एक बार मां
यशोदा को विचार आया मेरे घर में इतना सारा माखन है फिर भी कन्हैया मेरे घर का माखन
नहीं खाता है। पूरे गोकुल में चोरी करता फिरता है, भला घर में क्यों नहीं खाता होगा?..
मां ने विचार
किया तब मां को लगा, गोपियां स्वयं माखन उतारती हैं, स्वयं
दधि मंथन करती हैं और मेरे घर तो दास दासियां दधि मंथन करती हैं। भगवान की सेवा दूसरों
से करानी नहीं चाहिए, स्वयं ही करनी चाहिए। मैं खिलाती हूं तो खाता नहीं और
गोपियों से छीनकर-लूटकर खाता है। आज से लाला के लिए मैं स्वयं दधि मंथन
करूंगी और अपने लाला को अपने हाथों से खिलाऊंगी। आज मइया ने स्वयं दधि मंथन प्रारंभ
किया। दधि मंथन करती हुई माँ का शब्द चित्र श्री शुकाचार्य जी ने यहां बताया।
क्षौमं बासः
प्रथुकटीतटे, विभृती सूत्रनध्दं पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं, जात
कम्पं च सुभ्रूः। रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्, कड़्कणौ कुण्डले
च, स्विन्नं बक्त्रं कवरबिगलन् मालती निर्ममन्थ।। ३/९/१०
बैठी है माँ
छोटी सी खटिया पर दधि मंथन कर रही है और हाथों में जो कंगन पहने हुए हैं, उसका
मधुर स्वर आ रहा है। माँ का पूरा शरीर हिल रहा है। जरा ध्यान दें! मां ने कानों में
कुंडल पहने हुए हैं जो हिल रहे हैं,
मां ने अपने बालों में जो फूल लगाएं
हैं। वह नीचे गिर रहे हैं, मां को कृष्ण के प्रति वात्सल्य के कारण दूध अपने आप बह
रहा है। यह ज्ञाननिष्ठ, कर्मनिष्ठ और भक्तिनिष्ठ की क्रियाओं का दर्शन है। इसका संतों ने अर्थ निकाला है।
हाथ के कंगन
कर्मनिष्ठ की क्रिया है, कानों के कुंडल ज्ञाननिष्ठ की क्रिया बताती है और स्नेह
के कारण दूध का अपने आप बहना भक्ति को बताती है। देखो मइया दधि मंथन कर रही है यह कर्म
हुआ और किसके लिए है?. कृष्ण के लिए! तो कृष्ण मन में समाया है। कि मैं माखन
निकालूंगी अपने कन्हैया को खिलाऊंगी यह भक्ति को बताता है और यदि ज्ञान नहीं तो कर्म
में कुशलता नहीं हो सकती और जब तक कुसलता नहीं आएगी, तब तक हम योगी कैसे बन सकते
हैं। भगवान योग की परिभाषा देते हुए कहते हैं। योग: कर्म सुकौसलम् अपने कर्म
में माहिर बने कुसल बने यह भी योग है।
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