बुधवार, 23 जुलाई 2014

अहं भ्राता त्वदीयोऽस्मि..10

अब इधर कुछ समय के बाद, जब गोकर्ण जी को धुन्धकारी के मृत्यु का समाचार मिला तो गया जी में जाके उसके नाम का श्राद्ध कराया। फिर चातुर्मास में एक दिन अपने गांव पहुंचे, उस समय रात्रि हो चुकी थी। सोचा इतनी रात्री में सभी गावं बाले सो गये होंगे, उन्हे परेशान न किया जाये। गांव वाले गोकर्ण जी को बहुत मानते थे, उनसे सत्संग करते, सेवा करते। गोकर्ण जी ने सोचा हमारे पिता जी का घर है वहीं चलते हैं। अपने जर जर हुये घर को देखा और बाद में वहीं आंगन साफ कर भूमि में ही सो गये। 

पर रात्री में कुछ आवाज सुन कर उनकी नींद खुली तो देखा कि वहां पर कोई प्रेतात्मा तरह तरह के रूप रखता वृक्षों की डालियों को हिलाता, कभी वह भैसा बनता तो कभी अग्नि बनता। इस तरह से वह स्वयं के होने का आभाश कराने लगा। वह कुछ बोलना चाह रहा था पर बोलने का सामर्थ्य उसमें नहीं था। यह सब गोकर्ण जी देख रहे थे और फिर बिना डरे अपने कमण्डल से हाथ में जल लिया और अभिमंत्रित करके उस प्रेतात्मा पर फेंका, और बोले तुम कौन हो? और क्या चाहते हो ?

तब उस प्रेतात्मा को अभिमंत्रित जल से बोलने की शक्ती मिली और वह बोला-
अहं भ्राता त्वदीयोऽस्मि धुन्धकारीति नामत​:।
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रम्हत्वं नासितं मया ॥
मैं तुम्हारा भाई हूं और मेरा नाम धुंधकारी है, मैने अपने जीवन में बहुत पाप कर्म किये हैं। अपने ही पाप कर्मों से मैंने अपना ब्रह्मणत्व नष्ट कर दिया। अब मैंने जाना की मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ है, लेकिन मैंने ब्राह्मण​ होकर भी मैं अपने आपको जान नहीं पाया। 

मेरे कुकर्मों की तो कोई गिनती ही नहीं है, मैंने जिन्हें अपना प्रिय समझा, उन्हीं दुष्टा औरतों ने मुझे मार दिया और​ जो मेरे हितैसी थे जिन्होंने मुझ अधम को पाला उनकी मृत्यु का कारण मैं बना। यही कारण है की आज मैं इस प्रेत योनि में भटक रहा हूं।

मेरे भाई! तुम तो दया के समुद्र हो मुझ पर दया करो, जैसे भी हो सके मुझे इस प्रेत योनि से मुक्त कराओं।गोकर्ण जी ने कहा! पर मुझे जब तुम्हारी मृत्यु का पता चला तो मैं गया जी में श्राद्ध किया फिर भी तुम इस प्रेत​ योनि से मुक्त नहीं हुये। ऐसा क्यों, अब तुम ही बताओ मैं क्या करूं? 

धुन्धकारी बोला- भाई जी! मैं तो इतना बड़ा पापी हूं की हजारों गया श्राद्ध करदो फिर भी मेरी मुक्ती सम्भव नहीं। मैं तो मूर्ख हूं आप ही कोई उपाय करो।
गोकर्ण जी फिर क​ई विद्वानों के पास गये, योगियों से पूछा, ज्जानियों से पूछा, यहाँ तक की ब्रम्हवादि जो हैं उनसे पूछा तो सब ने शास्त्रों को उलट​-पलट कर देखा पर कोई उपाय न सूझा। तब एक दिन गोकर्ण जी प्रात​: स्नान कर भगवान सूर्यनारायण को अर्घ देकर नमस्कार कर रहे थे तभी यह प्रश्न गोकर्ण जी ने भगवान सूर्य से करने लगे।तब भगवान सूर्य ने बताया- 
श्रीमद्भागवतान्मुक्ति: सप्ताहं वाचनं कुरू। 
इति सूर्यवच​: सर्वैधर्मरूपं तु विश्रुतम्॥
गोकर्णजी! आप चिन्ता मत करो, श्रीमद्भागवत जी की सप्ताह कथा करो इसी से मुक्ती हो सकती है और दूसरा कोई उपाय नहीं। 

