बुधवार, 18 जून 2014

तुंगभद्रा तटे पूर्वम् (महात्म्य​) 7

नारद जी ने हाथ जोड़कर कहा- क्षमा करें! मरने के बाद जिसने कथा सुनी और मुक्त हुआ, ऐसा कोई इतिहास हमें सुनाइये।
तब सनक जी बोले- 
तुंगभद्रा तटे पूर्वम् भूत्पत्तनमुत्तमम्। 
यत्र वर्णा: स्वधर्मेण सत्य सत्कर्मतत्परा:॥
यह आत्मदेव की कथा को हमें समझना चाहिए। यह आत्मदेव कौन है?.. धुन्धकारी कौन है?..
आईये हम इन्हें जानें। यह कथा इतिहास होने के साथ-साथ हमारे जीवन से भी जुड़ी है। अध्यात्म दृश्टी से अगर हम देखें तो?.. तुंगभद्रा नदी के तट पर रहने वाला ब्राह्मण कौन​? तुंग माने श्रेष्ठ और भद्र माने कल्याण। तो श्रेष्ठ कल्याण करने का जो साधन है उसी का नाम है तुंग भद्रा। आत्मदेव कौन? मानव शरीर से ही तो कल्याण किया जा सकता है। पशु पक्षी अपना कल्याण नहीं करते। कल्याण का प्रयास तो मानव ही करता है। मानव देह से ही मोक्ष का मार्ग प्रसस्त करता है। इसलिए बड़भागियों को ही मानव शरीर मिलता है। 

बाबा तुलसीदास जी ने कहा है!
बड़े भाग मानुष तन पावा, नर दुर्लभ सद ग्रंथन गावा। 
छोटे मोटे भाग्यशालियों को नहीं मिलता यह शरीर​, इसलिए केवल यही मोक्ष के मार्ग को प्रसस्त करता है, इसी का नाम है तुंग भद्रा। अब ब्राह्मण आत्मदेव सीधा सच्चा भोला भाला है। इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन इसकी पत्नी धुन्धली है। अब जीवात्मा की पत्नी कौन बुद्धी देवी हमारी जो बुद्धी है न बस वही धुन्धली है, धुन्धली माने कुतर्कनी संस्यात्मिका बुद्धी ही धुन्धली का नाम है। यह जो बुद्धी है न यही तो आत्मदेव को भटकाती है, उससे परेशान होके मरने गया आत्मदेव मिल गये संत, दे दिया फल। 

अब ब्राह्मण ने गलती करी क्या?.. संत ने कहा अपनी पत्नी को फल खिला देना, पर आत्मदेव ने फल​ उसे खिलाया नहीं, दे दिया की लो फल खा लेना।  यही गल्ती हम लोग भी करते हैं। भगवान प्रत्येक​ मानव को मौका देते हैं और उस मौके का लाभ हम कितना उठा पाते हैं, यह हम पर निर्भर करता है। आप कथा में आते हैं और यहां आपके कल्याण की बात बताई जाती है। और हम सुनते है, ठीक है! पर हम अपनी बुद्धी को नहीं खिलाते, यही गलती करते है। यदी फल धुंधली खाती तो गोकर्ण उसी के होते गाय को नहीं, परन्तु उस ब्राह्मण की किस्मत में तो संतान थी ही नहीं जो की पहले ही उन संत ने बताया था। ऐसे ही यदि हम भी कथा सुन के कथा बुद्धी को खिलाए अर्थात मनोमन्थन करें, कथा सुनकर एकान्त में बैठकर चिंतन करें। चिंता और चिंतन में अन्तर है, चिंता संसार की घर गृहस्थी की पर चिंतन परमात्मा का करते हैं। और आपकी बुद्धी एक बार भी चिंतन करे तो बिना कल्यान हुए रह सकते नहीं। पर हम करते क्या हैं; वह फल हम दूसरों को खिलाते हैं। अर्थात दूररों को उपदेश देते हैं पर स्वयं कुछ नहीं करते, इसलिए कथा सुनें पर अपनी बुद्धी को खिलाएं। 

कथा के चरित्रों को अपने जीवन में उतारें, उन्हें अपनाएं तभी कल्याण सम्भव है। आत्मदेव को धुन्धकारी ने सताया तो वह घर छोड़ वन की ओर भागा तो रास्ते में मिलगये गोकर्ण जी; यह कथा तो आपने बहोत सुनी है इसलिए इस कथा का जो सार है वह आप ध्यान देकर सुनें। मिलगये गोकर्ण जी, ये गोकर्ण कौन हैं?.. गो माने इन्द्रीय और कर्ण माने कान, तो कान रूपी ज्ञानेन्द्रीय से सुना हुआ ज्ञान। जब कभी जीवन में ऐसी ठोकर लगती है तो सुना हुआ ज्ञान समझ में आता है; कि उन संत ने ठीक कहा था। जब तक ठोकर नहीं लगती तब तक हम सम्हलने की कोशिस भी नहीं करते। 

गोकर्ण जी बोले- पिता जी! यह संसार असार है, यहां कोई सुखी नहीं; सब अपनी संतान को ही सुख​मानते हैं, हम दूसरों को सुखी अवश्य समझते हैं पर वास्तव में हैं सभी दु:खी। 

आत्मदेव! पुत्र तो सुखी कौन है?..

गोकर्ण जी बोले! पिता जी!
कोई तन दु:खी कोई मन दु:खी, कोई धन बिन रहत उदास। 
थोड़े थोड़े सब दु:खी, सुखी राम के दास॥ 

पिता जी! (राम के दास कभी न होवें उदास)  हमारी आपकी बात छोड़ो यहां सुख तो चक्रवर्ती सम्राट को भी नहीं है, देवराज इन्द्र भी सुखी नहीं। इस संसार में बस सुखी वही है, जो मोह माया का त्याग कर भजनानंदी हो जाये; भक्ती भाव से गोविन्द नाम स्मरण करे। वही सुखी है, बाकी सब दु:खी। 

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