गुरुवार, 22 मई 2014

भाग्योदयेन बहुजन्म समर्जितेन (महात्म्य​) 6

नारद जी ज्ञान और वैराग्य के पास जाकर उन्हें हिलाया, अरे! ज्ञान उठो। वैराग्य जागो। उठाने में जब कुछ नहीं हुआ, तब नारद जी ने कई बार गीता का वेदों का पाठ किया, पर ज्ञान वैराग्य जम्हाई लेकर सो जाते। यह देख कर नारद जी को बड़ी चिन्ता हुई, तब उसी समय आकाश में आकाशवाणी हुई। 

नारदजी! चिन्ता मत करिये, आप सत्कर्म करिये और उस सत्कर्म की शिक्षा कोई संत देंगे । बस उसी संत की तलास में मैं यहां आ पहुंचा, अब आपभी तो संत हैं, इसलिए आप ही बताईये आकाशवाणी ने जो सत्कर्म बताया वह सत्कर्म क्या है? 

इस प्रकार नारदजी ने अपनी पूरी समस्या सनकादियों के सामनें रखी। यह सुन सनकादि बड़ी जोर से हंसे। बोले- नारदजी आप महान हो। आप परेशान हो पर अपने लिए नहीं दूसरों के लिए, एक तोसंत कभी चिन्ता करते नहीं और चिन्ता करते भी हैं तो समाज के लिए, दूसरों के लिए। प्राणियों का कल्याण कैसे हो, भटके हुए को सत्कर्म की शिक्षा कैसे मिले, बस यही तो उनकी साधुता है।

सो हे नारद जी! आप चिन्ता न करें उनके उद्धार का एक सरल उपाय तो तुम पहले से ही जानते हो। पर आकाशवाणी ने जिस सत्कर्म का संकेत दिया है वह श्रीमद्भागवत! जिसके श्रवण मात्र से भक्ती के सहित ज्ञान और वैराग्य का भी कल्याण होगा। 

नारदजी बोले! पर महराज मैंने तो उन्को गीता, वेद आदि सब सुनाया कुछ नहीं हुआ तो भागवत कथा से क्या होगा मुझे यह विस्तार से बताईये। 

तब सनकादियों ने बताया- नारदजी! "श्रीमद्भागवत" चारो वेदों का सार है। वेद है वृक्ष और उसका  फल है भागवत, तो जो मिठास फल में होता है, क्या वह मिठास वृक्ष में होता है? नहीं। वेद है दूध​ और भागवत है घी, तो जो कार्य घी करता है क्या वह दूध करेगा ? नहीं। हम घी से ही आहूतियाँ देते हैं अग्नी में, जिससे देवता पुष्ट होते हैं। पर आप घी की जगह दूध डालो, तो क्या होगा। जब ऐसा दृश्टान्त सुनाया तो नारद जी गदगद हो गये।

बोले महराज! आज मैं जान गया की जीवन के जब भाग्य उदय होते हैं, तब आप जैसे परम हंस​संतो का सतसंग सुनने को मिलता है। 

भाग्योदयेन बहुजन्म समर्जितेन, 
        सत्सड़्गमं चलभते पुरुषो यदावै।
अज्ञानहेतुकृतमोह मदान्धकार​, 
        नाशं बिधाय हि तदोदयते विवेक​:॥

और उस सतसंग के द्वारा सारी अज्ञानता मिटजाती है। मोह का अंधकार नष्ट होकर जीवन में विवेक रुप का प्रकाश प्रकट हो जाता है। "विवेक​: उदयते" अज्ञान का अंधकार खत्म होता है और ज्ञान का उदय होता है। प्राणी जव सत्कर्म करता है तो सतसंग सुनने का अवसर मिलता है। और सतसंग से ही विवेक मिलता है। 
॥बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

नारदजी ने कहा महराज अब आपने सुन्दर सत्कर्म बताया है तो अब आप ही हमें कथा सुनाईये। और हम कथा सुने कहां।तो सनकादियों ने बताया! "गंगाद्वार समीपेतु तटमानन्द नामकम" हरिद्वार में आनंद नाम का तट है बस वही हम यह कथा श्रवण करेंगे। क्यों?... क्योंकि हरिद्वार है हरि का द्वार। यहां संत भी आयेंगे और गृहस्थ भी, जब हरिद्वार में कथा का आयोजन होना निश्चित हुआ, तो सनकादि नारदजी को लेके हरिद्वार आये। अब नारदजी ने वहां पर आसन बनाया। सनकादि वक्ता बन बैठ गये और नारद जी श्रोता! जब संतो को पता चला तो?..

भृगुर्वसिष्ठश्च्यवनश्च गौतमो
             मेधातिथिर्देबलदेवरातौ।
रामस्तथा गाधिसुतश्च शाकलो                                    मृकण्डुपुत्रात्रिज पिप्पलादा:॥

भगवान विष्णु के भक्त वैष्णव दौड़ दौड़कर वहां आने लगे। भृगु, वशिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल सब आये। इधर संसारी लोग भी संसार छोड़ भागे, देखते ही देखते हजारों संतों, गृहस्थों का समुदाय वहां एकत्रित हो गया। एक ओर संत मंडली, तो एक ओर गृहस्थ मंडली, इस तरह विशाल आयोजन श्रीभागवत जी का हरिद्वार के गंगा तट पर। 

कुछ लोग तो अपने अभिमान के कारण नहीं आरहे थे, तो भृगु जी उन्हें पकड़ पकड़ कर लाते हैं। उनका यह मानना है कि यदि मेरी प्रेरणा से कोई कथा सुनता है तो उसका १०% का पुण्य मेरे हिस्से में आयेगा। आप भी अगर १०% का पुण्य अधिक लेना चाहते हैं तो अपने साथ दो चार लोगों को साथ लेके आओ। नारद जी श्रोता हैं और सनकादिक वक्ता, सनक जी कहते हैं! 

