श्री मद्भागवत महापुराण
यह ब्लाॅग मैंने भागवत ज्ञान के लिए लिखना प्रारम्भ किया ताकि भागवत कथा का मूल ज्ञान हम सब जान सकें.. !
शनिवार, 22 मार्च 2025
वृन्दावन प्रस्थान 99
सोमवार, 16 दिसंबर 2024
यमलार्जुन की स्तुति(भाग 2) 98
रविवार, 17 नवंबर 2024
यमलार्जुन उद्धार भाग - 1 (97)
एक बार मां यशोदा को विचार आया मेरे घर में इतना सारा माखन है फिर भी कन्हैया मेरे घर का माखन नहीं खाता है। पूरे गोकुल में चोरी करता फिरता है, भला घर में क्यों नहीं खाता होगा?..
मां ने विचार किया तब मां को लगा, गोपियां स्वयं माखन उतारती हैं, स्वयं दधि मंथन करती हैं और मेरे घर तो दास दासियां दधि मंथन करती हैं। भगवान की सेवा दूसरों से करानी नहीं चाहिए, स्वयं ही करनी चाहिए। मैं खिलाती हूं तो खाता नहीं और गोपियों से छीनकर-लूटकर खाता है। आज से लाला के लिए मैं स्वयं दधि मंथन करूंगी और अपने लाला को अपने हाथों से खिलाऊंगी। आज मइया ने स्वयं दधि मंथन प्रारंभ किया। दधि मंथन करती हुई माँ का शब्द चित्र श्री शुकाचार्य जी ने यहां बताया।
क्षौमं बासः प्रथुकटीतटे, विभृती सूत्रनध्दं पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं, जात कम्पं च सुभ्रूः। रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्, कड़्कणौ कुण्डले च, स्विन्नं बक्त्रं कवरबिगलन् मालती निर्ममन्थ।। ३/९/१०
बैठी है माँ छोटी सी खटिया पर दधि मंथन कर रही है और हाथों में जो कंगन पहने हुए हैं, उसका मधुर स्वर आ रहा है। माँ का पूरा शरीर हिल रहा है। जरा ध्यान दें! मां ने कानों में कुंडल पहने हुए हैं जो हिल रहे हैं, मां ने अपने बालों में जो फूल लगाएं हैं। वह नीचे गिर रहे हैं, मां को कृष्ण के प्रति वात्सल्य के कारण दूध अपने आप बह रहा है। यह ज्ञाननिष्ठ, कर्मनिष्ठ और भक्तिनिष्ठ की क्रियाओं का दर्शन है। इसका संतों ने अर्थ निकाला है।
हाथ के कंगन कर्मनिष्ठ की क्रिया है, कानों के कुंडल ज्ञाननिष्ठ की क्रिया बताती है और स्नेह के कारण दूध का अपने आप बहना भक्ति को बताती है। देखो मइया दधि मंथन कर रही है यह कर्म हुआ और किसके लिए है?. कृष्ण के लिए! तो कृष्ण मन में समाया है। कि मैं माखन निकालूंगी अपने कन्हैया को खिलाऊंगी यह भक्ति को बताता है और यदि ज्ञान नहीं तो कर्म में कुशलता नहीं हो सकती और जब तक कुसलता नहीं आएगी, तब तक हम योगी कैसे बन सकते हैं। भगवान योग की परिभाषा देते हुए कहते हैं। योग: कर्म सुकौसलम् अपने कर्म में माहिर बने कुसल बने यह भी योग है।
ब्राह्मण
को अपने कर्म में कुशल होना चाहिए, क्षत्रिय को अपने कर्म में माहिर होना चाहिए। वैश्य
बनिया को अपने कर्म में निपुण होना चाहिये और शूद्र को अपने कर्म में संतोष होना
चाहिये। तो अपने कर्म में कुशलता प्राप्त करना ही योग है और यह बिना ज्ञान के नहीं
आएगा। आपका जो कर्म है, उसका पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए।
एक
स्त्री को भोजन पकाने का ज्ञान होना चाहिए, तब वह कुशलता से भोजन पकाएगी यह कर्म है। अपने पति
के प्रेम को मन में रखते हुए, की आज मैं खीर बनाऊंगी अपने पति परमेश्वर के
खिलाऊंगी, वे खायेंगे और मेरे पर प्रसन्न होंगे। यह एक स्त्री की भक्ति है
