अहो बतांहो महदज्ञ ते कृतम्।
अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृत:।।
ब्राह्मण का तेज जाने बिना मैंने यह अपराध किया। हे प्रभु! इस अपराध का दंड मुझे अवश्य देना। इस प्रकार के पश्चाताप की ज्वाला में राजा परीक्षित जल रहे थे। तब तक गोमुख नाम का शिष्य दौड़ा-दौड़ा आ गया, प्रणाम महाराज! कहिए ऋषि कुमार कैसे आना हुआ?
ब्राह्मण बालक बोला- महाराज! आप हमारे गुरुदेव के कंठ में मरा हुआ सर्प डाल आए थे, और उनके बालक ने आपको श्राप दे दिया, सप्तम दिवस में आपकी तक्षक सर्प के काटने से मृत्यु हो जाएगी। सुनते ही महाराज परीक्षित बड़े प्रसन्न हुए। वाह! अभी-अभी मैं यही सोच रहा था, कि प्रभु इस पाप का प्रायश्चित कैसे करूं, कहां जाऊं। प्रभु ने घर बैठे ही दंड भेज दिया।
ऋषि कुमार गोमुख आश्चर्य में पड़े, महाराज! इसमें खुश होने वाली बात ही क्या है। परीक्षित कहते हैं- महाराज! संसार में भला ऐसा कौन होगा, जो अमर हो? मरना तो सबको है, परंतु किसी को एक क्षण का भी भरोसा नहीं, कि कब किसकी मौत होगी। परंतु मुझे मेरी मृत्यु का पता तो चल गया मैं सातवें दिन मरूंगा इसका मतलब 6 दिन के लिए तो मैं अमर हूं। क्यों ना यह 6 दिन की अमरता का लाभ उठा लूँ।
बस महाराज! उसी क्षण एक पल का भी विलंब किए बिना सारा साम्राज्य अपने पुत्र जनमेजय को सौंपकर, साधु वेश धारण करके गंगा के तट पर पहुंचे, जिसे सुकताल कहते हैं। वहां पर जाकर के विशाल बरगद की शीतल छाया में बैठ गए।
महाराज! इस बात की चर्चा संपूर्ण भू-मंडल में हो गई कि सातवें दिन तक्षक द्वारा मारे जाने का परीक्षित को श्राप लग गया। जहां जिसको जैसे पता चला दौड़ पड़े, महाराज परीक्षित को आश्वासन देने और देखते-देखते परीक्षित के सामने हजारों महात्माओं की मंडली एकत्रित हो गई। संतों के बीच परीक्षित ने गंगा के किनारे अपने को देखा तो प्रसन्न हो गया। महात्माओं! मैं तो कहता हूं उस बालक ने मुझे श्राप नहीं आशीर्वाद दिया है, कि मेरी मृत्यु गंगा के किनारे इतने संतों के बीच होगी। इतने सौभाग्य से मौत किसकी होती है।
परंतु मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूं कि मरना तो सबको है, फिर उस मरने वाले को क्या करना चाहिए?.. इस प्रश्न पर ऋषि लोग विचार कर ही रहे थे कि वहां पर शुकदेव जी के रूप में मानो स्वयं साक्षात भगवान नारायण प्रगट हो गए हो।
।।बोलो शुकदेव महाराज की जय।।
तत्रा भवद्भगवान व्यास पुत्रो,
यदृच्छया गामट मानोअनपेक्षः।
अलक्ष्य लिंगो निजलाभतुष्टो,
वृतश्च बालैरवधूत वेषः।।
सूत जी कहते हैं ऋषियों! मानो अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए स्वयं भगवान ही वहां शुकदेव जी के रूप में प्रकट हो गए है। सूत जी कहते हैं- अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से रक्षा के लिए भगवान ने स्वयं उत्तरा के गर्भ में गए, और परीक्षित की रक्षा की। आज उस विप्र बालक के श्राप से बचाने के लिए भगवान व्यास नंदन शुकदेव जी के रूप में प्रकट हुए। अद्भुत झांकी है।
दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं।
प्रलम्बवाहुं स्वमरोत्तमाभम।।
