लेकिन एक दिन कन्हैया पकड़े गए इस दिन कन्हैया अकेले हैं अचानक बैठे बैठे मिट्टी उठाई और खाली ओर बल्लू दादा ने देख लिया बोले क्यों कन्हैया मिट्टी खा रहे हो छोड़ो बरना जाकर मैया से कहता हूँ पर कन्हैया ने मिट्टी नहीं छोड़ी और यहाँ बल्लू दादा आये और माँ से सिकायत करदी ओमिया कन्हैया मिट्टी का रहा है।
आई मैया कन्हैया के पास क्यों रे तुझे माखन कम पड़ गया जो अब मिट्टी खा रहा है। तब कन्हैया बोले-
नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन:।
यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य ये मुखम्।। ३५/८/१०
मां! हे अम्ब!.. मैं ने नहीं खाई, सब झूठे हैं। यदि तुम इनकी बात सच मानती हो तो मेरा मुख तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आंखों से ही देख लो। अब यशोदा जी ने कहा- बताओ अपना मुख और जब कन्हैया ने अपना मुख खोला तो माँ यशोदा ने देखा।
सा तत्र ददृशे विश्वं जगत स्थास्नु च खं दिश: ।
साद्रि द्वीपाब्धि भूगोलं सवाश्वग्नीन्दुतारकम्।।३७/८/१०
मां ने पूरा विश्व देखा भगवान के मुख में, पुनः कन्हैया ने जब यह बताया कि माँ मैंने नहीं खाई। तो क्या भगवान झूठे हैं?
भगवान तो सत्यव्रत हैं, परमसत्य ही कृष्ण हैं। तो क्या भगवान ही असत्य बोले, कि मैंने नहीं खाई। अगर भगवान ही असत्य बोलने लगे तो जीव क्या करेगा। जरा संस्कृत में शब्द को समझें कि कन्हैया ने क्या कहा- अहं “भक्षितवानम्ब” अहं कर्ता, अम्ब सम्बोधन, भक्षितवान क्रिया पद और वाक्य नकारात्मक। अब क्या नहीं खाया ये उन्होंने नहीं बताया। मतलब कन्हैया कहना चाहते हैं, मां! हम भोक्ता नहीं, हमने कुछ खाया नहीं। इस पद में क्रिया है, कर्ता है, पर कर्म नहीं है। क्या नहीं खाई यह नहीं बताया।
कोई बोले- क्या नहीं खाई? तो बताते मिट्टी नहीं खाई! तब यह कर्म होता, मिट्टी माने कर्म। क्रिया प्रकृति है, स्वभावगत है। क्रिया करनी नहीं पड़ती, क्रिया हो जाती है। यह क्रिया वाचक नहीं, कर्म वाचक है। जैसे- आंखों की पलकों का गिरना क्रिया है और किसी चीज को देखना कर्म वाचक है।
पलकों का गिरना, धड़कन का धड़कना, भूख लगना ये सब क्रिया है यह अपने आप होता है, इसमें हमारा कोई बस नहीं। क्रिया में न पुण्य होता और न पाप होता। कर्म के साथ पाप पुण्य जुड़ते हैं, क्रिया के साथ नहीं। तो भगवान की यह सहज क्रिया है, एक लीला है, इसमें कर्म है ही नहीं।
शेर प्राणी को मार कर खा जाता है, यह उसका सहज स्वभाव या प्राकृतिक क्रिया है। ऐसा करने पर शेर को कोई पाप य पुण्य नहीं होता क्योंकि शेर को पाप पुण्य का कोई ज्ञान नहीं। पर मानव को ज्ञान है पाप पुण्य का। बेचारे शेर को खेती करना रोटी पकाना तो आता नहीं। मानव को आता है फिर भी मानव जीव खाता है। इसलिए मानव को पाप लगेगा।
भगवान कर्म के बंधन में नहीं आते क्योंकि वे लीला करते हैं। एक तो उन्हें अभिमान नहीं, दूसरा कर्म के फल की कोई इच्छा भी नहीं है। इसलिए भगवान बंधन मुक्त हैं। भगवान की जो भी क्रिया हो रही है वह मात्र एक लीला । यहां पर भगवान ने कह दिया मां मैं भोक्ता नहीं, मिट्टी उठाई मुख में रखी पर मैंने भक्षण नहीं किया।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञ:।
अहं भोजनं नैव भक्ष्यं न भोक्ता
चिदा नंद रूप: शिवोहम् शिवोहम्।।
इस प्रकार भगवान ने अपने मुख में समूचे विश्व का दर्शन कराया। ऐसा विराट रूप देखा मां ने, जो कुछ है सब भगवान में ही है। सब लोग भगवान में हैं भगवान से अलग कुछ भी नहीं है। इस बात का ज्ञान जब मां को हुआ कि सारी धरती ही भगवान के अंदर है तो फिर खा क्या सकते हैं। मुझसे अलग कुछ है ही नहीं तो मैं खा क्या सकता हूँ। खाई तो वह जाती है जो स्वयं से अलग हो। मां को बताया! मां सर्वत्र और सर्वदा मैं ही हूं।