जब ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होता है तब अच्छी रसोई बनती है। पत्नी पकाये पति
के लिए, बहन पकाये भाई के लिए, पुत्री पकाये पिता के लिए और मां पकाये पुत्र के लिए।
यह एक ही स्त्री के चार रूप होते हैं और इन चारों रूपों में भक्ति है। माँ दधि मंथन
कर रही थी और कृष्ण के बाल चरित्रों का गान कर रही थी, याद कर
रही थी माँ कृष्ण के बाल चरित्रों को। उस वक्त भगवान माँ के इस प्रेम को देखकर
प्रसन्न होकर वहाँ आए। इस समय कृष्ण भूखे हैं, आए और दही मथनी को पकड़ लिया।
मानो भगवान
कहना चाहते हैं कि माँ बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रज्ञ लोग पुराणों,
उपनिषदों का मंथन करते हैं और उस मंथन से प्राप्त तत्व मैं हूँ। तुम क्यों मंथन कर
रही हो?.. मैं तो तुम्हें सहज ही प्राप्त हूँ। छोड़ो इस मंथन को और मुझे दूध
पिलाओ। मैं तो तुम्हारे प्रेम का भूखा हूँ। माँ ने तुरंत दधि मंथन कर दिया बंद, लाला को
उठाया गोद में और दूध पिलाने लगी।
श्री
कृष्ण ने पूछा- मैया! एक बात पूछूं! माँ ने कहा- हाँ
बेटा पूछ! काह बात है। कन्हैया ने कहा- माँ! तुम्हें दूध प्यारा है कि पूत प्यारा है। माँ
ने कहा- हाँ बेटा! मुझे पूत प्यारा है। क्यों?..
कन्हैया ने कहा- बस यूं ही माँ। ठीक उसी समय चूल्हे में रखा दूध पक
रहा था तो वह उबलकर नीचे गिरने लगा, माँ का ध्यान वहाँ गया तो कन्हैया को बैठाया नीचे और
पहुंची दूध को बचाने।
यह देखकर
कन्हैया को आ गया गुस्सा! कि अभी तो माँ ने कहा, कि मुझे पूत प्यारा है। पर अपने
पूत को छोड़कर दूध को बचाने दौड़ पड़ी। कन्हैया ने उठाया एक पत्थर और दे मारा मटकी पर, मटकी
फूटी सारा छाछ घर में बिखर गया। यहाँ माँ ने जैसे ही दूध उतारा चूल्हे से, तो धमाका
सुनाई पड़ा, क्या हुआ? देखने दौड़ी माँ, देखा! तो माखन की भरी मटकी फूटी पड़ी है। छाछ फैला है
पूरे घर में, यह देखा तो माँ को भी बड़ा गुस्सा आया। उठाया हाथ में
लकड़ी बहुत शरारती हो गया, आज तो इसको दंड दे के रहूंगी, छोड़ूंगी
नहीं।
दौड़ते-दौड़ते मइया
थक गई, तो कन्हैया को दया आ गई। माँ ने कहा- कन्हैया!
रुक जा। कन्हैया ने कहा- मैया तुम मारोगी। यह सुनकर मइया ने अपने हाथ की लकड़ी
को फेंक दिया। आजा मैं नहीं मारूंगी! तब कन्हैया धीरे-धीरे माँ
के पास आए और माँ ने पकड़ लिया। चल आज मैं तेरी आरती उतारती हूँ। तू इतना भी सबर
नहीं कर सकता, इतना भी नहीं रुक सकता कि मैं दूध उतार सकूँ। ऐसी
कौन सी भूख लगी है तुझे?.. कितना नुकसान कर दिया! मेरी सास की दी मटकी तू ने
फोड़ दी। आज तेरा भोजन बंद! यह है मातृ प्रेम; भोजन खिलाती ही नहीं! भूखा भी रखती
है दंड देने के लिए। सच में भोजन नहीं देती और न स्वयं लेती! चल आज तुझे ऊखल के
साथ बांधती हूँ। कन्हैया रोते रहे, मां ने एक न सुनी। माँ रस्सी लेकर आईं, बाँधने
लगी! तो दो अंगुल छोटी पड़ गई और दूसरी रस्सी लाई फिर छोटी पड़ी। ये कौन सी रस्सी है?..
यह दाम है! ब्रज में दाम उसे कहते हैं जिस रस्सी से गाय को दुहते समय उसके पिछले
पैरों में जो बांधा जाता है। ऐसी कई रस्सियों अर्थात दाम को जोड़ा, लेकिन
कृष्ण नहीं बंधे। मतलब जो ये दाम है, ये सब भगवत प्राप्ति के साधन है योग, यज्ञ, दान, जप, पूजन!
लेकिन जब अहंता और ममता का त्याग नहीं होगा, तो भगवान बंधन में आएंगे कैसे?..
