शुक्रवार, 15 मई 2015

प्रथम स्कन्ध​ 1 (पुराणों की रचना व नारद जी का पूर्व चरित्र​)13

द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युग पर्यये। 
जात​: पराशराद्योगी वासव्यां कलया हरे:॥

व्यासजी तो स्वयं परमात्मा की दिव्य कला से अवतरित हैं, वे तीनों कालों को अर्थात भूत, भविष्य, वर्तमान को अपनी दृश्टी से देखने वाले हैं । तीसरे युग द्वापर में महर्षी परासर जी द्वारा सत्यवती के गर्भ से जिनक जन्म हुआ । समाज के कल्याण के लिए व्यास जी ने एक वेद के चार भेद करदिये । उस एक वेद का अर्थ विद्वानो को भी समझपाना मुस्किल था इसलिए वेद को चार भेद में पूर्ण किया। 

ऋग्वेद, यजुर्वेद​, सामवेद और अथर्ववेद जिनके नाम है, फिर विचार किया कि वैद्यिक भाषा तो बहुत जटिल है, तब पंचमवेद महाभारत का निर्माण किया । महाभारत की रचना व्यासजी ने गणेश जी की सहायता से पूर्ण किया था। महाभारत में व्यास जी ने सारा ज्ञान भर दिया, पर विचार किया कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो देवताओं का बटवारा करने में निपुण हैं। 

इसलिए एक-एक कर उन्होंने १७ पुराणों की रचना और कर दिया। फिर भी व्यास जी को संतोष नहीं था, मन अशान्त था! बैठे-बैठे यह सोच रहे थे, कि मेरे मन में शान्ती क्यों नहीं है। उनके मन में यही बार​-बार चल रहा था कि मैं ने संसार के लिए समाज के लिए इतना सब कुछ किया फिर भी मन को शान्ति नहीं, तब व्यास जी के मन की बात जानकर हरिनाम संकीर्तन करते हुए नारद जी पधारे।

नारद जी को देख व्यासजी ने प्रणाम किया। नारदजी ने व्यासजी से उनकी चिन्ता का कारण पूछा तो व्यासजी बोले- हे देवर्षि! मैने तो अपने कर्तव्य का पूर्ण पालन किया, एक वेद के चार भेद प्रकट किया अपना सार ज्ञान मैने महाभारत में भर दिया और १७ अन्य पुराण भी लिख दिये फिर भी मुझे वह शान्ति नहीं जो मैं चाहता हूँ, ऐसा लगरहा है कि मुझसे कुछ छूट रहा है । 

नरद जी बोले- द्वेपायन जी!  अब तक आपने बहुत कुछ लिखा पर सब में आपने अपनी योग्यता का वर्णन अधिक किया है । अपनी योग्यता का प्रचार करने के लिए आपने उन पुराणों में कुछ ऐसे जटिल शब्द उपयोग किये हैं जो जन साधारण के समझ से परे है, उनसे लोग भ्रमित अधिक होंगे । आपने जो कहीं कहीं निवृत्ति परक वाक्य लिखे हैं, लोग उसे प्रवृत्ति परक बनाकर प्रमाण पत्र समझ लिया है । इसलिए आप असन्तुष्ट हो, आपने व्याकरण के जटिल शब्दों का प्रयोग अधिक किया, अबजो व्याकरण क जानकर है वह तो समझले की आप कहना क्या चाहते हैं । परन्तु जो व्याकरण नही जानता वह क्या करे । 

