“अति प्रिय मधुर तोतरी बोली”
अब भगवान श्रीकृष्ण बोलना सीख गए, उनकी बोली अति मधुर और तोतरी है। अब बहुत सारे इनके मित्र हुए, इन मित्रों के साथ में खेलते हैं कृष्ण और बलदाऊ। श्रीदामा, सुबल, मधुमंगल, मनसुख बहुत सारे मित्र हैं। तो मनसुख जो था वह दुबला पतला था। कन्हैया ने पूंछा! मित्र तो तुम्हारा नाम क्या है? उसने बताया मनसुख। कन्हैया बोले- तुम मन सुख भी नहीं हो और तन सुख भी नहीं हो, कैसे दुबले पतले हो।
देखो मनसुख मुझे अच्छा नहीं लगता कि मेरा कोई मित्र पतला दुबला हो, तुम माखन खाकर तगड़े क्यों नहीं होते। देखो मैं कैसो तगड़ा दिखूँ..
मनसुख बोल्यो! वो तो तुम हो गे ही, रोज खूब मक्खन, खूब घी जो खातो है। मोपे नाय इतनो दूध घी काह करूँ। तो तू पड़ोसन कुं मांग लियो कर। बोलो! मोपे माँगनों न बने, कब तक मागूंगों।
कन्हैया बोले- तो चोरी कर लियो कर, पै मक्खन खायो कर। अच्छा लाला! तो तू मोय चोरी करानो सिखायेगो मोपे मार पड़ेगी तो बचावेगो तू..? दारी को भागतो नजर आवेगो।
कन्हैया बोले- साची कहूँ लाला तेरी सौ मैं न भागूँगो, चिन्तो नाय करे, आगे मैं ही रहूंगो। अब तो महराज बन गई मण्डली माखन चोरी की, मण्डली को नाम है- चौर विद्या प्रचार मण्डली। चोरी की विद्या का प्रचार कैसे हो, यह मण्डली का उद्देश्य था। अब तो जिसके यहां देखो उसी के यहां चोरी की खबर सुनने को मिल जाती, अब तो ऐसा हंगामा मचाया की सारी गोपियां सिकायत लेके आने लगीं जशोदा मईया के पास, कन्हैया छिपे हैं। और सारी गोपियां मां के सामने शिकायत को खड़ी हैं।
एक गोपी ने शिकायत करते हुए कहा- मईया! सम्हालो अपना कन्हैया। मईया बोली- पर हुआ क्या? गोपी बोली- हमारे घर माखन आके खाता है। मईया बोली- री गोपी! यदी मेरा लाला, मेरे घर में नहीं पेट भर खाता, यदि तेरे घर आकर खा लिया तो तू कौन सी दरिद्र हो गई। देखो गोपी यदि मेरा कन्हैया तेरे घर आकर दो लोंदा माखन खा भी लेता है तो तू ऐसा करना, मेरे घर से चार लोंदा माखन के ले जाना, लेकिन मेरे लाला को चोर-चोर कहके बदनाम मत करना नहीं तो उसको अपनी लड़की कौन देगा?..
गोपी ने कहा- मैया तेरे चार लोंदा तू रख अपने पास। अरे तुम्हारा कन्हैया सो हमारा कन्हैया। आवे खूब खाबे कोई बात नहीं, हम तो प्रसन्न हैं, पर जब अकेला आवे तब न, सारी मण्डली को लेके आता है, सब को खिलाता है। मईया ने कहा- यही मेरे लाला का सद्गुण है वह अकेले नहीं खाता, पहले सब का पेट भरता है, फिर स्वयं खाता है। यह तो हमें भी सीखनों चाहिए। की सब मिल बांट कर खाएं और मक्खन तो खाने के लिए ही है, बो कोई मुख में लगाने के लिए थोड़ी है। अरे जाता है तो बच्चों के पेट में ही तो जाता है। उसमें तुम रो क्यों रही हो। भला ये भी कोई शिकायत करने की बात है।
कन्हैया मां के पीछे छिपे हैं, बड़े प्रसन्न हैं, की वाह मईया हमारा बड़ा अच्छा बचाव कर रही है। फिर गोपी ने कहा- ठीक है मईया! स्वयं खाये बच्चों को भी खिलाये, लेकिन बंदरों को भी खिलाता है। “मरकान भोच्छन्” मईया ने कहा- वे भी तो विचारे जीव हैं। उनको भी तो भूख लगती है, और मेरा लाला ऐसा है उसको प्राणी मात्र के लिए दया है। तो हमें जीव मात्र के लिए दया का भाव होना चाहिए।
यह तो मेरे लाला का सद्गुण हुआ। अच्छा मैया यह भी मान लिया लेकिन “भाण्डम भिनक्ती” फिर मटके तोड़ फोड़ देता है, उसका क्या.? मैया ने कहा- तो हम बड़े हैं, हमें समझना चाहिए, छींके में क्यों नहीं रखती मटके को, वोतो बच्चे है शरारती तो होते ही है और हमारा कन्हैया तो सबकी खबर रखता है। तुम्हारी कब की पुरानी मटकी हो गई थी, अब हम नहीं खरीदेंगे तो कुम्हार की मटकी बिके कैसे? उसे भी तो अपना पेट भरना हैं। गोपियों ने सोचा अब क्या करें…?