कितनी भी कोशिश क्यों ना करो, कितना भी तप, जप, ध्यान, योग क्यों ना करलो। जब तक अहंता और ममता को नहीं
छोड़ोगे तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रभु को पाने के लिए स्वसमर्पण
और सर्व समर्पण करना होता है। स्वसमर्पण से ममता और सर्वसमर्पण से अहंता का नाश
होता है।
स्वसमर्पण
ही आत्मनिवेदन है, जो नवधा भक्ति का अंतिम सूत्र है। जब मां ने स्वसमर्पण
किया, फिर सर्वसमर्पण कर दिया, तो भगवान बंधन में आ गए और नाम पड़ा दामोदर। फिर माँ
लग गई अपने काम में, रोते रहे नंदलाल! माँ ने आज एक बात भी नहीं सुनी
रोते-रोते थक गए कन्हैया। फिर सोचा अब किसको सुनाए?. माँ तो
हमारा सुन ही नहीं रही। रोना तब चाहिए, जब मनाने वाला कोई हो।
रोते हुए
भगवान का ध्यान गया यमलार्जुन के वृक्ष पर, भगवान ने सोचा! हम तो बंधनावस्था में हैं, पर इनको
मुक्त कर देते हैं। भगवान आगे चले पीछे-पीछे ऊखल घसिटता हुआ चला आया। घसीटते हुए ऊखल को ले
गए, दो यमलार्जुन वृक्ष के मध्य में बहुत कम जगह थी। कन्हैया तो निकल
गए पर ऊखल फंस गया और फिर कन्हैया ने ऐसा ज़ोर लगाया कि दोनों वृक्ष मूल से उखड़कर
धरती पर गिरे धड़ाम। उसमें से दो पुरुष प्रकट हुए, नलकूबर और मणिग्रीव। भगवान
है बंधन में, तब काम किया शापित को मुक्त करने का। यह करुणा है
परमात्मा की, स्वयं बंधन में है, तब भी भक्त को मुक्त करते
हैं। ये नलकूबर और मणिग्रीव कुबेर के दो पुत्र हैं। भगवान रुद्र के अनुचर है, मदिरा
पीकर कैलाश के रमणीक उपवन में जल क्रीड़ा कर रहे थे स्त्रियों के साथ। उस समय
वहाँ से देवर्षि नारदजी निकले नारद जी को देखकर स्त्रियों ने तो वस्त्र पहन लिए, लेकिन
नलकूबर और मणिग्रीव ने वस्त्र धारण नहीं किया। तो नारदजी ने शाप दे दिया। मेरे
सामने तुम ऐसे खड़े हो जैसे वृक्ष खड़ा होता है। वस्त्र नहीं पहन सकते तो जाओ तुम
दोनों वृक्ष हो जाओ।
महाराज
संत का क्रोध भी अनुग्रह होता है, संत का अपराध बना नलकूबर और मणिग्रीव का, उसके
चार कारण बताते हैं। पहला संपत्ति का अभिमान, बाप कुबेर है। दूसरा सत्ता का अभिमान, रुद्र
के अनुचर है पोस्ट अच्छी है। तीसरा व्यसन जहाँ सम्पत्ति और सत्ता का अभिमान होता
है वहाँ व्यसन भी होता है और चौथा व्याभिचार!
तो संपत्ति, सत्ता, व्यसन
और व्याभिचार ये चार कारण थे संतों का अपमान भी करने लगे थे। पर संत का क्रोध भी
अनुग्रह होता है। जब दोनों ने क्षमा मांगी तब नारद जी ने कहा- कि द्वापर
के अंत में भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में प्रकट होंगे तब तुम्हारा मोक्ष होगा। देखो जिस
कारण भगवान का दर्शन हुआ, उसे शाप या वरदान। यह क्रोध है की अनुग्रह। आज भगवान
के द्वारा नल कूबर और मणिग्रीव का उद्धार हुआ दोनों को आज मुक्ति मिली तब भगवान की
स्तुति की-
बुधवार, 30 अक्टूबर 2024
कान्हा की मिट्टी लीला 96
लेकिन एक दिन कन्हैया पकड़े गए इस दिन कन्हैया अकेले हैं अचानक बैठे बैठे मिट्टी उठाई और खाली ओर बल्लू दादा ने देख लिया बोले क्यों कन्हैया मिट्टी खा रहे हो छोड़ो बरना जाकर मैया से कहता हूँ पर कन्हैया ने मिट्टी नहीं छोड़ी और यहाँ बल्लू दादा आये और माँ से सिकायत करदी ओमिया कन्हैया मिट्टी का रहा है।
आई मैया कन्हैया के पास क्यों रे तुझे माखन कम पड़ गया जो अब मिट्टी खा रहा है। तब कन्हैया बोले-
नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन:।
यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य ये मुखम्।। ३५/८/१०
मां! हे अम्ब!.. मैं ने नहीं खाई, सब झूठे हैं। यदि तुम इनकी बात सच मानती हो तो मेरा मुख तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आंखों से ही देख लो। अब यशोदा जी ने कहा- बताओ अपना मुख और जब कन्हैया ने अपना मुख खोला तो माँ यशोदा ने देखा।
सा तत्र ददृशे विश्वं जगत स्थास्नु च खं दिश: ।
साद्रि द्वीपाब्धि भूगोलं सवाश्वग्नीन्दुतारकम्।।३७/८/१०
मां ने पूरा विश्व देखा भगवान के मुख में, पुनः कन्हैया ने जब यह बताया कि माँ मैंने नहीं खाई। तो क्या भगवान झूठे हैं?
