सोमवार, 23 जून 2014

देहेऽस्थिमांशरुधिरे (महात्म्य​) 8


धन हीन कहे धनवान सुखी 
धनवान कहे सुख राजा को भारी।
राजा कहे महाराजा सुखी 
महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी।।
इन्द्र कहें चतुरानन को सुख 
ब्रह्मा कहें सुख विष्णु को भारी।।
तुलसीदास विचार कहे 
हरिभजन बिना सब लोग दुखारी॥

पिताजी! हमें तो भजन के बिना जितने भी प्राणी हैं सब दुखारी प्रतीत होते हैं। कोई किसी कारण​ तो कोई किसी कारण और वह उसी दु:ख में अपना सुख ढूढता रहता है। मनुष्य के जीवन में तीन ऋण होते हैं और जब तक वह अपने इन तीन ऋणों से मुक्त नहीं होता, तब​ तक वह सुखी नहीं। जो इन ऋणों से मुक्त है वह इस आवा गमन से भी मुक्त है। 
ऋण क्या है?..

बनिये के दुकान की उधारी देदी हो ग​ई ऋण मुक्ती, किसी से उधार लिया है वह दे दिया हो ग​ई मुक्ती नहीं, ये सब मुक्ती नहीं; ऋण तो तीन हैं, कौन से. १) देव ऋण २) पित्र ऋण ३) ऋषी ऋण!

भगवान ने हमें मानव बनाया और इतना ही नहीं, अच्छा कुल, परिवार दिया, पर हमने उसके लिए क्या किया?.. कुछ नहीं। और कर ही क्या सकते हैं?  कुछ कर नहीं सकते तो कभी उसकी याद ही कर लिया करो हम उस परमात्मा को याद तो कर ही सकते हैं न​। उसकी कथा सुनें उसे याद करें बस इतने में ही देव ऋण से मुक्ती मिल जाएगी। हमें सूर्यनारायण​ समय से आकर हमें प्रकाश देते हैं उसके साथ​-साथ कितनी सारी उर्जा भी देते हैं पर वो हमसे कुछ मांगते नहीं। पेड़-पौधों से हमें शीतल प्राण वायु मिलती है और हम उन्हीं का विनाश करके अपना आशियाना बनाते हैं। वरुणदेव हमें वर्षा कर जल देते हैं और हम उस जल को संग्रहित न कर बर्बाद करते रहते हैं।


दूसरा ऋण है, पित्र ऋण! हम जिस कुल में जन्म लेते हैं जिस परिवार से हम जुड़ते हैं हमारा कर्तव्य है की हम अपने माता-पिता और वृद्ध जनों की सेवा करें। परन्तु करते क्या हैं, एक स्त्री के प्रेम में अपने माता पिता को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। दूसरी बात यह की हमने जिस धर्म जाति में जन्म लिया है उसी के कर्तव्यों का पालन हमें करना चहिए। आज की परिस्थियाँ ऐसी हैं कि विवाह के सम्बन्ध में आज की पीढी अपने समाज से हटकर विवाह को उत्सुक रहते हैं जिसका परिणाम उनके साथ-साथ उनसे जुड़े लोगों को भी भुगतनी पड़ती है। 


तीसरा ऋण है, ऋषी ऋण! हमारे ऋषी मुनियों ने हमारे जीवन को सरल बनाने के लिए कितने सारे प्रायास किये हैं, जिस कारण हम आज अपने कल्याण का प्रयास करते हैं। कठोर तप करके उन ऋषियों ने परमात्मा को जाना और हमें उस ब्रम्ह की सत्ता का दर्शन कराया। इसके लिए हम नित्य यज्ञ करें, "यज्ञ" का मतलब नित्य होम ,नित्य दान​, यही ऋषी ऋण की मुक्ती है। 


गोकर्ण बोले! पिताजी एक बात कहूँ! मानव को अभिमान है की मुझसे ज्यादा सुन्दर, मुझसे ज्यादा ज्ञानीकोई है ही नहीं, मुझसे ज्यादा विवेकी, धनी कोई है ही नहीं। पर वह यह नहीं जानता क्या-?..


देहेऽस्थिमांश्रुधिरेऽभिमतिं त्यजत्वं
जाया सुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च​।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभड़्ग निष्ठं वैराग्यराग रसिको भव भक्ति निष्ठ​:॥
हमारा यह शरीर तो हड्डी, मांस, रुधिर आदि जैसी चीजों से बना है इसलिए सबसे पहले हमें शरीर के प्रति जो मोह, देहाभिमान है, उस देहाभिमान को हम त्यागें। मै शरीर हूँ, ऐसा मानना भी छोड़े। इस शरीर को चाहे पण्डित जी कहो, चाहे ज्ञानी जी लेकिन शरीर की तीन गति होती है। अगर जलाया तो राख​; फैका तो गीदड़​, कौए, कुत्ते खयेंगे और दफनाया तो कीड़े चुन लेंगे। चौथी कोई गति नहीं, न तो यह शरीर आपका है और न दूसरे शरीर वाले आपके है। आप एकान्त होकर बैठिए फिर सोचिये, मैं क्या हूँ?.. 

