शनिवार, 19 अप्रैल 2014

श्रीकृष्णाय वयं नुम​:(महात्म्य​) 1

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादि हेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम: ।।1।।

"परम मंगलमय परात्पर अखिलेश्वर अकारण करुणा वरुणालय भक्तवान्क्षा कल्पतरु" तड्भित भिनिंदित पिताम्बर धारी बालकृष्ण प्रभू की वांग्मय प्रति मूर्ति श्रीमद्भागवत महा पुराण  सप्ताह ज्ञान यज्ञ के अन्तर गत प्रथम दिवस।

हम बड़े भाग्यशाली हैं जो आज हमें - के श्रवण का अवसर मिला, वैसे तो श्रीशुकदेव जी कहते हैं-

सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा।
यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत।भागवत कथा का श्रवण हमेशा करना चाहिए। इसके श्रवण मात्र से सारे पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं। गंगा स्नान का जो पुण्य फल है। काशी में निवास का जो पुण्य फल है।
।।कास्यान मरणान्मुक्ती।।

काशी वासियों को तो मरने के बाद मुक्ती मिलती है, परन्तु श्रीमद्भागवत महापुराण  जी के श्रवण  मात्र से जीवित ही मुक्ति मिल जाती है।

आप मुक्ति का मतलब मरना बिलकुल न समझें, की मुक्ति तो मरने के बाद मिलती है। नहीं! ऐसा किसी शास्त्र में नहीं लिखा। तो मुक्ती क्या है?..

बस आत्मज्ञान ही मुक्ति है। मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना ही मुक्ति है।

जैसे- कमल कीचड़ में रहकर, उसका एक बूंद भी अपने पत्ते पर टिकने नहीं देता। बस इसी प्रकार संसार में रहकर मन को उससे अलग रखना ही तो मोक्ष है।

मन ही तो मुक्ति और बन्धन का कारण है। अपने मन को विषयों से हटाना, दूर रखना ही मोक्ष प्राप्ती का साधन है। निर्विषयी मन को बनाना ही मोक्ष है और वह भागवत कथा के श्रवण से प्राप्त होता है। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सारे पाप जलकर भस्म हो जाते हैं।

परम कृपालु भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से हम श्रीकृष्ण कथा के गान-पान के लिए सद्भागी हुए है। बस श्रीकृष्ण कथा की इच्छा ही तो भगवत अनुकम्पा है। अब इच्छा तो हुई पर हमने प्रयत्न नहीं किया, अर्थात कथा मण्डप तक चल कर नहीं आए। तो फिर जो इच्छा रूपी प्रभु कृपा है, वह व्यर्थ हो जाता है।

इसलिए इच्छा के साथ प्रयत्न भी तो जरूरी है। चलो ठीक है हमारी इच्छा भी है और प्रयत्न भी, तो हम कथा मण्डप में आकर बैठ गये। परन्तु बैठे-बैठे हमारा मन जो हमारे साथ नहीं बैठता। मन बड़ा चञ्चल है, तो कभी-कभी कथा में नींद भी आ जाती है। उस समय भी हम कथा से बन्चित हो जाते है। इच्छा करें और इच्छा के पूर्ति का निरंतर प्रयास भी करें।

इच्छा यत्न दोनों हैं परन्तु भगवान की कृपा न हुई तो? जिस कार्य की इच्छा का यत्न किया वह सफल नहीं होगा। बिना ईश्वर कृपा के न तो वक्ता बोल सकता है और न ही श्रोता सुन सकता है। सत्संग पुरुषार्थ का फल नहीं परमात्मा की कृपा है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने स्पष्ट प्रमाण दिया।

        बिनु सतसंग बिवेक न होई,
        राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

बिना सत्संग के विवेक नहीं होता और राम जी के कृपा बिना सत्संग नहीं मिलता। यह भगवत अनुकम्पा से प्राप्त होता है।

मात मिले पुनि तात मिले
सुत भ्रात मिले जुबती सुखदाई।

राज मिले गज बाज मिले
सब साज मिले मनवांक्षित पाई।।

लोक मिले निधी लोक मिले
परलोक मिले बैकुण्ठहि जाई।

सुन्दर और मिले सब ही
पर संत समागम दुर्लभ भाई।।
तो इच्छा और इच्छा की पूर्ति के लिए प्रयास और उसके साथ प्रभु कृपा, तो इच्छा यत्न और अनुग्रह ये तीनों जब मिलते हैं, तब ही सत्संग मिलता है। श्रीमद्भागवत तो भागवती गंगा है।

इसलिए आइये हम भागवती गंगा में गोता लगाएँ। भागीरथी गंगा तो तन को पवित्र करती है। पर भागवती गंगा हमारे मन को पवित्र करती है। भागीरथी गंगा तो बाहर का स्नान है, परन्तु भागवती गंगा हमारे अन्दर का स्नान है।

घर की, धन की, परिवार की चिन्ता तो संसारी करता है। पर जो मन की चिन्ता करें वही बुद्धिमान है, वही संत है। तन को और धन को जो सम्हाले उसका नाम संसारी, और जो मन को सम्हाले वह संत! वही ज्ञानी। संत अपने तन की चिन्ता नहीं करता।

वह मन की चिन्ता करता है कि मेरा मन अभी मैला है। हमारे तो कपड़े मैले हो जाते हैं तो हम चिन्ता करने लग जाते है। परन्तु यदि संत चिन्ता करता है तो मन का, कि मेरा मन अभी मैला है, और मुझे मेरे मालिक के पास जाना है। तब यदि मेरा मन गंदा हुआ तो मैं मेरे मालिक को क्या मुख दिखलाऊंगा। और मन की शुद्धि मात्र भागवत श्रवण से होगी। मन की शुद्धि के लिए श्रीमद्भागवत जैसा कोई साधन नहीं।

