अब भगीरथ के पुत्र हुए श्रुत और श्रुत के हुए सुदास और आगे चलके इसी वंश में हुए चक्रवर्ती राजा खट्वांग, इनके पुत्र थे दीर्घबाहु और दीर्घबाहु को हुए रघु, भगवान श्रीराम को इन्ही के वंश से रघुकुलमनि पुकारा जाता है। रघु के हुए अज और अज के दसरथ। तो भगवान सूर्य से ये 41 वीं पीढ़ी में हैं। और 42 वें नम्बर में हैं श्रीराम, इस प्रकार से पूरे सूर्यवंश का यहां पर वर्णन किया गया। कहते हैं भगवान नारायण स्वयं मनुष्य रूप में दसरथ जी के यहां प्रथम पुत्र के रूप में पधारे।
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित तुमने बहुत बार श्रीराम के चरित्र को सुना है, इसलिए यह कथा तुम्हे संक्षिप्त में सुनाता हूँ। भागवत जी में भगवान श्रीराम के चरित्र को मात्र दो अध्याय में दर्शाया गया है। जबकि श्रीकृष्ण चरित्र को 105 अध्यायों में, श्रीराम चरित्र को पहले बताने का मूल तात्पर्य यही है। की जब तक जीव के हृदय में श्रीराम की मर्यादा प्रगट नहीं होगी तब तक वह श्रीकृष्ण चरित्र सुनने का अधिकारी नहीं बनता, इसलिए पहले राम की मर्यादा जीवन में आवे तब श्रीकृष्ण कथा सुन सकता है। बरना श्रीकृष्ण कथा सुनकर उसे बहुत सी शंकाएं हो सकती हैं। तो रामजी का संक्षिप्त वर्णन है भागवत जी में चक्रवर्ती सम्राट दसरथ जी की वैसे तो बहुत सी रानियां हैं पर मुख्य रूप पटरानियां तीन ही हैं, जो बड़ी रानी हैं उन्हीं कौसिल्या जी को प्रथम एक पुत्री हुई जिसका नाम था शांता। महाराज दशरथ जी ने इसी कन्या को पुत्र और भगवान का प्रसाद समझ कर लालन पालन करते रहे, पुत्र प्राप्ति का कोई मोह नहीं था इसलिए राजा ने इस कन्या का लालन पालन राजकुमार की तरह किया।
एक समय की बात है, दशरथ जी के एक मित्र हैं अंगनरेश रोमपाद। इन्हीं अंग नरेश ने राजा दशरथजी से प्रार्थना की के आप अपनी पुत्री हमें देदीजिये हम उस कन्या की रक्षा पिता की तरह करेंगे। क्योंकि हमारे कोई संतान ही नहीं है। अपने मित्र की बात को राजा दसरथ टाल न सके और अपनी लाडली कन्या शांता को अंगनरेश रोमपाद को देदिया।
एक बार अंगनरेश रोमपाद के यहां 12 वर्ष से वर्ष नहीं हुई। जिस कारण देश में अकाल की स्थिति बन गई। राजा बड़े चिंतित हुए, तब अपने गुरु के आग्रह से अपनी कन्या शांता का विवाह विभाण्ड ऋषि के पुत्र ऋष्यश्रृंग के साथ कर दिया। मेहरान ऋष्यश्रृंग के पैर में एक ऐसी रेखा थी कि यदि वो किसी के घर चले जाएं तो उस घर की सारी कमियां दूर हो जाती थीं। तो ऋष्यश्रृंग को राजा ने अपना घर जमाई बना लिया। जिससे राजा का वह राज्य आकाल के कोप से मुक्त हो गया।
इधर चक्रवर्ती राजा दसरथ जी के यहां तीनों पटरानियां बड़े आनंद से रहती थीं। इनमें से जो कैकई जी हैं ना ये ज्यादा सुन्दर थीं, इसलिए राजा का ज्यादा आकर्षण इन्हीं में था। पर संतान किसी को नहीं जो था वह भी दान कर दिया। एक बार राजा यही बात बैठे बैठे सोच रहे थे।