नारदजी!- यह श्रीमद्भागवत कथा सदा श्रवणीय है, जिसने मानव शरीर पाकर के इस दिव्य कथा का श्रवण नहीं किया उसका तो जीवन ही व्यर्थ है। मनुष्य की दो गतियां हैं- बगीचे के पुष्प की तरह; बगीचे में एक कली है, खिला तो पहली गती यह की माली आया तोड़कर परमात्मा के चरणों में अर्पित कर दिया। दूसरी गती यह की जो खिले तो पर  माली के हांथों से बच गये वे पुष्प बगीचे में सूख कर नष्ट हो गये। व्यर्थ ही उनका खिलना रहा इसी प्रकार मनुष्य पैदा हुआ है तो मात्र परमात्मा की प्राप्ती के लिए, हमारा उद्येश मात्र परमात्मा की प्राप्ती, हमने यदि सतसंग नहीं किया तो हमारा जीवन व्यर्थ है। 

मनुष्य पैदा हुआ है तो मात्र पूर्व किए कर्मों को भोगने के लिए, भोगे पर परमात्मा के निकट रहकर पर वह ऐसा नही करता; वह तो और भी दुश्कर्म कर यहीं उलझा रहता है। मुक्ती तो उसे मात्र उसे भागवत श्रवण से है. और दूसरा कोई उपाय नहीं। इस प्रकार से भागवत जी का माहात्म्य सुना ही रहे थे कि तभी भागवत जी से भक्ती महरानी अपने दोनों पुत्र ज्ञान वैराग्य को साथ लिए प्रगट हो ग​ई। 

भक्ति: सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा 
           प्रेमैक रूपा सहसाऽऽविरासीत।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे 
            नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती॥
संकीर्तन की आवाज करती हुई भक्ती महरानी प्रगट हुई, भागवत की कथा नहीं केवल महात्म्य श्रवण मात्र से ज्ञान वैराग्य स्वस्थ हो गये। भक्ती महरानी ने कहा- महराज! यहां तो सबके निश्चित स्थान है। मै कहा बैठूं। तब सनकादि बोले देवी! यहां पर जितने भी वैष्णव भक्त के ह्रदय में अपना आसन बनाओ। भक्त के ह्रदय में यदि भक्ति महरानी विराजमान हो जाये तो भगवान को बरबस होकर आना ही पड़ता है, बस इसी बन्धन सूत्र से भगवान को बांधा जासकता है। भक्ति महरानी  जब भक्तों के ह्रदय में आई तो बस झूम उठी वैष्णव मण्डली सब संकीर्तन में झूम उठे। संकीर्तन बोले-

ये मानवा: पाप कृतस्तु सर्वदा 
          सदा दुराचाररता विमार्गगा:।
क्रोधाग्निदग्धा: कुटिलाश्च कामिन: 
          सप्ताह यज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥

नारद जी ने पूछा- महराज​! भागवत के श्रवण मात्र से कैसे-कैसे पापी तर सकते हैं...  तब सनकादियों ने कहा नारद जी! यह तुम्हारा प्रश्न ही गलत है। ऐसा कोई पापी ही नहीं जो भागवत के श्रवण से बच के रह जाये। हम तो कहते हैं वह तरेगा जो थोड़ा बहुत पाप किया हो लेकिन भागवत के श्रवणसे वह भी तरा है जिसने पाप के सिवा कुछ नहीं किया। "ये मानवा: पापकृतस्तु सर्वदा"  जिसने सदा पाप ही किया, सदा दुराचार में ही रत है-"क्रोधाग्निदग्धा:- क्रोध की आग में जो जलते ही रहते है। कुटिलता और काम जिनका अन्त​:करण हो गया है। पर ऐसे प्राणी भी, "सप्ताह यज्ञेन कलौ पुनन्ति ते" इस घोर कलियुग में कथा श्रवण कर पवित्र हो जायेगा। हम तो कहते है जिसने जीते जी भी यह कथा न सुनी हो अर्थात बिना सुने ही प्राण त्याग दिया हो, वह भी यह कथा सुनले तो पवित्र हो जाये, प्रेत आदि योनि से भी मुक्त हो जाये।

5 टिप्‍पणियां:

  1. नारद जी ज्ञान और वैराग्य के पास जाकर उन्हें हिलाया, अरे! ज्ञान उठो। वैराग्य जागो। उठाने में जब कुछ नहीं हुआ, तब नारद जी ने क​ई बार गीता का वेदों का पाठ किया, पर ज्ञान वैराग्य जम्हाईलेकर सोजाते । यह देख कर नारद जी को बड़ी चिन्ता हुई, तब उसी समय आकाश में आकाशवाणी हुई । नारदजी! चिन्ता मत करिये, आप सत्कर्म करिये और उस सत्कर्म की शिक्षा कोई संत देंगे । बस उसी संत की तलास में मैं यहां आ पहुंचा, अब आपभी तो संत हैं, इसलिए आप ही बताईये आकाशवाणी ने जो सत्कर्म बताया वह सत्कर्म क्या है?

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  2. क्यों ज्ञान और वैराग्य बूढें थे ?

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    1. ज्ञानवैराग्य नामानौ,काल योगेन जर्जरौ

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    2. ज्ञान और वैराग्य नाम के भक्ति के दो पुत्र, काल के योग से वृद्ध (बूढ़े) हो गए।

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  3. बहुत सुंदर प्रभु जी साधुवाद

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