भगवान तो सत्यव्रत हैं, परमसत्य ही कृष्ण हैं। तो क्या भगवान ही असत्य बोले, कि मैंने नहीं खाई। अगर भगवान ही असत्य बोलने लगे तो जीव क्या करेगा। जरा संस्कृत में शब्द को समझें कि कन्हैया ने क्या कहा- अहं “भक्षितवानम्ब” अहं कर्ता, अम्ब सम्बोधन, भक्षितवान क्रिया पद और वाक्य नकारात्मक। अब क्या नहीं खाया ये उन्होंने नहीं बताया। मतलब कन्हैया कहना चाहते हैं, मां! हम भोक्ता नहीं, हमने कुछ खाया नहीं। इस पद में क्रिया है, कर्ता है, पर कर्म नहीं है। क्या नहीं खाई यह नहीं बताया।
कोई बोले- क्या नहीं खाई? तो बताते मिट्टी नहीं खाई! तब यह कर्म होता, मिट्टी माने कर्म। क्रिया प्रकृति है, स्वभावगत है। क्रिया करनी नहीं पड़ती, क्रिया हो जाती है। यह क्रिया वाचक नहीं, कर्म वाचक है। जैसे- आंखों की पलकों का गिरना क्रिया है और किसी चीज को देखना कर्म वाचक है।
पलकों का गिरना, धड़कन का धड़कना, भूख लगना ये सब क्रिया है यह अपने आप होता है, इसमें हमारा कोई बस नहीं। क्रिया में न पुण्य होता और न पाप होता। कर्म के साथ पाप पुण्य जुड़ते हैं, क्रिया के साथ नहीं। तो भगवान की यह सहज क्रिया है, एक लीला है, इसमें कर्म है ही नहीं।
शेर प्राणी को मार कर खा जाता है, यह उसका सहज स्वभाव या प्राकृतिक क्रिया है। ऐसा करने पर शेर को कोई पाप य पुण्य नहीं होता क्योंकि शेर को पाप पुण्य का कोई ज्ञान नहीं। पर मानव को ज्ञान है पाप पुण्य का। बेचारे शेर को खेती करना रोटी पकाना तो आता नहीं। मानव को आता है फिर भी मानव जीव खाता है। इसलिए मानव को पाप लगेगा।
भगवान कर्म के बंधन में नहीं आते क्योंकि वे लीला करते हैं। एक तो उन्हें अभिमान नहीं, दूसरा कर्म के फल की कोई इच्छा भी नहीं है। इसलिए भगवान बंधन मुक्त हैं। भगवान की जो भी क्रिया हो रही है वह मात्र एक लीला । यहां पर भगवान ने कह दिया मां मैं भोक्ता नहीं, मिट्टी उठाई मुख में रखी पर मैंने भक्षण नहीं किया।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञ:।
अहं भोजनं नैव भक्ष्यं न भोक्ता
चिदा नंद रूप: शिवोहम् शिवोहम्।।
इस प्रकार भगवान ने अपने मुख में समूचे विश्व का दर्शन कराया। ऐसा विराट रूप देखा मां ने, जो कुछ है सब भगवान में ही है। सब लोग भगवान में हैं भगवान से अलग कुछ भी नहीं है। इस बात का ज्ञान जब मां को हुआ कि सारी धरती ही भगवान के अंदर है तो फिर खा क्या सकते हैं। मुझसे अलग कुछ है ही नहीं तो मैं खा क्या सकता हूँ। खाई तो वह जाती है जो स्वयं से अलग हो। मां को बताया! मां सर्वत्र और सर्वदा मैं ही हूं।
माँ ने
जब भगवान के इस विराट रूप को देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मैं
अपने बच्चे के मुख में ये क्या देख रही हूं। यह स्वप्न है या माया, क्या यह
मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है?.. फिर माँ ने निर्णय लिया, नहीं-नहीं यह
स्वप्न नहीं! मैं तो जागृत हूं और यह देवमाया
भी नहीं है।
अब यह
देवमाया नहीं, स्वप्न नहीं तो फिर क्या है? मेरे बच्चे का