आप एक प्रश्न चिन्ह हो?. जब तक हम अपने आपको नहीं जानते तब तक मोह के गांठ में बंधे रहेंगे। आप जरा सोचो, क्या मैं आंख हूँ, तो यह आंख फूट क्यूं जाती है?.. क​ई आंख के अंधे हैं। तो क्या मैं हाथ हूँ?.. हाथ पैर के बिना भी लोग जीते हैं। इसका मतलब मैं आंख, कान, हाथ, पैर​, नहीं हूँ तो फिर मैं क्या हूँ?..


माता पिता यदि मेरे हैं, तो एक दिन हमें छोड़ कहां चले जाते हैं, ये बेटा बेटी यदी मेरे हैं तो जन्म से पहले कहां थे?.. जन्म के पहले मैं कहां था मरने के बाद कहां जाऊगा?.. बहुत से प्रश्न हैं इन्हे अपने आपसे पूछो। मैं क्या हूँ?.. मैं यहां क्यूं आया?.. मैं कौन हूँ?..मैं किसका हूँ?.. यह संसार क्या है?.. यदि यह मेरा है तो क्या मेरे साथ जायेगा?.. 



सच में हमने जिसे अपना माना वह मात्र एक भ्रम है। समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए सुन्दर भवन बनानाधर्म है। बीबी बच्चों से प्रेम करना उनका पालन पोषण करना धर्म है। लेकिन पत्नी, बच्चे, मकान दुकान से मोह रखना ही बन्धन का कारण है। मै इनके बिना जीवित नहीं रह सकता, बस यही अधर्म है। आपका सच्चा सम्बन्ध मात्र हमारे कन्हैया से है। क्योंकि आप आत्मा हो और वे परमात्मा; दुकान, मकान​, बीबी, बच्चे तो इस शरीर के हैं। क्योंकि इन्हे भी यहीं रहना है और इस शरीर को भी। लेकिन आपके शरीर से जब आत्मा मुक्त हो जाती है, वही आपका बेटा जिससे आप इतना प्रेम रखते हो, उठाकर लेजायेगा और चिता में रख के जला देगा।

क्यूँ ?.. शरीर तो वही है फिर जलाता क्यूँ है?.. 

वो इसलिए की अब उस पुत्र को आपके मृत शरीर से कोई लाभ नहीं है और अगर मोह बस रखता भी है तो वही शरीर बदबू देने लगता है। इससे यह तो सिद्ध है कि हम शरीर नहीं और ये शरीर बाले भी हमारे नहीं। इस धराधाम में जितने भी हमारे रिस्ते नाते हैंसब लालची है,   सब स्वार्थी हैं।

सबको आपसे कुछ न कुछ चाहिए। पुते को धन का लालच, पत्नी को सहारे, प्रेम की इक्षा, पड़ोसी को भी आपसे क​ई प्रकार के मतलब होते हैं, सब मतलबी हैं। सबको आपसे कुछ न कुछ चाहिए। एक बाप को चार बेटा, बाप के धन को चारों ने आपस में बांट लिया पर पिता को कौन बांटे, एक ने कहा पिता जी शास्त्रों में लिखा है की तीसरी अवस्था के बाद घर में नहीं रहना चाहिए। इसलिए हमने आपका टिकट बन बादिया, आप​ वृन्दाबन चले जाओ यही धर्म है।


देखो शास्त्र का बहाना कैसे अपने पिता का धन लेकर उसे वन जाने को मजबूर करते हैं। जिस मां ने तुम्हे जन्म देने के लिए सुन्दरता का त्याग किया, तुमने सुन्दर वीबी के लिए अपनी मां का त्याग कर दिया। धिक्कार​ है ऐसी संतान को, पर यही हकीकत है पिता जी  कोई आपको नहीं चाहता चाहते हैं तो केवल आपके धन को।  आत्मदेव बोले- तो वह कौन है जो हमें चाहता है?


पिताजी ! वही गोविन्द जो कहते हैं भटक मत, बस आजा मेरी शरण में तुझे मुक्त कर दूंगा। आत्मा का सच्चा सम्बन्धी तो मात्र परमात्मा है। ये बात जिसने अपने जीवन में उतार ली, वह घर में रहकर भी जंगल की भांती भजन कर सकता है, और कौन जानता है की वन में जाकर भजन होगा ही? हमारे जड़भरत  जी ने भी घर छोड़कर वन में भजन किया, सफल हुये क्या? पर जनक जी ने घर को ही वन बनाया, वन का मतलब है जहां किसी से कोई मतलब नहीं मतलब है तो मात्र परमात्मा से।


पिता जी! आप कहते है वन जाने को, तो क्या वन जाने से भगवान मिल जायेंगे? यदि वन जाने से भगवान मिलते तो शेर और गीदड़ का जन्म ही वन में होता है। फिर तो हमसे पहले उन्हें ही भगवान का दर्शन हो जाता, जब आपके मन की खटपट नही मिटेगी तो वन जाने का क्या फायदा, मन ही तो बन्धन और मुक्ती का कारण है। मन यदी विषयों में, बेटा,पोता में है तो बन्धन, और मन परमात्मा में लगा तो मुक्ती।


इस प्रकार पूरी रात बैठा कर गोकर्ण जी ने  अपने पिता आत्मदेव को उपदेश दिया। 


4 टिप्‍पणियां:

  1. धन हीन कहे धनवान सुखी धनवान कहे सुख राजा को भारी
    राजा कहे महाराजा सुखी महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी।
    इन्द्र कहें चतुरानन को सुख ब्रह्मा कहें सुख विष्णु को....

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  2. जय श्री महाकाल 🌹
    बहुत सुंदर लेख

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