॥एक बार भूपति मन माहीं, भई गलानि मोरे सुत नाहीं॥
बड़ी ग्लानि है मन में, हमारे पुत्र नहीं है। अरे क्या फायदा ऐसे सम्राट होने का, एक पुत्र भी होता तो कम से कम वंश परंपरा आगे बढ़ती। गुरु वसिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम किया, गुरुदेव मेरा वंश आगे कैसे चलेगा?.. तब गुरु वसिष्ठजी ने कहा- राजन! आप जैसे धर्मात्मा पुरुष के वृक्ष की बेल कभी सूखती नहीं, समय है कभी कभी कर्म भी आड़े आजाते हैं। परंतु तपस्वी महात्मा की सान्निध्य से सारे अड़चन दूर हो जाते हैं।
राजा! मेरा एक सुझाव है कि विभाण्ड ऋषि के पुत्र जो ऋष्यश्रृंग हैं यदि वो यहां आवें और उनकी अध्यक्षता में आप पुत्रेष्टि यज्ञ करो तो बेटा अवश्य होगा। उनके चरणों की रेखा ही ऐसी है, की सारे बिगड़े काम बन जाते हैं। दशरथ जी ने साग्रह निवेदन अंगनरेश रोमपाद से किया। तब तब अपनी पत्नी शांता के साथ ऋष्यश्रृंग राजा दशरथ जी के अयोध्या नगरी में पधारे।
अब तो अवध में बड़ी खुशी की लहर छाई। एक वर्ष पहले से ही व्रत पूजन जप आदि आरंभ हो गया। इधर ऋष्यश्रृंग ने यज्ञ आरम्भ किया। बड़ी धूम धाम से यज्ञ हुआ। वेदवेत्ता ब्राह्मण जन पधारे, यज्ञ की पूर्ण आहुति के समय अग्निदेव के दूत प्रगट हो गए। जिनके हाथ में सुंदर सवर्ण कलश है। यह जो चरु होता है गाढ़े खीर का होता है। बोले- महाराज! यह आप कलश लो, यह चुरू यदि आप समान भाग में अपनी रानियों को खिला देंगे, तो अवश्य ही तीनों रानियों को पुत्र होंगे। दशरथजी ने उस चरु के तीन भाग किये, और एक भाग कौशिल्या जी को दूसरा भाग कैकेयी जी को तीसरा भाग सुमित्रा जी को दिया। पर रामायण में आता है कि चरु का आधा भाग कौशिल्या जी को दिया बचे हुए का आधा आधा करके कैकेई और सुमित्रा जी को दिया। जो सुमित्रा जी है वे सूर्य उपासना करती हैं इसलिए जो भी खाती है वह भगवान सूर्य को निवेदित किये बिना नहीं खातीं। तो वे आंगन में गईं और वह चरु सूर्यनारायण को निवेदित करने लगीं और प्रार्थना करने लगीं की है सूर्यदेव यह प्रसाद मैं ग्रहण कर रही हूं जिससे हमारे वंश की वृध्दि हो, मेरा होने वाला पुत्र परम भक्त हो ऐसा आशीर्वाद दीजिए। आँख बंद करके ऐसी प्रार्थना कर ही रही थीं कि तभी आकाश से उड़ता हुआ एक पक्षी आया। और उनके हांथ से वह चरु लेकर उड़ गया। वह पक्षी उड़ता हुआ अनंत आकाश में गया और पहुंचा केशराञ्चल पर्वत पर वहां एक वृक्ष के नीचे माता अंजना सो रहीं थी ऊपर डाली पर वह पक्षी बैठा, वह पक्षी कुछ बोलना ही चाहा कि उसकी चोंच से वह चरु छूट गया। उन्ही से हनुमान जी महाराज का प्राकट्य हुआ। यह सब कथाएं अलग अलग गृन्थों में आती हैं। ये शंकर सुमन भी हैं केशरी नंदन भी हैं, और पवनतनय भी हैं। तो इसप्रकार भगवान श्रीराम जी के परमभक्त श्री हनुमानजी महाराज का जन्म माता अंजना से हुआ।