स्वाभाविक ऐश्वर्य है। तो आज माँ को ज्ञान हो गया कि जिनको मैं पुत्र मान रही हूँ, वह
सच में परमात्मा ही है। भगवान ही आए हैं मेरे घर पुत्र बनकर, कहते
हैं! जिसके पास धन होता है उसे धनवान कहते हैं। उसी तरह जिसके पास भग होता है, उसे
भगवान कहते हैं। छः प्रकार के भग हैं- ऐश्वर्य, वीर, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इसे कहते हैं “षडभग”। ये छः भग से
जो युक्त है वह भगवान हैं, ब्रह्म है, निराकार हैं, साकार है। और ईश्वर जब अवतरित होता है तब भगवान
कहलाता है। ब्रह्म, ईश्वर और भगवान इन तीनों शब्दों में इतना अंतर है। षडेश्वर्य
संपन्न होकर जब आते हैं तो भगवान कहलाते हैं।
मां ने समझ लिया यह मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है। भगवान ही मेरे यहाँ पुत्र
बनकर आये हैं।
माँ ने यहां
पर भगवान के चरणों में वंदना किया, यह देख कन्हैया को अच्छा नहीं लगा। ऐसे में तो सारी लीला
ही समाप्त हो जाएगी। मैं इनका पुत्र बनाकर आया हूँ, अब यह मुझे अपने गोद में नहीं
बैठायेगी। हमारी पूजा होने लगेगी,
हमारी आरती, स्तुति
होने लगेगी। मैं तो यहां लीला करने आया हूँ यह क्या हो गया। तब भगवान ने अपनी माया
का प्रयोग किया माँ पर।
महाराज इन्होंने
अपनी मां को भी नहीं छोड़ा, मां पर भी माया का प्रयोग किया और यह कोई साधारण माया
नहीं है, यह वैष्णवी माया है। भगवान अपने भगतों पर वैष्णवी माया का प्रयोग किया
करते हैं। भगवान के प्रति जो अशक्ति है, वही वैष्णवी माया है और संसार के प्रति जो मोह है वह
योगमाया है। हमारी आसक्ति संसार को छोड़कर यदि भगवान में लग जाये तो जीवन धन्य हो जाये।
यह जो मोह है, इसे भक्ति कहते हैं। गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति जो
मोह है वह भक्ति है।
इस प्रकार
जब वैष्णवी माया का प्रयोग किया तो माता का श्रीकृष्ण के प्रति ईश्वरीय भाव पुत्र में
परिवर्तित हो गया और जो देखा वह सब भूल गई। झट से अपने लल्ला को गोद में उठा लिया और
पहले की भांति लाड़ लड़ाने लगीं।
यहां पर परीक्षित
ने श्री शुकाचार्य जी से पूछा- महाराज! श्रीकृष्ण के जन्मदाता माता पिता तो वसुदेव देवकी
हैं, इनको जो सौभाग्य नहीं मिला वह सौभाग्य नंद यशोदा को मिला। नंद यशोदा
ने ऐसा कौन सा पुण्य किया था?.
तब शुकदेव
जी बोले- परीक्षित पूर्व जन्म में ये दोनों द्रोण नाम के वसु और उनकी धरा नाम
की पत्नी थी। ब्रह्मा जी के कहने से इन्होंने गायों की बहुत सेवा की, तब
भगवान ने वरदान दिया कि मैं तुम्हारे घर गोपाल बनकर आऊंगा। भले ही मेरे माता पिता कोई
अन्य हों, पर मां हम तुम्हारा ही दुग्ध पान कर बड़े होंगे। तुम्हारी अंगूरी पकड़कर
चलना सीखेंगे। इसलिए द्रोण नाम के वसु और उनकी पत्नी धरा, आज
नंद यशोदा बनकर आये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज रज अपने मुख में रख दी, और
ब्रजरज की महिमा बढ़ गई। ब्रज में तो रज की ही महिमा है। ब्रह्म बेटा बनकर
आया है माँ यशोदा का, खुले चरण भगवान ने विचरण किया है वृंदावन में इसलिए
भी ब्रजरज की महिमा बड़ी है।