रविवार, 17 नवंबर 2024

यमलार्जुन उद्धार भाग - 1 (97)

एक बार मां यशोदा को विचार आया मेरे घर में इतना सारा माखन है फिर भी कन्हैया मेरे घर का माखन नहीं खाता है। पूरे गोकुल में चोरी करता फिरता है, भला घर में क्यों नहीं खाता होगा?..

मां ने विचार किया तब मां को लगा, गोपियां स्वयं माखन उतारती हैं, स्वयं दधि मंथन करती हैं और मेरे घर तो दास दासियां दधि मंथन करती हैं। भगवान की सेवा दूसरों से करानी नहीं चाहिए, स्वयं ही करनी चाहिए। मैं खिलाती हूं तो खाता नहीं और गोपियों से छीनकर-लूटकर खाता है। आज से लाला के लिए मैं स्वयं दधि मंथन करूंगी और अपने लाला को अपने हाथों से खिलाऊंगी। आज मइया ने स्वयं दधि मंथन प्रारंभ किया। दधि मंथन करती हुई माँ का शब्द चित्र श्री शुकाचार्य जी ने यहां बताया।

क्षौमं बासः प्रथुकटीतटे, विभृती सूत्रनध्दं पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं, जात कम्पं च सुभ्रूः। रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्, कड़्कणौ कुण्डले च, स्विन्नं बक्त्रं कवरबिगलन् मालती निर्ममन्थ।। ३//१०

बैठी है माँ छोटी सी खटिया पर दधि मंथन कर रही है और हाथों में जो कंगन पहने हुए हैं, उसका मधुर स्वर आ रहा है। माँ का पूरा शरीर हिल रहा है। जरा ध्यान दें! मां ने कानों में कुंडल पहने हुए हैं जो हिल रहे हैं, मां ने अपने बालों में जो फूल लगाएं हैं। वह नीचे गिर रहे हैं, मां को कृष्ण के प्रति वात्सल्य के कारण दूध अपने आप बह रहा है। यह ज्ञाननिष्ठ, कर्मनिष्ठ और भक्तिनिष्ठ की क्रियाओं का दर्शन है। इसका संतों ने अर्थ निकाला है।

हाथ के कंगन कर्मनिष्ठ की क्रिया है, कानों के कुंडल ज्ञाननिष्ठ की क्रिया बताती है और स्नेह के कारण दूध का अपने आप बहना भक्ति को बताती है। देखो मइया दधि मंथन कर रही है यह कर्म हुआ और किसके लिए है?. कृष्ण के लिए! तो कृष्ण मन में समाया है। कि मैं माखन निकालूंगी अपने कन्हैया को खिलाऊंगी यह भक्ति को बताता है और यदि ज्ञान नहीं तो कर्म में कुशलता नहीं हो सकती और जब तक कुसलता नहीं आएगी, तब तक हम योगी कैसे बन सकते हैं। भगवान योग की परिभाषा देते हुए कहते हैं। योग: कर्म सुकौसलम् अपने कर्म में माहिर बने कुसल बने यह भी योग है।


ब्राह्मण को अपने कर्म में कुशल होना चाहिए, क्षत्रिय को अपने कर्म में माहिर होना चाहिए वैश्य बनिया को अपने कर्म में निपुण होना चाहिये और शूद्र को अपने कर्म में संतोष होना चाहिये। तो अपने कर्म में कुशलता प्राप्त करना ही योग है और यह बिना ज्ञान के नहीं आएगा। आपका जो कर्म है, उसका पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए।

 

एक स्त्री को भोजन पकाने का ज्ञान होना चाहिए, तब वह कुशलता से भोजन पकाएगी यह कर्म है। अपने पति के प्रेम को मन में रखते हुए, की आज मैं खीर बनाऊंगी अपने पति परमेश्वर के खिलाऊंगी, वे खायेंगे और मेरे पर प्रसन्न होंगे। यह एक स्त्री की भक्ति है जब ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होता है तब अच्छी रसोई बनती है। पत्नी पकाये पति के लिए, बहन पकाये भाई के लिए, पुत्री पकाये पिता के लिए और मां पकाये पुत्र के लिए। यह एक ही स्त्री के चार रूप होते हैं और इन चारों रूपों में भक्ति है। माँ दधि मंथन कर रही थी और कृष्ण के बाल चरित्रों का गान कर रही थी, याद कर रही थी माँ कृष्ण के बाल चरित्रों को। उस वक्त भगवान माँ के इस प्रेम को देखकर प्रसन्न होकर वहाँ आए। इस समय कृष्ण भूखे हैं, आए और दही मथनी को पकड़ लिया।

