हमारा जीवन कब तक है..? आज तक, कल तक या १०० वर्षों तक। मृत्यु तो एक कड़वा सत्य है लेकिन काल के मुख का ग्रास होते हुए भी हमें उस काल के मुख से बचाने वाला मात्र एक ही साधन है। और वह है श्रीमद्भागवत कथा, बस इसका श्रवन, मनन, पठन करो। आप जानते हो संसार में सबसे बड़े दो दुख कौन से हैं?
हाँ! संसार के सबसे बड़े दो दुख हैं, एक है जन्म और दूसरा है मृत्यु। जन्म का दु:ख कैसा है, वह हम भूल गए। मां के गर्भ में हमने जो दु:ख भोगा था, उसकी विस्मृति हो गई। क्यूंकि उस समय हम अंजान थे, नासमझ थे। मां के गर्भ में बहुत दु:ख पाता है बच्चा, जन्म देते समय मां को भी उतना ही कष्ट होता है। वह मां को पता है, तो जन्म का दु:ख हम भूल गये। दूसरा है मृत्यू का दु:ख, जिसका हमें पता नहीं। क्यूंकी उस दु:ख के अनुभव के लिए हमें मरना होगा, तभी तो उसके कष्ट का अनुभव होगा।
तो जन्म का दु:ख हम भूल गये, मृत्यु का हमें पता नहीं, तो इसे हम समझें कैसे?.. तो शास्त्रों की संतो की बातों को हम मानें, उनका स्वीकार्य करें वे सत्य कहते हैं। कठिन तपस्या करके संतों ने जो अनुभव किया वही बात समाज के सामने रखी। जन्म के दु:ख की स्मृति होगई पर अभी मृत्यू का स्वाद चखना बाकी है।
श्रीमद्भागवत के श्रवण से भगवान के चरणों में प्रीती हो जाए, मृत्यू तो आनी ही है, लेकिन जो मृत्यू का दु:ख है उससे जरूर बच पाएंगे। मन की शुद्धी के लिए भागवत जैसा दूसरा कोई साधन नहीं, मन से ही बन्धन है और मन से ही मुक्ती!..
एक ने पूंछा- महराज! पित्रों की मुक्ती के लिए भागवतजी का ही परायण क्यूं ? हम रामायणजी की कथा सुनें तो नहीं चलेगा, या शिव कथा सुनें तो मुक्ती नहीं हो सकती। सिर्फ भागवतजी ही क्यों ?...
क्योंकि श्रीमद्भागवतजी के जैसा मन की शुद्धी करने वाला दूसरा कोई साधन नहीं, और यदि मन शुद्ध हो गया तो समझो मोक्ष तुम्हारे साथ है। जब अधिकार होता है तभी हमें कथा सुनने का लाभ मिलता है। अनाधिकारी को कथा नही मिलती। जब शुकाचार्य जी गंगातट पे राजा परीक्षित भागवत कथा का श्रवण कराने लगे, तभी वहाँ अपना कार्य साधने में निपुण इन्द्रादि देवता हाथ में अमृत कलश लेकर कथा मंण्डप पर आपहुंचे, और शुकदेव जी से बोले- आप यह अमृत राजा को पिलादें, इससे राजा की मृत्यु नहीं होगी, और यह भागवत कथामृत का पान हमें करादें।
यह सुनकर शुकाचार्य जी बोले-
क्व सुधा क्व कथा लोके
क्व काच: क्व मणिर्महान।
ब्रम्हरातो विचार्यैवं
तदा देवाञ्जहास ह ॥
कहां काच और कहां मणि, तुम लोग तो बड़े मूर्ख हो, जो काच की तुलना मणि से करते हो। यह स्वर्गामृत तो पतन की ओर ढकेलने वाला है, और कथामृत मोक्ष को, परमात्मा को प्रदान करने वाला है। फिर इसका निर्णय तो स्वयं राजा को करना होगा की उसे क्या चाहिये, कथामृत या स्वर्ग का अमृत। शुकाचार्य जी ने जब राजा से पूछा तो राजा परीक्षित ने साफ कह दिया, की गुरूदेव मुझे यह पतन की ओर ले जाने बाला अमृत नहीं, मुझे तो आप तो आप कथामृत का पान कराईये।
अभक्तास्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतं ।श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा ॥
इस प्रकार शुकदेव जी देवताओं को भक्ती से शून्य कथा का अनाधिकारी जानकर कथामृत का दान नहीं किया। इस प्रकार श्रीमद्भागवतजी की कथा- "सुराणामपि दुर्लभा" देवताओं को भी दुर्लभ है।
श्रीमद्भागवतजी के श्रवण से राजा परीक्षित की मुक्ती देखकर ब्रम्हाजी को भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने तो सत्लोक में तराजू बांधकर सब साधनों को तौला, पर अन्य सभी साधन तौल में हल्के पड़ गए, अपने महत्व से भागवत ही भारी रहा। इसलिए इस कलयुग में पठन, श्रवण, मनन से वैकुण्ठ फलदायकम वैकुण्ठ दिलाने वाला है यह श्रीमद्भागवत की कथा।
शौनकजी, हाथ जोड़कर बोले- महराज! अगर भागवत जी की कथा इतनी बहुमूल्य है, तो अब यह बताईए, की यह साप्ताहिक परंपरा कैसे चली। यह परम्परा कब से और कहां से प्रारम्भ हुआ।
सूतजी बोले! सबसे पहले सप्ताह कथा नारदजी को सनकादियों ने सुनाया। वैसे भागवत कथा तो नारद जी ने अपने पिता ब्रम्हाजी से सुनी पर, सप्ताह कथा नारद जी ने सनकादियों से सुनी ।
शौनक जी बोले- वाह महराज! ये कैसे हो सकता है ?
लोक विग्रह मुक्तस्य
नारदस्यास्थिरस्य च।
विधिश्रवे कुत: प्रीति:
संयोग: कुत्र तै: सह॥
सनकादि कैसे हैं ?
"लोक विग्रह मुक्तस्य" अर्थात सांसारिक प्रपञ्च से मुक्त हैं, सनकादि सदा पांच वर्ष के बनके ही रहते हैं, और नारदजी ? "अस्थिरस्य च नारद" जो एक जगह पर स्थिर नहीं वही अस्थिर। दक्ष का शाप है स्थिर रह नहीं सकते। भगवान ने बताया अकार का "अ" अक्षर मैं हूँ, तो "अ" का मतलब कृष्ण। तो श्रीकृष्ण में है जो स्थिर, वही तो है अस्थिर।
अच्छा तो अब इनका मिलन कैसे हुआ ? सात दिन तक बैठ के नारद जी ने कथा क्यों सुनी ? यह सब विस्तार से कहिए।
अब सूत जी बोले- एक बार की बात है, बद्री विशालक्षेत्र में, बद्रीनारायण जी की ओर उत्तराखण्ड में सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार ये चारो विचरण कर रहे थे। इन चारों की यह विशेषता है की ये पांच वर्ष के बालक बनके साथ में विचरण करते थे । वहां उन्होंने नारद जी को देखा। नारद जी उदास थे तो उनकी उदासी
का कारण पूंछा ।
कथं ब्रह्मन्दीनमुख: कुतश्र्चिन्तातुरो भवान ।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्र्चागमनं तव ॥
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं