बुधवार, 27 दिसंबर 2017

देवहूति कपिल संवाद 34

भगवान कपिल जी का दर्शन करने के लिए ब्रह्मा जी स्वयं आए और साथ में 10 मानस पुत्रों को भी लेकर आए। उनमें से 10वें पुत्र नारद जी हैं। वह तो ब्रह्मचारी बने घूम रहे थे। इसलिए ब्रह्मा जी ने अपने मरीचि आदि 9 पुत्रों का विवाह कर्दम जी की 9 कन्याओं से संपन्न कराया और नारदजी ऐसे ही रह गए।

सबसे बड़ी बेटी कला का विवाह मरीचि के साथ किया। महात्मा अत्रि का विवाह अनुसुइया से हुआ विशेष वशिष्ठ जी के साथ अरुंधति का विवाह हुआ। भृगु जी के साथ ख्याति का विवाह हुआ। इसी प्रकार से {पुलत्स्य-हविर्भू कृतु-क्रिया अथर्वा-शान्ति अंगिरा-श्राद्धा पुलह-गति} सब का विवाह करके ब्रह्माजी वापस ब्रह्मलोक चले गए।

अब कर्दम जी ने देवहूति से कहा- देखो देवी! बेटियों का विवाह भी हो गया और तुम्हें भगवान के रूप में पुत्र भी प्राप्त हो गया। अब तो हमें चलना चाहिए राम भजन को, हां महाराज! अब आप प्रेम से पधारिए। कर्दम जी तुरत सब माया जाल छोड़ कर वन की ओर चले गए।

अब विमान में केवल 2 सदस्य देवहूती और भगवान कपिल विराजमान है। अच्छा यह कर्दम का मतलब क्या है? यह देवहूति क्या है? हमें यह भी जानना चाहिए। कर का मतलब होता है इंद्रियां और दम का मतलब दमन करना  अर्थात जिसने अपने इंद्रियों का दमन कर दिया उसका नाम है कर्दम बोलो जय श्रीकृष्ण! और देवहूति एक साधना है जिसके माध्यम से हमें 9 भक्ति अर्थात नवधा भक्ति प्राप्त होती है। कर्दम जी की 9 कन्याएं नवधा भक्ति है और व्यक्ति जब नवो भक्ति को प्राप्त करता है। तब गोविंद की प्राप्ति कपिल भगवान के रूप में होती है।

माता देवहूति ने सोचा मेरे पति ने मुक्ति का मार्ग लिया और मुझे मुक्ति की राह बताने के लिए भगवान कपिल यहां आए हैं। संसार के संबंध से तो यह पुत्र है और मैं मां हूं। लेकिन हकीकत में तो यह परमात्मा है। अपनी मुक्ति का उपाय अब मैं उनसे ही पूछती हूं और मां देवहूती भगवान कपिल की शरण में गई। भगवान कपिल के शरण में जाकर वंदन करते हुए माँ देवहूति ने कहा-
    तं त्वा गताहं शरणं शरन्यं
        स्वभृत्य संसारतरो: कुठारम्।
             जिज्ञासयाहं प्रकृते: पुरुषस्य
                   नमामि सद्धर्म विदां वरिष्ठम्।।

हे प्रभु! अपने दास के संसार रूपी वृक्ष को काटने के लिए आप कुल्हाड़ी के समान है। हे कपिल! मैं आपके शरण में आई हूं। मेरे अज्ञान अंधकार को मिटाइए और ज्ञानरूपी प्रकाश करिए।


भगवान कपिल मां को माध्यम बनाकर के सांख्यशास्त्र का उपदेश देते हैं। (यहां पर हम शास्त्र की बातें करते हैं तो हमारे ऋषियों ने छः शास्त्र बताए हैं।)
1- न्यायशास्त्र,
2- वैशेषिकशास्त्र,
3- सांख्यशास्त्र,
4- योगशास्त्र,
5-मीमांसाशास्त्र और
6- वेदांतशास्त्र

माता देवहूति कहती हैं- प्रभु! एक बात बताओ; मैंने जितना भी सुख पाया, जितने सुख से जीवन यापन किया। संसार में शायद ही किसी ने इतना सुख पाया हो। राजकुमारी के रूप में मेरा जन्म हुआ। विवाह हुआ तो ऐसे महात्मा पुरुष से जिसने पूर्ण रूप से धर्म का पालन किया। कन्याओं का जन्म हुआ, उनका विवाह भी हुआ, जिस कन्यादान के लिए बड़े बड़े महापुरुष भी तरसा करते हैं। वह सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ। फिर पुत्र रूप में आप आए तो मैं संतान पक्ष से भी सुखी, धन वैभव से भी सुखी, हर प्रकार का सुख मैंने भोगा, पर फिर भी इस सुख से मेरी तृप्ति अभी तक क्यों नहीं हो पाई, ऐसा क्यों?

मैं जानना चाहती हूं! कि इतने सुख के बाद भी मेरा पेट क्यों नहीं भरा, मेरा मन अभी भी अतृप्त है। आखिर इस मन की तृप्ति होगी कब? तब भगवान कपिल बोले- मां! मन का पेट तो बहुत बड़ा है। कितना भी भरो यह भरने वाला नहीं जब मन से बड़ी कोई वस्तु इस को दी जाएगी तब यह तृप्त होगा। तो मन के पेट को केवल मदन मोहन ही भर सकते हैं। क्योंकि भगवान तो इससे भी बड़ा है और महान से भी महान है। मन का पेट कितना भी बड़ा हो पर मनमोहन से बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए जब मन में मनमोहन को बैठा दोगे तो मन का पेट भर जाएगा। विषयों से जो अपने मन को भरना चाहे वह अविवेकी है। क्योंकि विषय स्वयं अपूर्ण है। वह तुम्हें कहां से पूर्ण बनाएगा। तुम्हारे जीवन में परिपूर्णता तब ही आएगी, जब परिपूर्ण से जुड़ोगे। तो परिपूर्ण कौन है?
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते।।

परिपूर्ण तो केवल हमारा गोविंद है। बिना उनसे जुड़े जीवन में परिपूर्णता हो ही नहीं सकती। तुम कितना भी कमालो, कितना भी धन इकट्ठा करलो, पर रावण से ज्यादा तो नहीं कर सकते। जिसकी सारी नगरी ही सोने की थी। हर प्रकार के वैभव से युक्त है। ब्रह्मा जी जिसके घर नित्य वेद पाठ सुना कर जाते थे। ऐसा वैभव रावण का! यह वर्णन में आता है। तो जब वह संतुष्ट नहीं हुआ वह सुखी नहीं हो सका तो भला हम क्या है।

रावण से पूछा जाए कि भाई तुम्हारे जीवन में दुख ही क्या है। सोने की लंका तुम्हारी है, देवता तुम्हारी सेवा में लगे हैं। फिर भी वह भोले बाबा के दरबार में आकर कहता है।
           ।।कदा सुखी भवाम्यहम्।।
हे भोले नाथ! मैं सुखी कब होऊंगा। कहने का तात्पर्य है, कि संसार का सारा वैभव भी यदि तुम्हें मिल जाए। तो तुम्हें सुखी नहीं बना सकता। आपको सुख का अनुभव अवश्य होगा, कि हम सुखी हो गए। पर वह भ्रम है-

कोई तन दुखी कोई मन दुखी
कोई धन बिन रहत उदास।
थोड़े थोड़े सब दुखी बस
सुखी राम के दास।।

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