इस दूसरे श्लोक में भगवान की कृपालुता का वर्णन है। व्यासजी कहते हैं की भगवान कितने दयालू हैं।.. देखो किसी को थोड़ा सा पद-प्रतिष्ठा, धन मिल जाय तो वह वौरा जाता है। परन्तु जिनके रोम-रोम में ब्रह्माण्ड निवास करता है उन अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के अधिपती, अधिनायक होने पर भी वे कितने सरल, मृदुल हैं। किसी पर यदि एक भी गुण नजर आजाए, तो उनके सारे अवगुणों पर वह परदा डाल देता है।
नजाने कौन से गुण पर, दयानिधि रीझ जाते हैं॥
अरे पूतना में क्या गुण था..?? कुछ भी तो नहीं!!
राक्षस कुल में पैदा हुई, भगवान को मारने के लिए अपने स्तनों में जहर लगाकर आई, पर गोविन्द ने इन सारे अवगुणों को छिपाकर जबरजस्ती एक नया गुण निकाल लिया। क्योंकि बुरी भली तुम जैसी भी सही पर व्यौहार तो तुमने माता यशोदा जैसा किया है। बस यही मातृ गुण देखकर के कन्हैया ने पूतना को मां यशोदा के धाम को भेज दिया। ऐसे महान करुणा सागर गोविन्द की शरण में जाना भला कौन नहीं चाहेगा।
शुकदेव जी ने जब सुना की उनका रूप ही सुन्दर नहीं, उसका स्वभाव भी अत्यंन्त सुन्दर है "बस अब तो" समाधी में मन ही नहीं लगता। दौड़े-दौड़े उन शिष्यों के पास आये, बोले भईया जरा दो चार और सुनादो। शिष्यों ने कहा हमें तो गुरु जी ने इतना ही सिखाया है। सो हमने सुना दिया इससे ज्यादा हमें नहीं आता। पर यदि आपको और सुनना हो तो आप चलो हमारे गुरू जी के पास, उनके पास तो ऐसे 18000 श्लोक हैं। फिर जितना चाहो उतना सुन लेना।
भगवान के इन गुणों से उनका मन एकदम आकृष्ट होगया। शुकाचार्य तुरत अपने पिता व्यास जी के पास पहुंचे। चरणों में प्रणाम किया। व्यास जी यह देख गदगद हो गये कि उनका पुत्र लौटाया। शुकदेव जी ने कहा पिता आप मुझे भागवत जी का अध्ययन करायें।
व्यास जी ने कहा- पुत्र मैने यह तुम्हारे लिए ही रचा है ताकी तुम इस अमृत रस को संसारियों तक पहुचा सको, और इस प्रकार श्रीवेदव्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को भागवत अमृत का पान कराया।
सूत जी कहते है- ऋषियो! भगवान का नाम ही कृष्ण है, अर्थात जो अपने भक्तों के मन दूर से आकर्शित करले।
भगवान के इन गुणों से उनका मन एकदम आकृष्ट होगया। शुकाचार्य तुरत अपने पिता व्यास जी के पास पहुंचे। चरणों में प्रणाम किया। व्यास जी यह देख गदगद हो गये कि उनका पुत्र लौटाया। शुकदेव जी ने कहा पिता आप मुझे भागवत जी का अध्ययन करायें।
व्यास जी ने कहा- पुत्र मैने यह तुम्हारे लिए ही रचा है ताकी तुम इस अमृत रस को संसारियों तक पहुचा सको, और इस प्रकार श्रीवेदव्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को भागवत अमृत का पान कराया।
सूत जी कहते है- ऋषियो! भगवान का नाम ही कृष्ण है, अर्थात जो अपने भक्तों के मन दूर से आकर्शित करले।
"कर्षयति भक्तानाम मनः इति कृष्णः"
शुकदेव जी के मन को इतना आकृष्ट किया श्रीकृष्ण के गुणों ने की समाधी में मन नहीं लगता।
सूत जी कहते हैं- ऋषियों! इसी अवसर का लाभ लेकर मैने भी भागवत जी का रसपान किया, जो आज मैं आपको श्रवण करा रहा हूं।
॥बोलो जय श्रीकृष्ण॥
कृपया श्लोक पूरा कर और श्लोक डालें तथा दूसरा श्लोक आवश्यक है इसके बिना कथा भाव नहीं बन रहा
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