तब गोकर्णजी ने स्वयं भगवत कथा की तैयारी करी और स्वयं वक्ता भी बने। तब क​ई गांव, नगर, शहर और देशों में भागवत कथा के आयोजन की खबर पहुँची तो लोग कथा श्रवण के लिए पहुँचे। गोकर्णजी ने धुन्धकारी को बुलाया और प्रेतात्मा धुन्धकारी को पास में ही खड़े सात गाँठ बाले बाँस के पोल में स्थान दिया, गोकर्णजी ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य यजमान बनाया, और प्रथम स्कन्ध से ही कथा का आरम्भ किया ।
इस प्रकार सायंकाल में जब कथा को विराम दिया तो वहाँ पर एक आश्चर्य हुआ, क्या ??  कि वह जो सत गांठ वाला बांस जो था उसका एक गांठ फट गया। 

यहां ध्यान देना- गांठ का मतलब बन्धन! तो उसका जो बन्धन था वह ढीला होगया। फिर दूसरे दिन की कथा में दूसरा गांठ, तीसरे दिन की कथा में तीसरा गांठ, इस तरह से सात दिन पर्यन्त कथा के श्रवण से धुन्धकारी के सातों गांठ फट गये और कथा विराम कर जब गोकर्ण जी ने जयकारा लगाया-  

गोकर्ण जी ने जयकारा लगाया, उसी समय उस बांस के पोल से धुंधकारी सशरीर प्रगट हो गया। बड़ा सुन्दर स्वरूप है, वह प्रेत योनि से मुक्त होकर दिव्य रूप को प्राप्त हुआ। श्यामल शरीर, पीताम्बर धारण किए है तुलसी की माला गले में, सर पे मुकुट धारण किए हुए है। धुंधकारी ने अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम किया और बोला- भाईजी यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत कथा धन्य है। इसका सप्ताह पारायण भी धन्य है। जिस प्रकार अग्नि सुखी, गीली, छोटी, मोटी सभी प्रकार की लकड़ियों को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार प्रकार यह सप्ताह श्रवण भी मन, कर्म, वचन द्वारा किये गए नए पुराने छोटे बड़े सभी पापों को जलाकर भस्म कर देता है। जिस समय धुंधकारी यहाँ कह रहा था उसी समय आकाश से एक विमान उतरा, विमान केवल धुंधकारी के लिए था। यह देख गोकर्ण जी ने विमान में विराजमान पार्षदों से बोले- यहाँ पर सभी ने एक साथ कथा श्रवण किया पर विमान एक आया यह कैसा भेद है। तब पार्षदों ने कहा।
श्रवणस्य विभेदेन फलभेदोत्र संस्थितः।

महाराज! इस फल भेद का एक ही मुख्य कारण है, वह है कथा श्रवण में भेद। कथा सभी ने सुनी पर मनन किसी ने नहीं किया। इसी कारण से एक साथ कथा सुनते हुए भी भेद हो गया। धुंधकारी ने सात दिन लगातार निराहार होकर कथा सुनी और मनन भी किया। अपने तित्त में बैठाकर खूब चिंतन भी किया। 

इसलिए आप दोबारा प्रेम से मन लगाकर कथा श्रवण करो और उसका चिंतन करो तभी काम बनेगा। भागवत जी कथा वही स्थान, वही वक्ता पर श्रोता तो अलग अलग हैं, तो भेद अलग तो होगा ही। महाराज मुक्ति का मतलब मरना बिलकुल नहीं है। मुक्ति का मतलब है आत्म बोध, आत्मज्ञान। अपनी आत्मा का ज्ञान जिसे जीवित ही होगया समझो वह मुक्त हो गया और जिसे जीवित समय में आत्मा का ज्ञान नहीं उसे- 
पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे सयनं।

नारद जी बोले फिर क्या हुआ महाराज। सनक जी बोले- फिर गोकर्ण जी ने दोबारा श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ का आयोजन श्रावण मास में किया। सभी ने प्रेम से कथा श्रवण की और सभी वैकुंठ लोक को प्राप्त किया।