ए तस्मातपरम किंचित मन: शुद्धै न विद्यते।
मन की शुद्धि के लिए श्रीमद्भागवत जैसा दूसरा कोई साधन नहीं। भगवान ने यह नहीं कहा, कि जो पंडित हैं वही मुझे प्राप्त करेंगे। जो योगी हैं, विद्वान हैं, सिद्ध हैं बस वही मुझे प्राप्त करेंगे, नहीं ऐसा नहीं है।

भगवान राम जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

मन निर्मल है जिसका वह मुझे प्राप्त करता है, और कपट छल छिद्र मुझे पसन्द नहीं। इसलिए यदि हमें परमात्मा को प्राप्त करना है, मन को निर्मल, शुद्ध, पवित्र करना होगा। अच्छा एक बात और किसी ने कहा है -

मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
मन ही मिलाता राम सो मन ही करत फजीत।।
मन से ही बन्धन है मन से ही मुक्ति। ताला होता है न और उसकी चाभी, तो मानो ताला तन है और चाभी मन। अब यदि चाभी को अर्थात मन को सुख, राग, भोग की ओर घुमाया तो बन्धन है। और परमात्मा की ओर घुमाया तो मुक्ति। तो मनुष्य का मन ही है जो बन्धन और मुक्ति का कारण है!  पर बुद्धिजीवी वह है जो बन्धन नहीं मुक्ति को प्राप्त करें।

हमारे ये जो ग्रन्थ हैै ये, इतिहास नहीं, मानव दर्पण हैं!

क्यूँ सुनते हैं हम कथा? हमें यह समझना चाहिये! घर से निकले सत्संग में जा पहुंचे, पर क्यूँ? हम क्यों बैठे हैं? यह कथा तो मानव का दर्पण है।

देखो हमारा भूत काल निकल गया, और भविष्य का तो हमें पता भी नहीं कि कब क्या होगा और हमारा वर्तमान चल रहा है। दर्पण हमारा भूत नहीं वर्तमान दर्शाता है, दर्पण तो हमारी सच्चाई है! दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। चाहे हम सुन्दर हों या नहीं, हम काले हैं गोरे हैं जिस स्थिति में भी हैं, दर्पण हमें वैसा ही दर्शाता है। इसलिए रामायण और भागवत ही नहीं, यह तो मानव का दर्पण भी है।

हम दर्पण में मुख देखने को बहुत उत्सुक रहते हैं। उसी प्रकार कथा सुनने को भी हम उत्सुक हों, दर्पण की तरह कथा के द्वारा हमें पता चलता है, कि हम राम हैं या रावण, और यदि रावण हैं तो राम बनने का प्रयास करें।

सात दिन की कथा और सात दिन का जीवन, इसलिए भागवत दर्पण में देखें। अपने आपको और फिर जहां भी दाग दिखाई दे, दोष दिखे, तो उस दाग को, उस दोष को साफ करने का प्रयास करना चाहिए तभी हम बुद्धिमान हैं। तो जैसे-जैसे हम कथा गंगा में बहते जाएंगे। हमें पता चलता जाएगा, परतें खुलती जाएगी। समझ में आ जाएगा की हम बुरे है या अच्छे। हम राम हैं या रावण?...

रामायण हमें जीना सिखाती है, और भागवत मरना सिखाती है! अभी तक हमने सब कुछ सीखा पर जीना नहीं सीखा, हमें अपने जीवन को संतुलित करना है अपने जीवन से बुराइयों को दूर करना है।

समाज में कुछ लोग हैं जो बहुत कुछ करते हैं, और कुछ हैं जो कुछ नहीं करते हैं, पर ये दोनों बातें सही नहीं। देखो कुछ को तो अपने परिवार के पेट भरने से ही फुरसत नहीं, अर्थात कर्म तो बहुत करते हैं पर धर्म का पता नहीं, और कुछ हैं जो सप्ताह में पांच दिन तो व्रत रहते है।

महर्षि पातंञ्जली कहते हैं की अधिक खाने वाला योगी नहीं बनता। तो अधिक भूखा रहने वाला भी योगी नहीं बन सकता, अधिक सोने बाला योगी नहीं तो अधिक जागने वाला भी योगी नहीं बन सकता।

जीने का अर्थ है। जीवन संतुलित बनाना, संतुलन से योग सिद्ध होता है, और संतुलन के लिए अपने जीवन से अतियों को मिटाना। हमने पेट भरना तो सीख लिया और पेट भरने के लिए कमाना भी सीख लिया, पर अफसोस हमने अभी जीना नहीं सीखा।

गधे को किसी ने कहा कि ऐ तु गधा बन, वह गधा है और गधे जैसा जी रहा है उसे कहने की कोई अवश्यकता नहीं। तो रामायण हमें जीना सिखाती है और भागवत से हम मरना सीखें, मृत्यु जीवन की एक परीक्षा है।

जीवन की अच्छी पढाई भगवान का भजन ऐसा करो की प्रथम श्रेणी (First division) में पास हों, अर्थात सीधा वैकुण्ठ को प्राप्त करें। हमने अच्छी पढा़ई की तो परीक्षा के समय पर सब याद होता है। यदि हमने अच्छा भजन किया तो मरते समय भगवान का नाम हमारे मुख में हो जिससे हमारी मुक्ति हो जाए। बाबा तुलसी दास जी कहते हैं।
जनम जनम मुनि जतन कराहिं,
अन्त राम कहि आवत नाहिं।
तो आइये हम मरना सीखें।

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