 

मानो भगवान कहना चाहते हैं कि माँ बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रज्ञ लोग पुराणों, उपनिषदों का मंथन करते हैं और उस मंथन से प्राप्त तत्व मैं हूँ। तुम क्यों मंथन कर रही हो?.. मैं तो तुम्हें सहज ही प्राप्त हूँ। छोड़ो इस मंथन को और मुझे दूध पिलाओ। मैं तो तुम्हारे प्रेम का भूखा हूँ। माँ ने तुरंत दधि मंथन कर दिया बंद, लाला को उठाया गोद में और दूध पिलाने लगी।

 

श्री कृष्ण ने पूछा- मैया! एक बात पूछूं! माँ ने कहा- हाँ बेटा पूछ! काह बात है। कन्हैया ने कहा- माँ! तुम्हें दूध प्यारा है कि पूत प्यारा है। माँ ने कहा- हाँ बेटा! मुझे पूत प्यारा है। क्यों?.. कन्हैया ने कहा- बस यूं ही माँ। ठीक उसी समय चूल्हे में रखा दूध पक रहा था तो वह उबलकर नीचे गिरने लगा, माँ का ध्यान वहाँ गया तो कन्हैया को बैठाया नीचे और पहुंची दूध को बचाने।

 

यह देखकर कन्हैया को आ गया गुस्सा! कि अभी तो माँ ने कहा, कि मुझे पूत प्यारा है। पर अपने पूत को छोड़कर दूध को बचाने दौड़ पड़ी। कन्हैया ने उठाया एक पत्थर और दे मारा मटकी पर, मटकी फूटी सारा छाछ घर में बिखर गया। यहाँ माँ ने जैसे ही दूध उतारा चूल्हे से, तो धमाका सुनाई पड़ा, क्या हुआ? देखने दौड़ी माँ, देखा! तो माखन की भरी मटकी फूटी पड़ी है। छाछ फैला है पूरे घर में, यह देखा तो माँ को भी बड़ा गुस्सा आया। उठाया हाथ में लकड़ी बहुत शरारती हो गया, आज तो इसको दंड दे के रहूंगी, छोड़ूंगी  नहीं।

 

दौड़ते-दौड़ते मइया थक गई, तो कन्हैया को दया आ गई। माँ ने कहा- कन्हैया! रुक जा। कन्हैया ने कहा- मैया तुम मारोगी। यह सुनकर मइया ने अपने हाथ की लकड़ी को फेंक दिया। आजा मैं नहीं मारूंगी! तब कन्हैया धीरे-धीरे माँ के पास आए और माँ ने पकड़ लिया। चल आज मैं तेरी आरती उतारती हूँ। तू इतना भी सबर नहीं कर सकता, इतना भी नहीं रुक सकता कि मैं दूध उतार सकूँ। ऐसी कौन सी भूख लगी है तुझे?.. कितना नुकसान कर दिया! मेरी सास की दी मटकी तू ने फोड़ दी। आज तेरा भोजन बंद! यह है मातृ प्रेम; भोजन खिलाती ही नहीं! भूखा भी रखती है दंड देने के लिए। सच में भोजन नहीं देती और न स्वयं लेती! चल आज तुझे ऊखल के साथ बांधती हूँ। कन्हैया रोते रहे, मां ने एक न सुनी। माँ रस्सी लेकर आईं, बाँधने लगी! तो दो अंगुल छोटी पड़ गई और दूसरी रस्सी लाई फिर छोटी पड़ी। ये कौन सी रस्सी है?.. यह दाम है! ब्रज में दाम उसे कहते हैं जिस रस्सी से गाय को दुहते समय उसके पिछले पैरों में जो बांधा जाता है। ऐसी कई रस्सियों अर्थात दाम को जोड़ा, लेकिन कृष्ण नहीं बंधे। मतलब जो ये दाम है, ये सब भगवत प्राप्ति के साधन है योग, यज्ञ, दान, जप, पूजन! लेकिन जब अहंता और ममता का त्याग नहीं होगा, तो भगवान बंधन में आएंगे कैसे?.. कितनी भी कोशिश क्यों ना करो, कितना भी तप, जप, ध्यान, योग क्यों ना करलो। जब तक अहंता और ममता को नहीं छोड़ोगे तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रभु को पाने के लिए स्वसमर्पण और सर्व समर्पण करना होता है। स्वसमर्पण से ममता और सर्वसमर्पण से अहंता का नाश होता है।

