आगे चलके मनु महाराज के जो इक्ष्वाकु थे इनके वंश में एक युवनाश्व नाम के राजा हुए, युवनाश्व राजा ने भी वशिष्ठ जी से प्रार्थना की, पुत्र नहीं है। वशिष्ठजी ने बताया यज्ञ करो पुत्र होगा। अब यज्ञ शुरू हो गया।
पुत्रेष्टि यज्ञ दो प्रकार के होते हैं, एक में तो चरु रानी को खिलाते हैं तब पुत्र होता है और दूसरा ऐसा जिसमें जल पिलाते हैं तो पुत्र होता है। बढियां सोने के कलश में जल भरा गया, लेकिन इसमें जल क्यों और किसके लिए भरा गया यह बात किसी को नहीं बताई जाती। राजा को बताया गया, राजन जबतक अनुष्ठान संपन्न न हो आप अभिमान नहीं करेंगे, क्रोध नहीं करेंगे आदि। अब राजा बड़ी निष्ठा से यज्ञ करा रहे हैं। जब एक दिन बांकी था यज्ञ का तो बड़ी जोर से राजा को प्यास लगी, तो राजा ने उसी कलश के जल को पीलिया।
अब सुबह हुई तो वशिष्ठ जी ने कहा आज अंतिम दिन है अब आप तैयार होकर यज्ञ मण्डप में सपत्नीक पधारें।
अब यहां वशिष्ठ जी ने देखा, अरे ये कलश का पानी कहाँ गया। राजा बोले- क्यों कुछ गड़बड़ हो गया क्या?
वसिष्ठजी बोले- ये कलश का जल गया कहां? राजा पुनः आशंकित होकर बोले- गुरुदेव क्या हुआ? तब गुरुजी बोले- राजा आज यज्ञ की पूर्णाहुति है, फलस्वरूप आज इस स्वर्ण कलश का जल रानी को पिलाते जिससे तुम्हे पुत्र प्राप्त होता। अब तो यहां जल ही नहीं रहा तो बेटा होगा कैसे?
राजा बोला- गुरुजी! तब तो बहुत बड़ी गलती हो गई। रात में हमें लगी थी प्यास तो साधारण जल समझकर हम ही पीगये। गुरुजी बोले – अब तो तुम्हे ही पुत्र होगा। सन्तों ने विचार किया अब क्या किया जाए, तब राजा के ऊदर का भेदन कर पुत्र को बाहर निकाला गया। अब बाहर आते ही बच्चा रोने लगा, सब ने विचार किया अब इस बच्चे की रक्षा कैसे करें? तभी यज्ञ के स्वामी इन्द्र देव पधारे और तुरत बच्चे के मुख में अपनी उंगली दे दी। इन्द्र की कनिष्टिका उंगली से हमेशा अमृत झरता है।
इन्द्र बोले- माम धात इसकी रक्षा हम करेंगे। इस तरह उस बालक का नाम पड़ गया मानधाता। बड़े हुए, विवाह हुआ पर पुत्र तो कोई हुआ नहीं और कन्याएं हो गई पचास। इन पचास पुत्रियों के बाद एक पुत्र हुआ जिनका नाम हुआ मुचकुन्द। ये वही मुचकुन्द जी हैं जिनके द्वारा द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण ने कालयवन को भस्म कराया था आगे आपको यह कथा श्रवण करने को मिलेगी। तो राजा मान्धाता की पचासों कन्याएं बड़ी सुसीला हैं, धर्मवती हैं। उत्तर प्रदेश में एक जगह है सुनरख वहीं तपस्या कर रहे थे श्रीमान सौभरी मुनी। तो एक दिन सौभरी मुनि ने यमुना जल में दो मछली के जोड़े को विहार करते हुए देखा। बस तुरत उनके मन में काम प्रवेश कर गया। जल से बाहर आये और किसी से पूछा भाई ये कौन सा युग है? बताया महराज अभी यह त्रेतायुग का प्रथम चरण है। तो आजकल यहां के राजा कौन हैं? व्यक्ति बोला- यहां के राजा हैं मान्धाता।
बस फिर क्या था मुनी जी चल पड़े राजा के पास याचक बनके। राजा ने महात्माजी को देख पड़े प्रसन्न हुए, बड़ा स्वागत सत्कार किया। तब राजा ने सौभरी मुनि से आगमन का उद्देश्य पूछा तो बाबा जी बोले- राजन! हमारा नाम है सौभरी, हमने लाखों वर्षों की तपस्या साधना पूर्ण किया है। परन्तु अभी तक हमने विवाह नहीं किया, हमने सुना है तुम्हे 50 कन्याएं विधाता ने प्रदान किया है। हम चाहते है उनमें से किसी एक कन्या का विवाह तुम मुझसे करा दो ताकि मैं भी अब गृहस्थ आश्रम का सुख भोग सकूँ।
अब राजा उन बाबा जी की बात सुनकर भारी समस्या का अनुभव करने लगा, सोचने लगा ये बाबा जी तो बहुत बड़े तपस्वी है यदि मैं ने इन्हें मना कर दिया तो ये मुझे शाप दे सकते हैं। दूसरी बात यह कि यदि मैं अपनी किसी एक कन्या का विवाह कर भी दिया तो वह जीवन भर मुझे शाप देगी की मेरे पिता ने मुझे एक बाबा के फंदे में बांध दिया। अब मैं करूं तो करूं क्या?..
