली बैठी थी ठिठोली करती हुई और बीच में बैठा है नायक, पीली पीतांबर है मोर पंख का मुकुट है। आकर कहा- मित्र एक समाचार लाया हूँ! क्या?.. बोला- जमुना तट पर गया था नहाने अपनी माँ के साथ, तो प्रभावती ऐसा कह रही थी। कन्हैया ने कहा- ऐसी बात है! ठीक है तो आज उसी का घर एक बाकी रह गया था। चलो आज वही होगा भंडारा, वो हमें सबक सिखाएगी आज देखते हैं। 
अब प्रभावती तो गई थी जल भरने जमुना जी में, इधर मंडली प्रभावती के घर पहुंची और किवाड़ खोला घुसे सब घर में, मटका ऊपर छींके में था तो पांच नीचे फिर तीन ऊपर चढ़े, फिर दो उनके बाद कन्हैया चढ़े, मटका उतारा नीचे और सब माखन खाने लगे। 

जमके माखन खाया अब ये जहाँ जाते थे, बंदरों की टोली भी साथ-साथ पहुँच जाती थी। तो खुद खाएं बंदरों को भी खिलाएं जब सबका पेट भर गया फिर आधा मटका माखन अभी बचा था। कन्हैया ने कहा- खाओ-खाओ! ग्वालों ने कहा- बस कन्हैया! अब तो पेट भर गया। तो फिर ऐसा करो, ये प्रभावती बहुत आलसी है, देखें लीपा पोती ठीक से करती नहीं है। अब हमने इसका माखन खाया है, बदले में कुछ तो करें। लिया एक डंडा और मारी मटका में तो सारा माखन बिखर गया और माखन लीपने लगे पूरे घर में और भी जितने दही की हांडिया थीं, सब को फोड़ दिया और बाहर निकल के जैसी कुंडी लगी थी लगा दी और पास में ही एक वृक्ष में छिप गए, अब मज़ा आएगा। 

आई प्रभावती!... हाथी जैसी चाल ठुमक-ठुमक करती हुई, नूपुर बज रहे है उसके और जमुना जल से भरा है मटका, ग्वाल सभी देखते जा रहे हैं। अब सर पे तो मटकी है, नीचे देख नहीं सकती। कुंडी खोली धक्का देकर, किवाड़ खोला और ज्यों ही पग उठाया घर में जाने के लिए, ग्वालों के मुख में मुस्कान आई। पग रखा अंदर गई की पैर फिसला गिरी धड़ाम और फिसलते हुए सामने वाली दीवार पर जाकर टकराई, वह गिरी तो मटका भी गिर के फूट गया और माखन में मिल गया। तो दीवार का आधार लेकर जो ही खड़े होने का प्रयास किया, तो फिर से फिसल गई और पहुंची फिसलती दरवाजे तक द्वार से देखा तो छींके पर मटका नहीं। नीचे देखा तो माखन लिपा है माखन का मटका भी फूटा है। उसके पूरे शरीर में माखन लगा है। अब तो सर पकड़ के बैठ गयी, क्या करूँ??..

सब ग्वाल ऐसा हंसे, लाला आज तो बहुत आनंद आया, ये हम को सबक सिखाने वाली थी। अब तो प्रभावित बैठी-बैठी बाहर निकली। खड़ा होने का प्रयास ही नहीं किया। चल पड़ी कमर पे हाथ रख के मैया यशोदा के पास!.. ओह यशोदा मैया.. जानती हो?.. तुम्हारे लाला ने आज क्या किया?.. देखो! मेरा नाम प्रभावती है। छोडूंगी नहीं, ऐसा सबक सिखाऊंगी, याद रखेगा। 

मैया ने कहा- क्या हुआ?.. प्रभावती! आओ तो… शांति से बैठो! बताओ… क्या हुआ?.. बैठने नहीं आई मैं, मेरा नाम प्रभावती है। आज मेरे घर में उपद्रव मचाया है, संभालो अपने छोरा को, नहीं एक दो थप्पड़ लगाऊंगी। मेरा नाम प्रभावती है। 

मैया बोली- मैं जानती हूँ; तेरा नाम प्रभावती है, बार-बार बताने की आवश्यकता नहीं है। क्या किया है; मेरे लाला ने?. कहा- आकर देखो मेरे घर में, चोर कहीं का! अब तो यशोदा मैया को भी गुस्सा आया। बोली- क्या किया है? सुन; देख प्रभावती! मेरे लाला को चोर मत कहियो। चोर होगा तेरा पति। हकीकत में तुम सब गोपियों के बच्चों ने मिलकर मेरे लाला को बिगाड़ दिया। वह तो जानता ही नहीं कि चोरी कहते किसे हैं और आकर मेरे लाला को खरी खोटी सुनाती हो, उसे चोर कहती हो। देखो ऐसे ही चोर मत कहना, रंगे हाथों पकड़ के लाओ तो मैं सुनूंगी तुम्हारी शिकायत, अभी तुम जाओ यहाँ से। 
अब प्रभावती ने भी ठान लिया, मैया! अब इस बार कन्हैया को तुम्हारे हाथ में पकड़ा नहीं दिया; तो मेरा नाम प्रभावती नहीं। इतना कहकर वह अपने घर गई और कन्हैया बड़े प्रसन्न हुए।