सोमवार, 12 मई 2014

तरुणी प्रभुता गेहे (महात्म्य​) 5

नारदजी। आपका मुख उदास क्यों है?  घर परिवार तो आपके है नहीं, बीबी बच्चे भी नहीं हैं, तो फिर किस बात की चिन्ता?

संसारी को बहुत प्रपंच होते हैं यदी वह परेशान है तो चलता है। पर आप जैसे साधु यदी मुख लटकाएं तो बात कैसे बनेगी। साधू तो वह है, जो अपना नहीं दूसरों के कार्य को साधे वह साधू है। अच्छा तुम कहां से आ रहे हो, और कहां जा रहे हो ? जरा शीघ्रता से बताओ।

तब नारद जी ने चारो भाईयों को प्रणाम किया, और बोले मैं सब विस्तार से सुनाता हूँ। तनिक बैठिए तो। अब नारद जी ने अपनी समस्या सुनाई- महराज! मैने सुना था की सत्संग का आनंद तो केवल मृत्युलोक में है। तो मैं सत्संग के द्वारा सुख शान्ति पाने के लिए मृत्युलोक में आया मुझे यहां सुख शान्ति मिली नहीं, मैं पुष्कर, गया, काशी, प्रयाग हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग​, सेतुबंध, रामेश्वर सब जगह  पहुंचा, लेकिन मुझे शान्ती कहीं नहीं मिली, फिर मैने सोचा अभी-अभी भगवान श्रीकृष्ण, बाललीला कर गोलोक धाम गए है तो उनके नित्य निवास श्री धाम वृन्दावन गया।

सत्यं नास्ति तप​: शौचं दया दानं न विद्यते ।
उदरम्भरिणो जीवा वराका: कूटभाषिण​: ॥
न तो सत्य है न तप है न पवित्रता और न दया दान। मृत्यु लोक का मनुष्य तो समझते है, और​बड़े कूट भाषी हो गये है जो पाखण्डी है, लोग उन्हें संत कहते है, पर वास्तव में जो संत हैं उनसे कोई राम राम भी नहीं करता।

तरुणी प्रभुता गेहे, श्यालको बुद्धी दायक​: ॥
घर की जो बहू है, पूरे घर में उसी का शासन है, माता-पिता को तो कोई पूछता ही नहीं और यदी कुछ पूछना हो, तो अपने पिता या बड़े भाई से नहीं अपने साले से पूछते हैं । और आप तो जानते है की साले से बुद्धी लेने के कारण महाभारत हुआ ।
कन्या विक्रयिणो लोभाद्दम्पत्तीनां च कल्कनम्। 
अब यहां कन्या का पाणिगृहण नहीं, विवाह नहीं क्रय विक्रय होता है और यही "दम्पत्तीनां च कल्कनम्"

परिवार में कलह का कारण है। तीर्थों में संतों का नहीं अधर्मियों का वास है, ऐसे अनेक दोष देखता हुआ मैं वृन्दावन आया, पर मैने वहां एक आश्चर्य देखा । 


भो भो: साधो क्षणं तिष्ठ 
                मच्चिन्तामपि नाशय ।
दर्शनं तब लोकस्य 
                 सर्वथाघहरं परम ॥
हे महात्माजी! कृपया आप क्षण भर के लिए यहां ठहरिए और मेरी चिन्ता को हरिए। आप जैसे संतों के दर्शन से मेरे सारे कष्ट दूर हो जा​एंगे। उसने जब ये शब्द कहे, तब मैने उस युवती से यह पूंछा-

देवी! तुम कौन हो? और ये दो पुरुष कौन हैं? तुम्हारे क्या लगते हैं, और तुम्हारी सेवा करती हुई ये स्त्रियां कौन हैं? ये सारी बात बताओ, तुम चिन्ता मत करो मैं सब ठीक करदूंगा। यूं दु:खी होने की आवश्यकता नहीं।  तब नारद जी की बात सुनकर वह स्त्री बोली-

अहं भक्तिरिति  ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।

ज्ञानवैराग्यनामानौ काल योगेन जरजरौ॥
महराज​! मेरा नाम भक्ति है और ये दोनों बृद्ध पुरुष  मेरे पुत्र हैं, इनका नाम ज्ञान और वैराग्य है। मेरी सेवा करती हुई ये स्त्रियां गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियां हैं। मेरे दु:ख का कारण तो बस इतना है मुनिवर! की ये दोनों मेरे बेटा वृद्ध हैं। माता वृद्ध है और पुत्र तरुण तो दु:ख कैसा, पर विडम्बना तो यह है कि बेटा वृद्ध और माता तरुण बस इसी बात का दु:ख है। माता को सुख हो या दु:ख कोई बात नहीं, पर संतान को दु:ख हुआ माता अपना सब दु:ख, सुख भूल जाती है। इसलिए महराज जैसे भी मेरे पुत्रों को स्वस्थ कर दीजिए। मेरा जन्म दक्षिण में हुआ, कर्णाटक में बड़ी और महराष्ट्र में पली, पर जब मैं गुजरात ग​ई तो मैं वृद्ध हो ग​ई, तब सब छोड़के मैं वृन्दावन आग​ई, पर वृन्दावन में मैं तो तरुण हो  ग​ई पर मेरे पुत्र वृद्ध हो गये। 

बस, मेरे बेटे स्वस्थ हो जाए फिर कोई चिन्ता नहीं। नारद जी ने एक क्षण में भक्ती के दु:ख का कारण जान लिया और बोले- बस मैं तो जान गया आप श्रीकृष्ण प्रिया भक्ती महरानी हैं। आप जिस घर में चली जाएँ, वहाँ भगवान को आना ही होता है, चाहे वह किसी का घर क्यों न हो । यह धरती अब पाप से भारी हो रही है, इस घोर कलियुग में अब तुम्हारे पुत्रों का साथ कोई नहीं अपनाता और वृन्दावन में -


वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा । 

धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ॥
बस! वृन्दावन के संयोग से तुम तरुणी हो, धन्य है यह वृन्दावन जहां भक्ती सदा नृत्य करती ही दिखाई देती है। तुम्हारे इन पुत्रों को यहां कुछ आत्म सुख मिल रहा है, बस इसीलिए ये सो रहे है।  तो मां! अब तुम बिल्कुल भी चिन्ता मत करो, मैं इन्हें शान्ती दिलाने का प्रयास करता हूँ।

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