बहुत सोचने समझने के बाद राजा ने फैसला लिया कि भला इन बाबा जी को देख कर राजभवन में निवास करने वाली कौन सी कन्या इन्हें पसंद करेगी। इसलिए मैं भी इनके समक्ष एक शर्त रखी।
राजा बोले- महाराज! जैसा कि आप जानते हैं, प्रत्येक राज्यों में विवाह संबंधी अलग-अलग रिवाज होते हैं। इसलिए यहां भी एक नियम है और वह है स्वयंवर का। हमारे यहां कन्या स्वयं अपने वर को पसंद करती है और जिससे उसका मन मिल जाता है, हम उसी से उसका विवाह कर देते हैं। मेरे मंत्री जी आपको राजकुमारियों के महल तक ले जाएंगे, वहां प्रत्येक कन्या से आपका परिचय कराएंगे। फिर जो कन्या आपको पसंद करेंगी उसका विवाह हम आपसे कर देंगे।
राजा की इस बात को सुनकर महामुनि सौभरी जी समझ गए कि राजा ने मुझे पहचाना नहीं। बस मंत्री के साथ सौभरी मुनि चल पड़े, जैसे ही बाबा जी कन्याओं के महल में पहुंचे उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया और एक ही क्षण में सुंदर दिव्य रूप धारण कर लिए। सुंदर युवावस्था मानो किसी अमुक देश के राजकुमार हों, सुन्दर मुकुट, गले में सुंदर सुगंधित पुष्पों की माला धारण किए हुए, सौभरी जी जैसे ही उन राजकुमारियों के महल में प्रवेश किया, उनके माला की सुगंध से मोहित हो सभी 50 कन्याएं महामुनि सौभरी का अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं। इस तरह से जब राजा को बाबा जी की शक्ति का भान हुआ तो वे बाबा के चरणों में लोटम पोट हो गए और अपनी सभी 50 कन्याओं का पाणिग्रहण सौभरी मुनि से सम्पन्न कराया और सौभरी जी अपनी 50 पत्नियों को साथ लेकर वन की चल पड़े।
वन में पहुंचकर सबसे पहले बाबा जी एक चुटकी बजाई सुन्दर महल प्रगट हो गया, जिसमें दास दासियाँ, नौकर चाकर, हाथी घोड़े, बाग उपवन, तालाब झरने उपयोगिता की हर वह वस्तु सामने प्रस्तुत हो गया। महर्षि सौभरी ने इस प्रकार हजारों वर्षों तक अपनी पत्नियों के साथ गृहस्थ आश्रम का सुख भोगा उनके पुत्र हुए फिर पुत्रों के भी पुत्र हुए। इस प्रकार नाती पोते परपोतों का सुख प्राप्त कर एक दिन उन्हें बड़ी ग्लानि हुई, विचार किया;
मैं क्या था, क्या हो गया?
क्या कर रहा था, क्या करने लगा?
