शुकाचार्य जी कहते हैं- इसी वंश में आगे चलके बाहुक नाम के राजा हुए। राजा बाहुक को रानियां तो बहुत थीं पर पुत्र एक भी नहीं था। गुरु वशिष्ठ से प्रार्थना की तो यज्ञ के माध्यम से राजा को चरु मिला।
गुरु वशिष्ठ ने कहा- यह चरु तुम अपनी बड़ी रानी को देना तो पुत्र होगा। राजा ने अपनी बड़ी रानी को वह चरु खिलाया। यह देख कर दूसरी रानियों ने ईर्ष्याबस बड़ी रानी को देदिया जहर। परंतु उस जहर से रानी मरी नहीं और वह जो जहर था पिण्ड बनकर पेट में ही रुका रहा, जब रानी को पुत्र हुआ तो साथ में जहर भी निकला और संस्कृत में जहर को कहते है “गर” और गर के सहित पुत्र होने के कारण उस पुत्र का नाम ही रख दिया गया सगर।
अब इन सगर महराज के बड़े होने पर दो विवाह हुए। एक रानी का नाम सुमति दूसरी रानी थी केशिनी। इसमें जो सुमति रानी थी उनके हुए 60,000 पुत्र और केशिनी को था एक पुत्र जिसका नाम था असमञ्जस।
राजा सगर ने एक बार अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया। यज्ञ प्रारंभ हुआ। जब 99 यज्ञ पूर्ण हो गए और 100वां यज्ञ प्रारंभ हुआ तो नियम है कि यज्ञ करता, यज्ञ प्रारंभ करने से पहले एक अश्व को राजसी पोशाक पहनाकर स्वर्ण पात्र अथवा ताम्ब पात्र में एक संदेश लिखकर खुला छोड़ देते थे। इस बात की खबर जब देवराज इंद्र को हुई तो वे डर गए, कहीं ये 100वां यज्ञ पूरा न हो जाये। अगर पूरा हुआ तो सिंहासन हाथ से निकल जायेगा। तो इंद्रदेव ने यज्ञ का घोड़ा जिसे प्रातः छोड़ना था, उस घोड़े को चुराकर भगवान कपिल मुनि के आश्रम में लेजाकर बांध दिया।
अब राजा सगर को जब पता चला कि यज्ञ का घोड़ा चोरी हो गया, तो अपने 60,000 पुत्रों को आदेश दिया। जाओ जहां कहीं भी वह घोड़ा हो उसे यहां लेकर आओ। चल पड़े 60 हजार पुत्र उस घोड़े की तलाश में सारी पृथ्वी छान लिया पर वह घोड़ा न मिला, तब पृथ्वी को खोदना शुरू किया, तब पूर्व और उत्तर के कोने में कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। वहां पर इन्होंने यज्ञ अश्व को देखा तो खड्ग निकाल कर भगवान कपिल मुनि से एक ने बोला-
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलित लोचन:।।
देखो यही हमारे घोड़े को चुराने बाला चोर है, देखो तो सही इस समय कैसा आंख बंद कर के बैठा है। मारो इसे बस मार ही डालो।
हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टि सहस्रिणः।।
तभी महराज कपिल मुनि की आंखें खुली और वे सब जलकर भस्म होकर राख की ढेरी हो गए। इस प्रकार जो राजा सगर की दूसरी पत्नी केशिनी का जो एक पुत्र था जिसका नाम था असमंजस इनका विवाह हो चुका था इनको एक पुत्र भी था जिसका नाम था अंशुमान और ये पुत्र होते ही वन की ओर चले गए तपस्या करने। तो अंशुमान को राजा सगर ने उन 60 हजार चाचाओं की खोज के लिए भेजा, तो यह भी खोजते-खोजते गंगासागर क्षेत्र में पहुंचे जहां भगवान कपिल मुनि आश्रम था, उन्हें देख अंशुमान ने विनम्रता से प्रणाम किया और बोला- महाराज! मैं अयोध्या के राजा सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस का पुत्र अंशुमान हूं, मैं यहां अपने अन्य 60 हजार चाचाओं को खोजाते हुए आपके आश्रम आया हूँ। यह जो आपके आश्रम में यज्ञ अश्व बंधा है इसकी खोज में मेरे 60 हजार चाचा निकले हुए थे, क्या वे आपके आश्रम आये थे?..