दिगंबर वेश, लंबी भुजाएं, मुख पर घुंघराले बाल, नाभि भंवर के समान गहरी और ऊदर बड़ा सुंदर त्रिवेणी से युक्त था। छोटे-छोटे बालक तो उन्हें पागल समझते, हल्ला-शोर मचाते। उनके साथ पीछे-पीछे दौड़ते ताली बजाते। पर परमात्मा को कोई फर्क नहीं पड़ता। सुंदर स्त्रियां इनके रूप सौंदर्य पर मुग्ध होकर अनुसरण करती, बच्चे हँस रहे हैं, पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह तो अवधूतों का स्वभाव ही है “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” उनके लिए सब ब्रह्म है।
वे तो अपने ह्रदय में राधा-कृष्ण की बांकी-झांकी में निमग्न रहते हैं। दृष्टि अंदर से जब बाहर जाए, तब उन्हें स्त्री, पुरुष, बच्चे नजर आए। महाराज! राधा-कृष्ण की छवि अपने हृदय में विराजमान कर वे सदा निमग्न रहते हैं। आयु कितनी बताई सूत जीने “द्वी अष्टी वर्ष:” अर्थात 16 वर्ष की आयु, परंतु 16 शब्द का प्रयोग नहीं किया। “अष्टी वर्षं” आठ दूनी कहकर उम्र बताई। क्योंकि दिखने में वे 8 वर्ष के लग रहे हैं।
16 वर्ष के बच्चे में तो विकार आ जाते हैं, और हमारे शुकदेव जी हैं सर्वदा निर्विकार इसलिए कहते हैं, 16 वर्ष की आयु अवश्य है, पर दीखते 8 वर्ष के अबोध बालक की तरह हैं। ऐसे परम अवधूत हैं हमारे शुकदेव जी महाराज!
उनके आते ही वहां जितने विद्वान संत थे, सब के सब खड़े हो गए। 16 वर्ष के शुकाचार्य जी को देख करके, हजारों-हजार साल की उम्र वाले महात्मा खड़े हो गए, और की तो छोड़ो शुकदेव जी महाराज के पूर्वज पाराशर जी, व्यास जी, वशिष्ठ मुनि जी सब खड़े हो गए। क्योंकि ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ वह होता है, जिसकी साधना दिव्य होती है और सुखदेव जी तो परमहंस हैं, इसलिए सब संतो ने खड़े होकर उनका स्वागत किया।
यह देख परीक्षित तो गदगद हो गए साष्टांग प्रणाम किया महाराज सुखदेव जी को सुंदर आसन दिया, विराजिए महाराज! अहो भाग्य, मेरे तो भाग्य का उदय हुआ है। उस बालक ने साफ नहीं आशीर्वाद दिया है। जिस कारण आप जैसे परमहंस आचार्य मुझे दर्शन देने आए अब यहां पर परीक्षित ने बड़ी सुंदर स्तुति गाई। व्यास पीठ का नियम ही है ऐसा, कि “भगवान शुकदेव जी” जब व्यास मंच पर आते हैं, तो उनका पूजन होता है।
मूल भागवत का जो सत्संग है वह यहां से प्रारंभ होता है। अभी तक तो भूमिका चल रही थी। भागवत जी का प्रवचन कब प्रारंभ होता है जब शुकदेव जी व्यास गद्दी पर बैठ जाते हैं। यजमान जी शुकदेव जी की पूजा करेते हैं। आप सब वंदन करिए।
भजन
हरि नाम सुनाने वाले, हरि की कथा सुनाने वाले
तुमको लाखों प्रणाम।
अहो अद्य वयं ब्रह्मन, सत्सेव्या: क्षत्रवन्धवः।
कृपयातिथिरूपेण, भावद्भिस्तीर्थका: कृता:।।
मेरा बहुत बड़ा सद्भाग्य है। मैं किन शब्दों में आपके महिमा का बखान करूं। आज तो मेरा कुल पवित्र हो गया, आज मेरा जीवन धन्य हो गया। भगवन! जो आप यहां पधारें।
येषां संस्मरणात पुंसां
सद्य: शुद्धयन्ति वै गृहा:।
किं पुनर्दर्शनस्पर्श
पादशौचासनादिभि:।।
राजर्षि परीक्षित कहते हैं- भगवन! आप जैसे परमहंस का तो केवल नाम स्मरण कर लिया जाए, तो भी सभी ग्रह शुद्ध हो जाते हैं। फिर चरण स्पर्श और दर्शन करने का अवसर मिले उससे बड़ा सद्भाग्य और क्या हो सकता है।
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