इधर सुमित्रा जी उदास हो गईं की अब हमें पुत्र कैसे होगा। तब कौशिल्या जी बोलीं- ले गया तो ले जाने दो टुं अपना मन छोटा न करो, यभि मैने यह चरु पाया कहाँ है। तुम तो हमारी छोटी बहन हो, इस तरह अपने चरु का आधा भाग कौशिल्या जी ने सुमित्रा जी को दे दिया। तो झट से सुमित्रा जी ने खा लिया के कहीं यह भी न कोई पक्षी छीन ले, फिर कैकेईजी बोलीं- तुम हमारी भी तो छोटी बहन हो टुं आधा भाग हमसे भी लो। कैकई ने भी सुमित्रा जी को अपने चरु का आधा भाग दिया तो सुमित्रा जी ने उसे भी गप से खा लिया। अब सुमित्राजी ने चरु कितनी बार पाया?..दो बार! इसलिए इनको दो पुत्र हुए। लक्ष्मण जी और सत्रुहन जी ये दोनों राम और भरत के ही अंश हैं। इसमें कोई संदेह नहीं, अब अवधनगर में सब प्रतीक्षा कर रहे है। धीरे धीरे जब चैत्र का महीना आया।
॥नौमी तिथी मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
नौमी तिथी चैत्र मास शुक्लपक्ष और दिन के ठीक 12 बजे श्रीराम जी पधारे। अच्छा! भगवान के जितने भी अवतार हुए हैं उनमें से अधिकांश अवतार 12 बजे ही हुए हैं। अंतर केवल इतना है कि कोई दिन के 12 बजे तो कोई आधी रात में 12 बजे लेकिन पधारे 12 बजे ही हैं। राजा राम जी कौसिल्या जी के भवन में पधारे महारानी कौशिल्या और दशरथ भी यहां मनु सतरूपा ही बनकर आये हैं। अयोध्या दुलहन की तरह सजी है, किसीको कुछ पता नहीं और यहां भगवान शंख चक्र गदा पद्म लिए कौशिल्या के भवन में प्रगट हो गए।
सशंख चक्रं स किरीट कुण्डलम् सपीत वस्त्रं सहसीरूहेक्षणम्।
सहारवक्ष:स्थल्कौस्तुभश्रीयम् नमामि विष्णुम् शिरसा चतुर्भुजम्।।
शंखचक्रगदापद्म प्रभु ने धारण किया है, बड़ा सुन्दर अद्भुत उनका सौंदर्य है। बड़ी सुन्दर झांकी है, कौशिल्या जी ने प्रणाम किया। परमात्मा की सुंदर स्तुति की। भगवान ने कहा- माताजी आपने हमको पुत्ररूप में चाहा था इसलिए मैं आपका बेटा बनकर आया हूँ मईया। अब आप द्वार खोलो बाहर बड़ी भीड़ लगी है सब हमें देखना चाहते हैं।
कौशिल्या जी बोलीं- आपको बेटा बनके आने को कहा था पर आप तो पिताजी बनके पधारे हो। किसी को क्या चार हाथ बाला बेटा होता है। ये चार भुजा लेके क्यों आये?
रामजी बोले- हमें क्या पता माता, हम तो जहां जाते हैं ऐसे ही जाते हैं। हमें बेटा ही तो बनाना है, आप हमें बेटा कहो हम आपको माता जी पुकारेंगे।
मईया बोली- नाटक नहीं, यहां चार हाथ का बेटा नहीं होता मृत्युलोक में 2 हाथ बनाओ तब दरबाजा खोलूंगी।
राम जी बोले- बड़ा मुश्किल काम है यहां बेटा बनना। अब राम जी ने अपने दो हाथ अंतर्धान कर लिए। अच्छा मईया अब तो हम बेटा बन गए। अब तो द्वार खोलो।
माता कौशल्या बोलीं- यह 20 फुट का बेटा किसी को होता है क्या? बेटा तो नन्हा सा होता है। इतने लम्बे तगड़े बनके आये हैं आप।
रामजी बोले- ये तो बड़ी समस्या है अब छोटे भी बनें? अब कितने छोटे बने।
मईया बोली- नन्हे से बनो। सो रामजी छोटे से बन गए। बोले मईया अब तो द्वार खोलो।
मईया बोली- कपड़े तो उतारो।
हम कपड़े क्यों उतारें?
