गुरुवार, 10 जुलाई 2014

धर्मं भजस्व सततं त्यज (महात्म्य​) 9

धर्मं भजस्व सततं त्यज लोक धर्मान​, सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम​।
अन्यस्य दोषगुणचिन्त​न माशुमुक्त्वा, सेवाकथा रसमहो नितरां पिवत्व
पिताजी! इस मृत्युलोक में भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। आप निरन्तर प्रभू भजन में लगे रहो क्योंकि अब आपने पुत्र सुख भी देखलिया, इसलिए अब स्त्री,घर और धन का मोह त्याग वैराग्य राग रसिक बन कर मात्र भगवान का भजन करो।

साधु जनों की सेवा करो सतसंग सुनों। भोगों की लालसा को पास में भटकने भी मत दें। एक बात और किसी दूसरे में उनके दोषों को न देखो, क्यूंकी अक्सर हम अपने आप को देखते नहीं, और दूसरों की हंसी उड़ाने में अपना समय नष्ट करते हैं। ऐसा करना भी अपराध है,ऐसी सभी चीजों का त्याग कर केवल भगवत भजन में तल्लीन हो जाओ और भगवान की कथा रस का पान करो। इस तरह पुत्र की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने वन की यात्रा की, उस समय उनकी आयु (षष्टि वर्ष​:) साठ वर्ष की थी। पूरी तरह से दृृढ  संकल्पित​हो भगवान का पूजन अर्चन करते, संतों का दर्शन करते कथा सुनते, और नित्य भागवत जी के दशवें स्कन्ध​का नित्य पाठ करते, इस तरह से आत्मदेव ने भागवत जी के दशवें स्कन्ध नित्य पाठ कर गोविन्द धाम को प्राप्त किया। हम इसी प्रकार भजन कर गोविन्द की प्राप्ती करें। अब इधर धुन्धकारी ने मां से पैसा धन मांगा, अब मां के पास है नहीं तो दे कहां से। तो मां को भी घर से बाहर निकाल दिया मां ने कुएं में कूद के आत्म हत्या कर ली।

आत्मदेव ने किया सत्संग तो मुक्त हो गया पर धुंधली ने तो सत्संग किया नहीं इसलिए उसको आत्मज्ञान नहीं तो अपनी जान देदी। ये आत्महत्या करता कौन है ?..  जो मूर्ख, जो स्वयं को जानता नहीं, चलो ठीक है किसी के द्वारा बहुत सताया गया है। बहुत दु:खी है उसे कोई समझाने वाला भी नहीं और न उसके पास समझने बाली बुद्धी है, तो नतीजा, आत्म हत्या। पर आत्मा तो कभी मरती नहीं, मरता तो शरीर है और मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। 


जब तक हमें यह न पता हो, तब तक हम अपने आप को जान पाते नहीं। ठीक है जल गये कटगये मर गये, तो क्या इस तरह से मरने के बाद उसे शान्ति मिलती है ? नहीं वह आत्मा भटकती है, मरने के बाद उसके शरीर का क्या किया जा रहा है, वह सब देखती है, तड़पती है। मरने से पहले ज इतना कष्ट था मरने के बाद तो उससे भी कहीं जादा अशान्ती कष्ट पीड़ा होती है, और लोग मरने को ही अपनी मुक्ती समझते हैं। अब इधर पिता जी तो जंगल चले गये, माता जी कुएं में पधार गयीं और भ्राता जी तीर्थ यात्रा में निकल गये।


घर में अब कोई नहीं है जो धुन्धकारी को समझाये या रोके टोके। पूर्ण स्वतंत्रता मिलग​ई, यह पूर्ण स्वतंत्रता बहुत खतरनाक होती है, और स्वतंत्र होने के साथ साथ यदी वह अज्ञानी है फिर तो कहना क्या। धुन्धकारी ने कभी पढा़ई लिखाई की नहीं बस चोर डाकुओं का संग उसे प्राप्त है। अब वैस्याओं के घर भी उसका आना जाना शुरू हो गया, घर में अब कोई नहीं तो पांच वैश्याओं को घर ही ले आया।


ये पांच वैश्याएं कौन हैं? पहली है काम, दूसरी क्रोध​, तीसरी लोभ​, चौथी मद्, और पांचवी मोह। हमारा घर क्या है? यह देह भी तो एक घर है, और इस घर में जब तक परमात्मा का वास नहीं, तो मानों यह​ 
घर भी खाली है और खाली घर में वैश्याओं का आना स्वाभाविक है। इन्हीं वैश्याओं के कारण मनुष्य अकारण​ ही मारा जाता है। धुन्धकारी उन वैश्याओं को अपने घर ले आया पर उनको खिलाता क्या ? बाप दादाओं का धन तो वह पहले ही जुएं में खेल गया, तो चोरी करने लगा। एक दिन उसने सोचा रोज रोज चोरी करने से अच्छा की कोई बड़ा खजाना ही लूट लिया जाय। तो वहां के राजा के महल में ही उसने चोरी करने चला गया। 

बहुत सारा धन चुरा कर रात में दो बजे घर आया, तो उन औरतों ने स्वागत किया उसका, भोजन कराया, वह​थका था तो सो गया। वैश्याओं को जब पता चला कि इसने तो राजा के यहां चोरी की है तो वे घबराईं, पर धन​देख सोचा की इस धन से तो हमारा पूरा जीवन ऐशोआराम से कट जायेगा। पर यदी राजा को पता चला तो इसके साथ हमारी भी गरदन काट दी जायेगी।


तो क्या किया जाय कि हमारी जान भी बचे और यह धन भी हमारा होजाय​, इस विषय में पूरी रात वैठ हर उन्होंने विचार किया और निर्णय लिया कि धन तो आपस में बांट लें और इसे मारदें। बस फिर क्या था, धन को आपस में बांट लिया और धुंधकारी को उसी के पलंग से बांध दिया और सोते हुये धुन्धकारी को क​ई डण्डे मारे पर वह मरा नहीं तब एक ने क्या किया, चूल्हे से लाई अंगारे और उसके मुख में डाल दिया। इस तरह धुन्धकारी भी तड़प तड़प कर मर गया। मारने के बाद उसके शरीर को घर के आंगन में ही दवा दिया।


3 टिप्‍पणियां:

  1. पिताजी! इस मृत्युलोक में भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। आप निरन्तर प्रभू भजन में लगे रहो क्योंकि अब आपने पुत्र सुख भी देखलिया, इसलिए अब स्त्री,घर और धन का मोह त्याग वैराग्य राग रसिक बन कर मात्र भगवान का भजन करो।

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