 

स्वसमर्पण ही आत्मनिवेदन है, जो नवधा भक्ति का अंतिम सूत्र है। जब मां ने स्वसमर्पण किया, फिर सर्वसमर्पण कर दिया, तो भगवान बंधन में आ गए और नाम पड़ा दामोदर। फिर माँ लग गई अपने काम में, रोते रहे नंदलाल! माँ ने आज एक बात भी नहीं सुनी रोते-रोते थक गए कन्हैया। फिर सोचा अब किसको सुनाए?. माँ तो हमारा सुन ही नहीं रही। रोना तब चाहिए, जब मनाने वाला कोई हो।

 

रोते हुए भगवान का ध्यान गया यमलार्जुन के वृक्ष पर, भगवान ने सोचा! हम तो बंधनावस्था में हैं, पर इनको मुक्त कर देते हैं। भगवान आगे चले पीछे-पीछे ऊखल घसिटता हुआ चला आया। घसीटते हुए ऊखल को ले गए, दो यमलार्जुन वृक्ष के मध्य में बहुत कम जगह थी। कन्हैया तो निकल गए पर ऊखल फंस गया और फिर कन्हैया ने ऐसा ज़ोर लगाया कि दोनों वृक्ष मूल से उखड़कर धरती पर गिरे धड़ाम। उसमें से दो पुरुष प्रकट हुए, नलकूबर और मणिग्रीव। भगवान है बंधन में, तब काम किया शापित को मुक्त करने का। यह करुणा है परमात्मा की, स्वयं बंधन में है, तब भी भक्त को मुक्त करते हैं। ये नलकूबर और मणिग्रीव कुबेर के दो पुत्र हैं। भगवान रुद्र के अनुचर है, मदिरा पीकर कैलाश के रमणीक उपवन में जल क्रीड़ा कर रहे थे स्त्रियों के साथ उस समय वहाँ से देवर्षि नारदजी निकले नारद जी को देखकर स्त्रियों ने तो वस्त्र पहन लिए, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव ने वस्त्र धारण नहीं किया। तो नारदजी ने शाप दे दिया मेरे सामने तुम ऐसे खड़े हो जैसे वृक्ष खड़ा होता है। वस्त्र नहीं पहन सकते तो जाओ तुम दोनों वृक्ष हो जाओ।

 

महाराज संत का क्रोध भी अनुग्रह होता है, संत का अपराध बना नलकूबर और मणिग्रीव का, उसके चार कारण बताते हैं। पहला संपत्ति का अभिमान, बाप कुबेर है। दूसरा सत्ता का अभिमान, रुद्र के अनुचर है पोस्ट अच्छी है। तीसरा व्यसन जहाँ सम्पत्ति और सत्ता का अभिमान होता है वहाँ व्यसन भी होता है और चौथा व्याभिचार! तो संपत्ति, सत्ता, व्यसन और व्याभिचार ये चार कारण थे संतों का अपमान भी करने लगे थे। पर संत का क्रोध भी अनुग्रह होता है। जब दोनों ने क्षमा मांगी तब नारद जी ने कहा- कि द्वापर के अंत में भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में प्रकट होंगे तब तुम्हारा मोक्ष होगा। देखो जिस कारण भगवान का दर्शन हुआ, उसे शाप या वरदान। यह क्रोध है की अनुग्रह। आज भगवान के द्वारा नल कूबर और मणिग्रीव का उद्धार हुआ दोनों को आज मुक्ति मिली तब भगवान की स्तुति की-

1 टिप्पणी:

  1. जय श्री कृष्णा आचार्य जी, अति सुंदर व्याख्यान करते हैं आप। आनंद आगया आपको कोटि कोटि नमन🙏

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