भगवान कपिल मुनि ने कहा अच्छा ये अश्व के लिए आये थे, यहां तुम्हारे चाचा आये तो थे उस समय मैं समाधी में लीन था इनके शोर करने से मेरे नेत्र खुले और ये सब जलकर भस्म हो गए। यह जो तुम राख की ढेरी देख रहे हो न यह तुम्हारे भाइयों की ही है।
यह सुनकर अंशुमान बहुत दुखी हुए, और उन मरे हुए चाचाओं की मुक्ति के लिए भगवान कपिल मुनि से ही उपाय पूंछा! तो भगवान कपिल जी ने कहा- इनकी मुक्ति का मात्र एक ही उपाय है पुत्र तुम माता गंगा को बुलाओ यदि उनके जल का स्पर्श मात्र हो गया तो इन सबका उद्धार एक साथ हो जाएगा और गंगा को बुलाने के लिए तुम्हे बड़ी कठोर गया तपस्या करनी होगी। अब तो महाराज अंशुमान वहां से पहले अपने घर गए सारी बात राजा सगर को बताई और फिर वन की चले गए तप के द्वारा माता गंगा को प्रसन्न करने के लिए। अंशुमान ने बड़ी कठोर तपस्या करी और तपस्या करते-करते मर गए। पर माता गंगा नहीं आईं। अंशुमान के पुत्र थे राजा दिलीप, इन्होंने भी बड़ी कठिन तपस्या की पर माता गंगा प्रसन्न नहीं हुईं। दिलीप के पुत्र थे भागीरथ, जब भगीरथ ने तपस्या की तब जाकर गंगा माता प्रशन्न हो गईं।
बोल गंगा मईया की।
माता गंगा ने दर्शन दिया और बोलीं कहो पुत्र क्या कहना चाहते हो मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तब राजा भगीरथ ने प्रणाम किया और बोले माता मैं आपको धरती पर लाना चाहता हूं। जिससे मेरे पूर्वजों को मुक्ति मिले।
माता गंगा ने कहा- ठीक है पर जिस समय मैं अपने वेग से पृथ्वी पर गिरूं तो मुझे रोकने वाला भी तो चाहिए। इसलिए तुम पहले वह उपाय करो मैं आने को तैयार हूं। भगीरथ ने पुनः भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करी। भगवान शिव तो आशुतोष हैं शीघ्र प्रसन्न हो गए।
विराट रूप धारण कर अपनी जटा खोलकर खड़े हो गए। बोले- बुलाओ गंगा को, गंगा जी अपनी पवित्र तीव्र वेग से चलीं और भगवान शिव की जटाओं में समा गईं, और शिव जी ने अपनी जटाओं को समेटा और बैठ गए। भगीरथ महराज तो देखते रह गए। अरे गंगा जी कहाँ हैं?..
बोले ये क्या हमारे सर पे चक्कर खा रहीं हैं। बोले! महराज थोड़ा सा नीचे भी आने दो मेरे पूर्वजों को मुक्ति जो दिलानी है। शिव जी बोले- ऐसा क्या!... हां जी और क्या…. तब भगवान भोलेनाथ ने अपनी एक जटा को ढीला किया और गंगा माई धरती पर आई। बोल गंगा माई की…..
तब गंगा जी बोलीं अब चलो कहां चलना है, अब आगे-आगे भगीरथ और पीछे-पीछे माता गंगा। एक जगह रास्ते पर जन्हु ऋषि बैठे तपस्या कर रहे थे। गंगा जी बोलीं “हुं बड़ा बाबा बना बैठा है” ऐसा बहाउंगी की पता भी नहीं चलेगा। अब तो गंगाजी अपने पूरे वेग से उन्हें बहाने लगीं तो बाबा जी ने आंख खोली और तीन आचमनी में ही गंगा जी को पी गए। अब भगीरथ ने पीछे देखा तो धूल उड़ रही है। अरे ये गंगा जी कहाँ गईं?..
जब पीछे लौट के देखा तो जन्हु ऋषि आंख बंद करे बैठे हैं। बोले महराज! गंगा कहां गईं? बोले हमारे पेट में गई और कहां। आपने ये क्या किया, हम चार-चार पीढ़ियों से तपस्या कर गंगा जी को बड़ी कठिनाई से लेकर आये ताकि हमारे पूर्वजों की मुक्ति हो। और यहां आप पी गए।
जन्हु ऋषि बोले- गुस्सा क्यों करते हो भाई लो अभी निकाले देते हैं और जंघा फाड़ कर गंगा जी को निकाल दिया। तब से गंगा जी का एक नाम जान्ह्वी हुआ। और भगीरथ के द्वारा धरती पर लाने से दूसरा नाम भागीरथी गंगा भी पड़ा। गंगा जी का एक नाम विष्णुपदी भी है।
गंगाजी हरिद्वार तक तो पहाड़ों पर्वतों पर चलतीं हैं, और उसके बाद समतल भूमि पर इनका आगमन हुआ। कई प्रदेशों प्रांतों को नगर गांवों को पवित्र करती हुई माता गंगा जैसे ही कपिल मुनि के आश्रम पहुंचीं और सगर के पुत्रों को पवित्र किया वह क्षेत्र गंगा सागर कहलाया। इस प्रकार राजा सगर के 60,000 पुत्रों को साकेत धाम प्राप्त हुआ। इस प्रकार गंगा मईया का भारत भूमि में आगमन हुआ।
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