नारद जी ने व्यास जी को अपना पूर्व चरित्र सुनाया और अंतर्ध्यान हुए ।
वेदव्यास जी नारद जी के जाते ही सरस्वती नदी में स्नान कर सूर्यदेव को अर्घ्य देकर अपनी कुटिया पहुँचे आसन लगाया और गोविन्द का ध्यान करके ऐसी कलम चलाई की भागवत जैसे दिव्य ग्रन्थ की रचना करदी ।
सम्याप्रास नामका आश्रम है । जो आज व्यास गुफाके नामसे प्रसिद्ध है । नारदजी ने उसी गुफा में बैठकर व्यासजी को प्रेरणादी और तब व्यासजी ने भागवत जैसे दिव्य ग्रन्थकी रचना करी और सोचने लगे की इस दिव्य ग्रन्थका श्रवण किसे कराऊँ, किसे सुनाऊँ यह ग्रन्थ । अब" यह जो परमहंसों की संहिता है तो किसी परमहंस को ही सुनाऊँगा ।
ध्यान करने लगे कौन है ऐसा दिव्य श्रोता, तब ध्यान आया अपने पुत्रका पुत्रशुकदेव से बढकर कोई दिव्य श्रोता नहीं उनसे बड़ा कोई भागवत प्रेमी नहीं । जो जन्म लेते ही वनको चले गये, भगवान विष्णुकी माया ने जिसे स्पर्श भी नहीं किया, म आता-पिता का शब्दभी जिसे अकृष्ट नहीं कर सका, परन्तु मेरा वह बेटा अभी है कहाँ, मैं कहाँ ढूड़ूँ उसे ।
तब व्यासजी ने अपने कुछ शिष्योंको भागवतजी के कुछ मंत्र रटाकर बोले- आप सब वन में जाओ और इस मंत्र का मधुर स्वर में गान करो । वे चारो शिष्य (जैमिनी, वैसम्पायन, सुमन्तु और उग्रसृवा) व्याजी के आदेश का पालन करते हुए उन मंत्रों यत्र-तत्र गायन करने लगे-
वर्हापीडं नटवर वपु: कर्णयो: कर्णिकारं ।
विभ्रद्वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालां ॥
ये आधा श्लोक गाया, इस आधे श्लोक को गाकर जैसेही चुप हुए, महर्षिवेदव्यास के पुत्र परमहंस शुकदेवजी महराज की समाधी टूट गई । विचार किया वाह कितना सुन्दर है, सिरपर मोर पंख का मुकुट सोभा दे रहा है और कानों में कनेर का पुष्प, तीन जगह से टेड़े शरीर पर (कनक) सुनहरा पीताम्बर और गले में वैजयन्ती माला है । कितना सुन्दर श्रृँगार है ।
ध्यान दीजिए, भगवान श्रीकृष्ण भी यहाँ पर प्रकृति को ही बढाबा देरहे हैं । उनके अंगमें जितनी भी चीजें हैं वो सब प्राकृतिक हैं, प्राकृति की सुन्दरता ही हमारी संस्कृति है । आप देखें की देवपूजान में हम जितनी भी सामग्री लेते हैं, वह सब प्राकृतिक होता है अर्थात परमात्मा कब प्रसन्न होते हैं, जब हमारी प्राकृति हरी-भरी सुगन्धित होती है। यदि हमें परमात्मा को खुश करना है, तो हमें प्राकृति को खुस करना होगा ।
शुकदेवजी ने जब ऐसा सुन्दर मंत्र सुना प्रसन्न हो गये फिर सोचा अच्छा है कोई सुन्दर है, पर हमें क्या ? सुन्दर है तो बना रहे, क्योंकि सुन्दर लोग अभिमानी भी तो होते हैं अपनी सुन्दरता के । अरे ऐसा भी तो होसकता है की हम उसके पास जाएं और वो हमसे बात भी न करे । ऐसे लोगों से दूर ही रहना अच्छा, यह सोचकर शुकदेवजी ने पुन: अपने नेत्र बंद किये के फिर दूसरा श्लोक टकराया ।
जय सीताराम जी
जवाब देंहटाएंकर्णयो:= सप्तमी द्विवचन है
जवाब देंहटाएंएवं
कर्णिकारं = एकवचन
प्रश्न - दो कानों में एक कनेर का पुष्प कैसे लगाया ?
दोनों कानों में एक एक
हटाएंदोनों कानों में एक एक
हटाएंतुन्हें अपने ज्ञान का घमंड हो गया है।भाव नही पहचान रहे हो इसीलिए जवाब मांग रहे हो।
हटाएंकभी एक कान में कनेर का फूल तो कभी दसरे कान में लगा लेते हैं। या हर कान में एक एक
हटाएंजिस दिशा में गाय चराने जाते उस दिशा के कान में कनेर पुष्प लगा लेते जिससे गोपियाँ उस पुष्प को देख कर समझ जाती की आज कन्हैया आज लाला इस दिशा में गैया चराने गए है
हटाएंराधे राधे
जवाब देंहटाएंबहुत अछा लगा किन्तु पुरे श्लोक होतातो और अछा होता
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