नारद जी बोले- महाराज! कथा श्रवण का नियम क्या है?
सनकादि कहते हैं- सबसे पहले जब कथा श्रवण की इच्छा हो तो किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से मुहूर्त निकाले वैसे तो आषाढ़ और पूस का महीना वर्जित है। बाकी जिस दिन भी कथा का शुभारंभ हो वही दिन शुभ है। पर शुभ मुहूर्त में कथा श्रवण का फल अधिक मिलता है। कथा के लिए उत्तम स्थान चुने, बैठने की उत्तम व्यवस्था हो, देवताओं का आह्वाहन पूजन वैदिक हो। दिव्य सोभा यात्रा निकालें, मंदिरों का दर्शन करें। व्यास जी के अलावा पांच ब्राह्मण वरण करें। जो विघ्नहर्ता भगवान श्रीगणेश मन्त्र का, द्वादशाक्षर मन्त्र का, गीता जी का, विष्णुसहस्त्रनाम का भागवत जी का मूल पाठ करें। कथा में नींद न आये उसके लिए कथा के बीच में नाम संकीर्तन, संगीतमय भजन करें। 
जय शब्दम् नमः शब्दम्, शंख शब्दम् च कारयेत।
नारद जी ने फिर पूछा- महाराज भोजन का नियम क्या है?

कहते हैं- वैसे तो कथा व्रत धारण करके सुनना चाहिए, अर्थात निराहार। नारदजी बोले तब तो हो गई कथा। सनकादि बोले- तो फिर ऐसा करें, एक समय थोड़ा फलाहार लेलें। न चले तो दोनों समय फलाहार लेलें, और भी न चले तो चारो समय फूल आहार लेलें पर कथा अवश्य सुनें। कथा सुनने वाले को काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहना चाहिए।
कामं क्रोधं मदम् मानं मत्सरं लोभमेव च।
दम्भम् मोहं तथा द्वेषम् दूरयेच्च कथा व्रती।।
और
वेद वैष्णव विप्राणां गुरु गोव्रतिनां तथा।
स्त्रिराजमहातां निन्दां वर्जयेद्यः कथाव्रती।।

वेद, पुराण, वैष्णव, विप्र, गुरु, गोसेवक, राजा और स्त्री की निन्दा न करें। 
सत्यं शौचं दयां मौनम आर्जवं विनयं तथा।
उदार मानसं तद्वदेवं कुर्यात्कथा व्रती।।

कथा सुनने वालों को सत्य का, पवित्रता का और दया भाव धारण करना चाहिए। अधिक से अधिक मौन व्रत धारण करें। सरलता, विनय और उदारता का वर्ताव करना चाहिए। श्रद्धा भाव से कथा सुनें, और सुने हुए कथा का मनन करें। अंत में हवन और ब्राह्मण भोज कराएं दक्षिणा दें।

सनकादि कहते हैं- नारदजी! इस प्रकार कथा श्रवण से मोक्षद्वार खुल जाते हैं। यह सुन नारद जी गदगद हो गए। के तभी वहां पर भागवत व्रती श्रीशुक देव जी पधारे सभी ने स्वागत किया। शुकाचार्य जी बोले- 
श्री मद्भागवतं पुराण तिलकं यद्वैष्णवानां धनं,
यस्मिन पारमहंष्यमेवममलं ज्ञानं परं गीयते।
यत्र ज्ञानविराग भक्ति सहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
तच्छ्रण्वन प्रपठन विचारण परो भक्त्या विमुच्येन्नरः।।

यह भागवत कथा तो पुराणों का तिलक है, जैसे वर्णों में ब्राह्मण तिलक है, और यह हम वैष्णवों का धन है। परम हंशो के प्राप्य विशुद्ध ज्ञान का ही वर्णन किया गया है। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति के सहित निवृत्ति मार्ग को प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्ति पूर्वक इसके श्रवण पठन और मनन में तत्पर रहता है वह मुक्त हो जाता है।

सूत जी कहते हैं- शौनक जी! शुकाचार्य जी इस प्रकार भागवत जी का गुणगान कर ही रहे थे की तभी उस सभा के बीच में प्रहलाद, बली, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदों के सहित भगवान नारायण प्रगट हो गए। नारदजी ने भगवान नारायण का पूजन किया और एक स्वर्ण सिंघासन पर आसन दिया और उनके सन्मुख कीर्तन आरम्भ हुआ। 

चोद्धवः काश्यधारी वीणाधारी सुरर्षि: 
स्वरकुशलतया राग कर्तार्जुनोभूत।
इन्द्रोवादीन्मृदंगं जय-जय सुकरा: कीर्तने ये कुमारा 
यत्राग्रे भाववक्ता सरस रचनया व्यास पुत्रो वभूव।।
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