अब तक आपने जो लिखा उसमे कहीं, ज्ञान काण्ड तो कहीं कर्म काण्ड का वर्णन है । जब तक आप भगवान के सुन्दर चरित्रों का वर्णन नहीं करेंगे, तब तक आपको शान्ति नहीं मिलेगी । आप हृदय से जुड़कर भगवान श्रीहरि के अवतारों का वर्णन करो । अब लिखने वालों ने बहुत कुछ्ग लिखा लेकिन जो बाबा तुलसीदासजी के सरलतम भाषा में जितने लोगों ने आनंद पाया उसकी कोई सीमा नहीं । 
रामायण सत् कोटि अपारा
किसी भी ग्रन्थ को उतना महत्व नहीं मिला जितना तुलसी कृत "राम चरित मानस"  को मिला, क्योंकि इसमें सरल भाषा में भगवान के चरित्र​ को गाया है । नारद जी कहते हैं.. भगवान इससे प्रसन्न नहीं होते की गृन्थ में व्याकरण की छटा कैसी है, तुम्हारे साहित्य का बखान क्या है । लेकिन व्याकरण की अशुद्धी भी क्यों न हो पर यदि हृदय से भगवान को याद कर गाया है, तो भगवान प्रसन्न हो जाते हैं । क्योंकि फिर उस गृन्थ के द्वारा अनेक प्राणियों का कल्याण होता है।

व्यास जी- यह मेरा स्वयं का अनुभव है, मै सुनी बात नहीं करता ।

वो कैसे ? व्यासजी शीघ्रता से बोले!
हाँ तो सुनिए! आपको मैं अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाता हूँ ।

मैं पूर्वजन्म में एक दासी का पुत्र था, सूद्र कुल में हमारा जन्म हुआ था, हमारी माताजी संतो की सेवा करती थीं। 
एक दिन चातुर्मास के समय संत महात्माओं का आगमन हुआ तो हमारी माताजी उनकी सेवा में लग गई। सफाई करना, पत्तल फेकना आदि उनका काम था, मैं भी अपनी मां के साथ सेवा कार्य में लगा रहता वन से समिधा ले आता बाबा जी की लंगोटी साफ करता मुझे भी उस कार्य में आनंद आता । जब सभी कार्य से निवृत्त होते तो संतों का सतसंग सुनते, उनके भोजन करलेने पर उनके झुठे पत्तल का बचा भोजन प्रसाद रूपमें पाजाते । बस यही कारण था की मेरा मन भी पवित्र होगया । अब मेरा मन और कहीं नहीं केवल सतसंग और संत सेवा में लगने लगा।

मेरी माँ भी मुझे देख आचम्भित थी उसे लगने लगा था की मैं बाबा बन जाऊँगा सो एक दिन बोली- मैं तेरा व्याह कर दूँगी तो तू कैसे बाबा बनेगा । यह सुन मैं अशान्त हो गया । मुझे उदास देख एक बाबा जी ने पूछा- क्या हुआ बालक क्यूँ उदास है ?


मैंने अपनी व्यथा बाबाजी को बताई, तो बाबा जी ने मुझे एक मंन्त्र दिया बोले इस मंत्र का जप करो चिन्ता मत करो गोविन्द ही राह दिखाएँगे ।

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि। प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नम​: संकर्षणाय च​॥

इस वासुदेव गायत्रीमंत्र का जप मैं निरन्तर एकान्त में बैठ करने लगा। उसी रात माता जब गाय दोहन के कार्य में निकली तो उनका पैर एक सर्प पे पड़ा  तो सर्प ने दंस लिया जिस कारण हमारी माता जी पधार ग​ईं। हमने माताजी का संतो के निर्देशानुसार संस्कार किया, और उन्हीं संतो के संग राम रंग में रंग गये। 

कुछ समय बाद जब मेरी मृत्यु हुई तब हम ब्रह्मा जी के गोद में प्रकट हुए । भगवान नारायण को पुकारते हुए जब मैं क्षीर सागर पहुँचा तो मुझे भगवान नारायण का दर्शन हुआ, उन्होंने मुझे एक वीणा दी "देव दत्तांमिमां वीणां स्वर ब्रह्मविभूषिताम्"। 
और बोले अब तुम हमारा गुणगान करो तब से हम अपने प्रभू नारायण के गुणगान में मगन हो सभी दिशाओं में घूमते हैं, हमारा न तो कोई मित्र है और न कोई शत्रू, यह सब प्रभू भक्ती का प्रताप है । यह बात मैने इसलिए सुनाई कि भगवान अपने प्रेमियों पर शीघ्र प्रसन्न होते हैं । अभी तक आपने जो लिखा वह आपका ज्ञान था अब आप भगवान के चरित्रों का वर्णन करिये ।

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