ये मैया तो मानती ही नहीं। एक गोपी आई और उसने कहा- मैया अभी तो गाय दुहने का भी समय नहीं हुआ और कन्हैया आकर उन्हें छोड़ देता है और बछड़े जाकर गाय का सारा दूध पी जाते हैं, अब दुहने जाती तो कुछ बचता ही नहीं। मैया बोली- री गोपी तू अपने लाला को अपना दूध नहीं पिलातीं, ऐसे ही बछड़े को भी तो पहले पूरा अधिकार है माँ का दूध पीने का मेरा कन्हैया उनके अधिकार के लिए लड़ता है इसमें भला शिकायत करने की क्या बात है। माता यशोदा ने गोपियों की एक भी बात नहीं मानी, नहीं सुनी।
आज की यशोदा भी अपने कन्हैया की शिकायत नहीं सुनती, न हो ही नहीं सकता। मेरा लाला तो बड़ा सुधा है। भगवान कन्हैया की लीलाओं में रहस्य भरा पड़ा है। यह माखन की चोरी नहीं, यह मन की चोरी है। वैष्णव यानी हमारा मन यदि माखन जैसा हो जाए सात्विक तत्व से पूर्ण माखन सफेद होता है और सफेद सत्व का रंग है। रक्त यानी लाल रजोगुण का रंग है और काला तमोगुण का रंग है।
तो हम सत्व से परिपूर्ण हो जाएं, माखन जैसे कोमल हो जाए। भगवान को माखन अति प्रिय है निस्साधन जीवो का यह साधन है। भक्त भगवान से कहता है- भगवन् मेरा मन बड़ा चंचल है “पुन: पुन: चल इति चञ्न्चल:” मन चलायमान है, यदि वह चलायमान नहीं होता तो आप यहाँ बैठ के घर की चिंता या चिंतन नहीं कर पाते यही मन की चंचलता है। जीव को परेशान करता है यह मन, हमने अपने मन को काबू में करने का बहुत प्रयास किया। अब तो एक ही उपाय है, यह तब ही आप में लग सकता है जब आप ही हमारे मन की चोरी करके ले जाओ। निस्साधन जीव होवे निस्साधन हो गया, साधक की अब मेरे पास कोई उपाय ही नहीं है। मतलब पूर्ण शरणागति। अब तुम जो चाहो करो, अब तो मन तुम पर तब ही लगे जब तुम चोरी करके ले जाओ इसलिए ऐसा अधिकारी जो मन की चोरी श्रीकृष्ण ने की मन की चोरी करते हैं वही मनमोहन है। चित्तचोर है।
“वत्सान” तो वत्स का मतलब बछड़ा भी है और वैष्णव भी तो वे वैष्णवों को मुक्त करते हैं। जन्म मरण से ये देखते नहीं कि इसने फिर कितना जप तप किया। इसलिए तो किसी भक्त ने कहा पहले हम भजन करें, फिर बाद में तुम हमें मुक्ति दे दो। ये तो सौदेबाजी हुई, यह कोई इनाम नहीं यह तो परिश्रम हुआ और मैं जानता हूँ भगवन तुम्हें आज तक तुमने जितनो को तारा है उनमें कहीं न कहीं स्वार्थ था तुम्हारा भी ऐसे मुफ्त में नहीं तारा। बताऊं वह क्या है?. मैं तो स्पष्ट कहने बालों में से हूँ और तुम को सुनना पड़ेगा।
गजराज तारो तूने आवने को जावने को, खावने पकावने को मीराबाई तारी है।
रोहिदास तारो तूने चावड़ा मढ़ावने को, गावने वजावने को गड़िका तारी है।।
नरसिमेहता को तारो व्यापार चलावने को, वेदन सुनावने को जयदेव तारो है।
तूने सबको तारा क्योंकि इनमें कुछ न कुछ खास बात थी, पर मैं तो किसी काम का नहीं हूं। न मैं नाचना जानता हूं, न गाना, न मैं विद्वान हूं न मैं व्यापारी, इसलिए….
मुझे तारो वामे आपकी बड़ाई है।
यदि पूर्ण शरणागत हुए तो फिर भगवान यह नहीं देखते की इसने क्या जप-तप किया, क्या साधना की। साधना के फलस्वरूप मुक्त करते हो ऐसी बात नहीं है। अपने जो प्रियजन हैं, वत्स हैं उनको भी मुक्त कर देते हैं।
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