मईया बोली- बालक जब जन्म लेवे तो बिना कपड़ों के आये। आप तो पीताम्बरी ओढ़ के आये हो।
॥माता पुनि बोली सो मत डोली तजहु तात यह रूपा॥
॥की जय शिशु लीला अति प्रिय शीला यह सुख परम अनूपा॥
वस्त्र तो आपको त्यागना ही पड़ेगा।
रामजी बोले- माताजी आप बहुत परेशान करती हो! कभी कहती हो हाथ हटाओ, कभी कहती हो छोटे हो जाओ। अब कहती हो नंगे हो जाओ।
माता जी बोली- वो तो होना ही पड़ेगा। तब राम जी के वस्त्र भी अंतर्धान हो गए। अब माता जी ने दूसरे छोटे वस्त्र राम जी को पहनाए और पालने में लिटा दिया।
राम जी बोले- अब तो द्वार खोलो माता।
कौशिल्या जी बोलीं- अरे रोओ तो सही। अब हमें रोना भी पड़ेगा? माता बोलीं बालक जब जन्म लेता है तो रोता भी तो है।
॥सुनी बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा॥
अब तो महाराज भीड़ लगी है द्वार पर दर्शन करने वालों की । आकाश में देवता भी खड़े हैं। लेकिन सूरज महाराज को खुशी का ठिकाना नहीं, क्यों?.. क्योंकि परमात्मा ने मेरे वंश में जन्म लिया है वो भी दिन में 12 बजे।
राम जन्म के समय सबसे ज्यादा दुःखी था तो वह है चंद्रमा! चंद्रमा ने सूर्य से कहा- भईया जी आगे चलो न हमें भी दर्शन करने दो। सूर्य बोले- चुपचाप खड़े रहो, महीने के बाद नंबर आयेगा। अरे मेरे वंश में राम जी पधारे हैं। जैसे कोई सन्त पधारे न तो उनके शिष्य दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं। उनकी आज्ञा के बिना दर्शन मिलता ही नहीं। बोले महाराज अंदर जाने दो न दर्शन करना है। तुम अभी नहीं जा सकते स्वामी जी यभि विश्राम में है। भले भीतर स्वामीजी हलुआ पा रहे हों।
तो सूर्य बोले- अभी दर्शन नहीं मिलेगा। महीने भर बाद नंबर आएगा। अब जबतक सूर्य अस्त नहीं होंवे तो चन्द्रमा निकले कैसे? रामजी ने मुस्कुरा कर चंद्रमा से पूछा- काय को रोता है? चंद्रमा बोले – आप सूर्यवंश में पधारे हो दिन में बारह बजे आये हो। अब सूर्य है कि जाता है नहीं, तो मैं आपका दर्शन करुण कैसे?..
राम जी बोले- रोओ मत! हम तुम्हे वचन देते हैं इसबार तो हमने सूर्य वंश में जन्म लिया है। पर अगली बार द्वापरयुग में हम कृष्ण बनेगें तो चन्द्रवंश में आएंगे। चंद्रमा बोले- प्रभु कब द्वापर आएगा कब दर्शन होंगे। पर इस अवतार में तो आपने मेरे लिए कुछ कियाया नहीं।
रामजी बोले – सुनो, यहां जो मेरा नाम लेगा न तो मेरे नाम के साथ तुम्हारा नाम भी लेगा।
॥बोलो रामचन्द्र भगवान की॥
राम भरत लक्ष्मण और शत्रुघ्न इन चारों का अवतरण हुआ। दशरथ महाराज के पास में सूचना पहुंची, महाराज बधाई हो, अब दशरथ जी ने जैसे ही सुना, मेरे घर लाला भये हैं। तो दशरथ जी को मानो युवावस्था लौट आई हो। एक दासी आई महाराज बधाई हो! तो उसे अपने गले में पड़ी सारी मालाएं उतार के देदिये। दूसरी आई तो उसे अपने सोने के कड़े उतार के दे दिए। अब तीसरी आई तो उसे भी कमर का करधन उतार के दे दिये।
अब दौड़े-दौड़े सबसे पहले कौशिल्या जी के महल में पहुंचे जहां पहले से ही स्वर्ण मण्डित थालों में घी के लाखों दीप जल रहे हैं माता अपने रामलला की नजरें उतार रहीं हैं। आकाश पर से देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। आप लोग भी भगवान श्रीराम जी की आरती करें।
॥भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशिल्या हितकारी॥
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