शनिवार, 23 दिसंबर 2017

परीक्षित को श्रंगी ऋषि का श्राप 24

इतना कहकर राजा परीक्षित अपने महल की ओर प्रस्थान करते हैं। अब यहां पर एक शंका उठती है! क्या? वह ये कि स्वर्ण में कलयुग का निवास है। पर स्वर्ण को तो बड़ा पवित्र माना जाता है। दूसरी बात जैसे गीता के 10वे अध्याय में विभूति योग का वर्णन करते हुए भगवान ने बताया कि, वृक्षों में मैं पीपल हूँ, जल स्रोतों में समुद्र हूँ, गायों में मैं ही कामधेनु हूँ उसी प्रकार धातुओं में मै ही स्वर्ण हूँ।

इसी प्रकार श्रीमद्भागवतमहापुराण के एकादश स्कंध के 16वें अध्याय में भी विभूति योग का वर्णन आता है। भगवान ने उद्धव जी से कहा- उद्धव- धातुओं में स्वर्ण मेरा ही रूप है, अर्थात सोना ही मेरा स्वरूप है। अब विभूति योग में स्वर्ण का को भगवान ने अपना स्वरूप बताया है, स्वर्ण में अपना निवास बताया है।

तो यहां सोने में कलियुग का निवास माने, कि भगवान का निवास माने, शंका तो होती है। तब संतों ने समाधान निकाला बोले- जो दो नंबर का सोना है उसमें कलयुग का वास है, और जो एक नंबर का सोना है उसमें भगवान विष्णु का वास है। एक नंबर का मतलब जो मेहनत की कमाई है उसमें परमात्मा का आशीर्वाद होता है, उनका वास होता है साक्षात लक्ष्मी विराजती हैं।

सूत जी कहते हैं- ऋषियों! राजा परीक्षित एक दिन राजकोष में गए, वहां रखी थी जरासंध की मुकुट उसे उन्होंने अपने सर पर धारण किया, और आखेट के लिए वन में वन की ओर चल पड़े शिकार की खोज में।

आज कोई शिकार दिखा नहीं, राजा परीक्षित शिकार की खोज में जंगल में भटक रहे थे भूख-प्यास से पीड़ित हो राजा एक कुटिया में जा पहुंचे। जहां पर एक महात्मा तपस्या कर रहे थे उस तपस्वी को राजा ने आवाज दिया जल की याचना की, परंतु जब उन तपस्वी से कोई उत्तर नहीं मिला, तब राजा क्रोधित हो वहां से चल पड़े। तभी मार्ग में एक मरा हुआ सर्प दिखा। राजा उस सर्प को देखकर अपने तस्कर से वाण निकाल कर उस के अग्र भाग से उस सर्प को उठाकर तपस्वी के गले में लपेट दिया। इस प्रकार राजा कलि के प्रभाव से पाप कर्म कर बैठे। इस प्रकार राजा परीक्षित अपने महल की ओर चल पड़े।

इधर समीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी जो नदी में स्नान कर रहे थे। एक शिष्य आकर आश्रम में घटित सारी बात बता दी। की राजा परीक्षित आश्रम आए थे और आपके पिता के गले में मरा हुआ सर्प लपेट कर चले गए।

यह सुन बालक श्रंगी ने अपने अंजलि में जलिया और राजा परीक्षित का ध्यान करते हुए श्राप दिया।

इति लंघित मर्यादं तक्षक: सप्तमेहनि।
दंक्ष्यति स्म कुलांगारं चोदितो मे ततद्रुहम्।।
अरे कुलांगार तूने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया। मेरे पिता के गले में मरा हुआ सर्प डाल करके आर्य मर्यादा का उल्लंघन किया। जा मैं तुझे श्राप देता हूं कि आज से सप्तम दिवस पूरे होने पर तुझे तक्षक नाग डसेगा।

इति लंघित मर्यादं तक्षक: सप्तमेहनि।
इस प्रकार वाणी रूप वज्र का प्रयोग कर दिया, फिर भी क्रोध शांत नहीं हुआ। शमीक ऋषि के पुत्र श्रंगी अपने पिता के सम्मुख आए और पिता जी के गले में पड़ा हुआ मृत सर्प देख कर रोने लगे। तभी महात्मा की समाधि टूटी बच्चे को रोता हुआ देख बोले- अरे पुत्र तू रो क्यों रहा है? अन्य बालकों ने सारा वृतांत बताया कि, राजा परीक्षित यहां आए थे। शायद उन्हें प्यास लगी थी, उन्होंने आपको जगाया परंतु आपने ध्यान नहीं दिया। जिस कारण से उस राजा ने आपके गले पर मृत सर्प डाल दिया।

इस बात को हमने श्रृंगी को बताई श्रृंगी ने उस राजा को श्राप दे दिया, कि सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से राजा की मृत्यु हो जाएगी। श्राप की बात सुनते ही महात्मा बोले- अरे दुष्ट बालक तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया। इतने छोटे से अपराध पर तू ने इतना बड़ा श्राप दे दिया। अरे राजा परीक्षित तो बड़े महात्मा स्वभाव के हैं। इस भारत को राजा परीक्षित जैसा कोई दूसरा राजा नहीं मिल सकता। अरे जाओ कोई राजा को यह खबर तो कर दो कोई सूचना तो दे दो, कि उन्हें श्राप लगा है उन्होंने तो सुना भी नहीं होगा। गोमुख नाम का एक ऋषि बालक दौड़ा। उधर महाराज परीक्षित घर पहुंचे भोजन किया मुकुट उतारा और विश्राम करने लगे। तो विचार आया अरे राम-राम आज हमें हो क्या गया। हमने तो उन महात्मा के गले में मरा हुआ सर्प डालकर बहुत बड़ा पाप कर दिया। जो नीच कर्म मैंने आज तक नहीं किया यह मुझसे कैसे हुआ? जो हाथ संतों की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे आज उन्हीं हाथों से संत का अपराध कैसे हो गया?

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