माँ ने
जब भगवान के इस विराट रूप को देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मैं
अपने बच्चे के मुख में ये क्या देख रही हूं। यह स्वप्न है या माया, क्या यह
मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है?.. फिर माँ ने निर्णय लिया, नहीं-नहीं यह
स्वप्न नहीं! मैं तो जागृत हूं और यह देवमाया
भी नहीं है।
अब यह
देवमाया नहीं, स्वप्न नहीं तो फिर क्या है? मेरे बच्चे का
स्वाभाविक ऐश्वर्य है। तो आज माँ को ज्ञान हो गया कि जिनको मैं पुत्र मान रही हूँ, वह
सच में परमात्मा ही है। भगवान ही आए हैं मेरे घर पुत्र बनकर, कहते
हैं! जिसके पास धन होता है उसे धनवान कहते हैं। उसी तरह जिसके पास भग होता है, उसे
भगवान कहते हैं। छः प्रकार के भग हैं- ऐश्वर्य, वीर, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इसे कहते हैं “षडभग”। ये छः भग से
जो युक्त है वह भगवान हैं, ब्रह्म है, निराकार हैं, साकार है। और ईश्वर जब अवतरित होता है तब भगवान
कहलाता है। ब्रह्म, ईश्वर और भगवान इन तीनों शब्दों में इतना अंतर है। षडेश्वर्य
संपन्न होकर जब आते हैं तो भगवान कहलाते हैं।
मां ने समझ लिया यह मेरे बच्चे का स्वाभाविक ऐश्वर्य है। भगवान ही मेरे यहाँ पुत्र
बनकर आये हैं।
माँ ने यहां
पर भगवान के चरणों में वंदना किया, यह देख कन्हैया को अच्छा नहीं लगा। ऐसे में तो सारी लीला
ही समाप्त हो जाएगी। मैं इनका पुत्र बनाकर आया हूँ, अब यह मुझे अपने गोद में नहीं
बैठायेगी। हमारी पूजा होने लगेगी,
हमारी आरती, स्तुति
होने लगेगी। मैं तो यहां लीला करने आया हूँ यह क्या हो गया। तब भगवान ने अपनी माया
का प्रयोग किया माँ पर।
महाराज इन्होंने
अपनी मां को भी नहीं छोड़ा, मां पर भी माया का प्रयोग किया और यह कोई साधारण माया
नहीं है, यह वैष्णवी माया है। भगवान अपने भगतों पर वैष्णवी माया का प्रयोग किया
करते हैं। भगवान के प्रति जो अशक्ति है, वही वैष्णवी माया है और संसार के प्रति जो मोह है वह
योगमाया है। हमारी आसक्ति संसार को छोड़कर यदि भगवान में लग जाये तो जीवन धन्य हो जाये।
यह जो मोह है, इसे भक्ति कहते हैं। गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति जो
मोह है वह भक्ति है।
इस प्रकार
जब वैष्णवी माया का प्रयोग किया तो माता का श्रीकृष्ण के प्रति ईश्वरीय भाव पुत्र में
परिवर्तित हो गया और जो देखा वह सब भूल गई। झट से अपने लल्ला को गोद में उठा लिया और
पहले की भांति लाड़ लड़ाने लगीं।
यहां पर परीक्षित
ने श्री शुकाचार्य जी से पूछा- महाराज! श्रीकृष्ण के जन्मदाता माता पिता तो वसुदेव देवकी
हैं, इनको जो सौभाग्य नहीं मिला वह सौभाग्य नंद यशोदा को मिला। नंद यशोदा
ने ऐसा कौन सा पुण्य किया था?.
तब शुकदेव
जी बोले- परीक्षित पूर्व जन्म में ये दोनों द्रोण नाम के वसु और उनकी धरा नाम
की पत्नी थी। ब्रह्मा जी के कहने से इन्होंने गायों की बहुत सेवा की, तब
भगवान ने वरदान दिया कि मैं तुम्हारे घर गोपाल बनकर आऊंगा। भले ही मेरे माता पिता कोई
अन्य हों, पर मां हम तुम्हारा ही दुग्ध पान कर बड़े होंगे। तुम्हारी अंगूरी पकड़कर
चलना सीखेंगे। इसलिए द्रोण नाम के वसु और उनकी पत्नी धरा, आज
नंद यशोदा बनकर आये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज रज अपने मुख में रख दी, और
ब्रजरज की महिमा बढ़ गई। ब्रज में तो रज की ही महिमा है। ब्रह्म बेटा बनकर
आया है माँ यशोदा का, खुले चरण भगवान ने विचरण किया है वृंदावन में इसलिए
भी ब्रजरज की महिमा बड़ी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें