अब दूसरे श्लोक में, श्रीकृष्ण कथा को गाने बाले श्रीशुकाचार्य जी की वंदना है!
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेत कृत्यं द्वैपायनो विरह कातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु: तं सर्वभूतह्र्दयं मुनिमानतोस्मि॥
"यं प्रव्रजन्तं अनुपेतं अपेत कृत्यं" कैसे है शुकाचार्य जी?
प्रव्रजन्तं! सरिता बहती भली और साधू चलता भला। सरिता का आकर्शण उसके बहने में है और साधू का आकर्षण चलते रहने में है।
जो समाज से और समाज के वस्तुओं से जुड़ा है, वह साधू नहीं संसारी है, जिसने इनका त्याग किया वही सच्चा संत है! शुकाचार्यजी प्रव्रजन्त हैं।
प्रव्रजन्तं अनुपेतं जिन्होंने जन्म तो लिया, पर रुके नहीं, बिना जात कर्म संस्कार के, बिना यज्ञोपवीत संस्कार के, भजना नन्दी बन गए। ऐसे परम पुनीत, परमहंश, परमभागवत को हमारा वंदन, प्रणाम, नमस्कार है। अब कथा के लिए हमें व्यास जी ले चलते हैं नैमिषारण्य! तो आईये अब आप हम भी चले पवित्र भूमि नैमिषारण्य की ओर।
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम् ।कथामृत रसास्वाद कुशल: शौनकोऽब्रवीत ॥
कथा चल रही है नैमिषारण्य में, नैमिषारण्य केवल एक भूमि का नाम नहीं है। नैमिषारण्य तो श्रोता वक्ता की भूमिका का नाम है। निमेष कहते है क्षण के तीसरे हिस्से को, अर्थात तीन निमेष एक क्षण बनता है। तो निमेष मात्र में ब्रम्हा जी के द्वारा मनोमय चक्र इस अरण्य में आके गिरा। अरण्य कहते है, वन को। अत: उस जंगल को, वन को हम नैमिषारण्य कहते हैं, जो आज का हमारा एक तीर्थ स्थल है।
जहां पर सौनकादी अठ्ठासी हजार ऋषियों ने एक हजार वर्ष का ज्ञान सत्र चलाया, ज्ञान यज्ञ का आरम्भ किया।
यह मनोमय चक्र क्या है ?..
हमारा जो मन है न, वही तो मनोमय चक्र है। जिसकी रफ़्तार (गती) कैसी है? निमेष मात्र की, निमेष मात्र में हम बैठे-बैठे चाहे जहाँ घूम आते हैं। अर्थात- हमारा मन ही शान्त नहीं है। भटक रहा है, तो शान्त कैसे हो? ऋषियों ने पूछा ब्रम्हाजी से। हंसारूढ़ ब्रम्हा का दूसरा अर्थ है, विवेकाधिष्ठित बुद्धी। आप अपनी विवेकाधिष्ठित बुद्धी से पूछो, की हम कहां बैठे हैं? तो जबाव मिलेगा जहां तुम्हारा मनष्चक्र शान्त होता है। जब तक हमारा मनष्चक्र शान्त नहीं होगा, हम कथा नहीं सुन सकते।
कथा में तन तो बैठा है, पर मन भटक रहा है, अर्थात हम तो बैठे हैं, पर कथा हम पर नहीं बैठेगी। तो जहां आपका मन शान्त हो जाए, जब कथा समझ में आने लगे तो समझो वही नैमिषारण्य है। नैमिषारण्य में बड़ी शान्ती है, पूरा वातावरण शान्त और मधुर है चारो ओर हरियाली ही हरियाली ऐसा शान्त वातावरण।
कथा में तन तो बैठा है, पर मन भटक रहा है, अर्थात हम तो बैठे हैं, पर कथा हम पर नहीं बैठेगी। तो जहां आपका मन शान्त हो जाए, जब कथा समझ में आने लगे तो समझो वही नैमिषारण्य है। नैमिषारण्य में बड़ी शान्ती है, पूरा वातावरण शान्त और मधुर है चारो ओर हरियाली ही हरियाली ऐसा शान्त वातावरण।
तो नैमिषारण्य श्रोता और वक्ता के शान्त मन को भी कहते हैं, और मन को शान्त करने के लिए मंगलाचरण किया जाता है।मंगलाचरण से हमारा मन शान्त होता है।
यहां सूतजी कथा वक्ता हैं, वे महामती हैं। जो जटिल से जटिल शब्दों को सरल करने में कुशल हैं, कथा करने में कुसलता तो चाहिए ही पर कथा श्रवण करने में भी कुशलता चाहिए। नित्य श्रवण और श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद नितध्यासन बहुत जरूरी है। नहीं तो होता क्या है कथा में सब समझ में आ रहा है, खोपड़ी हिलती है महराज जी सही कह रहे हैं, पर जब कथा में बिराम हुआ की फिर वही दिनचर्या में लगजाते हैं। कथा सुनलेने मात्र से काम नहीं चलने वाला।
हमारे साथ ऐसा भी होता है की हम कथा में बैठकर लगातार ३-४ घण्टे तक कथा तो सुनते हैं लेकिन उसमें एक आध घण्टा हमारे व्यर्थ के चिन्तन में और फिर नींद के झोंको में समाप्त हो जाते हैं। तो फिर कथा कहां चल रही है समझ में नहीं आता। तो यहां आकर व्यर्थ की चिन्ता न किया करें। पूर्ण श्रद्धा से प्रेम से और भाव से श्रवण करें, तभी आप स्वयं को जान सकेंगे।
यदि आपको कथा वक्ता या गुरू के प्रति श्रद्धा नहीं, तो उनके द्वारा बताया गया ज्ञान, ज्ञान नहीं आपके लिए मात्र एक जानकारी होगी। जानकारी में और ज्ञान में अन्तर है, आप पूर्ण श्रद्धा से समर्पित हों यह आवश्यक है। गुरू का अर्थ ही अज्ञान रूप अंधकार से प्रकाश की ओर लेजाना है।
शौनकजी कहते हैं-
अज्ञानध्वान्तविध्वंस
हे सूतजी- आप हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करें। कथा तो हमने बहुत सुनी, पर आप हमें कथा का सार बताईये। भक्ती, ज्ञान, वैराज्ञ से दूर हमारा विवेक, आगे कैसे बढे़, वह बताईये।
भक्ती, ज्ञान, वैराग्य से दूर हमारा विवेक कैसे आगे बढे़ वह बताईये ?
वैष्णव लोग माया मोह का त्याग कैसे करते हैं ?
हे सूत जी! इस कलिकाल में हम वैष्णवों का कल्याण कैसे हो ?
हमें श्रीकृष्णरूप परमात्म तत्व की प्राप्ती का साधन बताईये?..
चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु ये तीनों मन चाहा सुख देने बाले हैं, परन्तु ये तीनों मोक्ष नहीं दे सकते हैं। मोक्ष तो हमें सद्गुरू ही प्रदान कर सकते हैं।
तब सूत जी बोले- शौनकजी! अवश्य मैं आप संतों को श्रीकृष्ण प्राप्ती का साधन बताऊंगा। क्योंकि आपके ह्रदय में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इतनी इतनी श्रद्धा, इतना प्रेम जो है। इसलिए आप लोग ध्यान से सुनों-
तब सूत जी बोले- शौनकजी! अवश्य मैं आप संतों को श्रीकृष्ण प्राप्ती का साधन बताऊंगा। क्योंकि आपके ह्रदय में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इतनी इतनी श्रद्धा, इतना प्रेम जो है। इसलिए आप लोग ध्यान से सुनों-
कालव्यालमुखाग्रासत्रास निर्णास हेतवे ।श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम ॥
काल कहते हैं सर्प को और व्याल कहते हैं मेढ़क को, मेढ़क सर्प के मुख में है और सर्प का मुख खुला है। तो जब तक सर्प का मुख खुला है तभी तक मेढ़क जीवित है। सर्प का मुख बंद मेढ़क का जीवन खत्म। इसी प्रकार हम भी काल के मुख में बैठे हुए मेढ़क ही तो हैं, हम कब काल के गाल के ग्रास हो जाए किसी को पता नहीं।
हमे शुकाचार्य के जन्म की कथा चाहिये
जवाब देंहटाएंShuk dev janam katha aur unko gyan prapty
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