एक मछली के प्रेम को देख मेरा मन इतना भटक गया कि मैंने तप का मार्ग त्यागकर काम वासना की ओर मुड़ गया। मेरे लाखों वर्षों की तपस्या का यह परिणाम की मैने अपने मन को विचलित होने से नहीं रोक पाया। इस प्रकार बाबा सौभरी जी एक क्षण भी विलंब किए बिना तुरत अपने बच्चों को राज्य सौंप कर पुनः तप के लिए चल पड़े। महराज ये मन बड़ा चंचल है, यह मन किसी के बस में नहीं, जिसने साधना के बल से इस मन पर विजय पा लिया उसी ने परमात्मा के मार्ग की पहली दहलीज पार कर लिया।
ऐसे संत सब प्रभु के धाम को प्राप्त किए हुए हैं, बस लीला के रूप में समाज को शिक्षा देने के लिए धरती में प्रगट हो जाते हैं। चाहे वे शुकाचार्य जी हों वशिष्ठ जी हों, अगस्त्य जी हो, सौभरी जी हों, ये सब वैदिक ऋषि हैं। इनका जन्म मृत्यु कभी नहीं होता, बस देखते हैं कि अब कलयुग आया है सो ये गुफाओं में जाकर तपस्या करने लगते हैं। और फिर जैसे ही सतयुग आया तो बाहर आ जाते हैं।
इसी वंश में एक त्रिशंकु राजा हुए और त्रिशंकु के हुए हरिश्चन्द्र, आपने राजा हरिश्चन्द्र की कथा प्रायः पढ़ी सुनी अथवा टेलीविजन के माध्यम से देखी भी होगी। हमारे यहां तो नाटक मण्डली भी राजा हरिश्चन्द्र, राजा भृतहरि आदि का नाट्य रूपांतरण किया करते थे इसलिए सभी को इनकी कथाओं का ज्ञान है। पर जो कथा भागवत जी में है आप वह कथा न तो पहले कभी सुनी होगी और न ही टेलीविजन में देखा होगा।
कथा यह है कि वैदिक ऋषि विश्वामित्र जी ने राजा में ऐसा कौन सा अवगुण देख लिया जो उन्हें इतनी कठोर परीक्षा राजा हरिश्चन्द्र की लेनी पड़ी। कहते हैं एक बार राजा हरिश्चन्द्र अपने दिए गए वचन को त्याग दिया था, अपने सत्यवचन के पालन से हट गए, इन्हें पुत्र मोह के कारण झूठ बोलना पड़ा था। हुआ क्या कि इनको बेटा नहीं था तब इन्होंने वरुण देवता की करी उपासना, वरुण देवता ने कहा पुत्र तो हो जाएगा लेकिन तुम हमें बदले में दोगे क्या?... तो हरिश्चन्द्र महराज जो हैं इनके मुख से निकल गया कि महराज यदि बेटा हो गया तो मैं अपने बेटा की ही बली दे दूंगा। वरुण देवता ने सोचा यह बोल तो गया पर चलो इसकी सत्यता को देखते हैं।
इस प्रकार एक दिन इनके यहां पुत्र हुआ, वरुण देवता को पता चला तो आ पधारे। बोले- राजा अब तुम अपने दिए वचन का पालन करो, हमें बलि प्रदान करो। यह सुन राजा बड़े चिंतित हुए क्योंकि बहुत वर्षों बाद एक पुत्र हुआ अब वह भी बलि के लिए मांगने वरुण देवता आ गए। पुत्र के प्रति ममता बढ़ गई, बोले- महराज अभी तो बच्चे का नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ, उसका यह संस्कार हो जाये दांत निकल आएं तब बलि देंगे।
नामकरण संस्कार किया गया दांत निकल आये, वरुण देवता पधारे राजा बलि लाओ। महराज अभी इसका मुण्डन संस्कार नहीं हुआ इसका मुण्डन संस्कार हो जाये तब हम बलि अवश्य देंगे। अब मुण्डन भी हो गया, राजा ने फिर कह दिया महराज यह क्षत्रिय बालक है इसका उपवीत संस्कार हो जाए और क्षत्रिय होने के नाते इसका अधिकार है कि यह कुछ अस्त्र शस्त्र का अभ्यास कर ले, तब हम इसकी बलि अवश्य देंगे। वरुण देवता बोले- तुमने मजाक बना रखा है क्या? अब देते हैं, तब देते हैं। पर देते हो नहीं!
तुमने तो हमें परेशान कर दिया, जाओ हम तुम्हें शाप देते हैं। तुम्हे जलोदर रोग हो जाए! बस इतना कह वरुण महराज चले गए। अब यहां राजा हरिश्चन्द्र को बड़ा भारी रोग हो गया। इन सारी बातों का पता जब रोहित को चला तो रोहित बड़ा भयभीत हुआ। रोहित ने सोचा यदि कोई अपने पुत्र की बलि दे दे तो मेरी रक्षा हो जाएगी, बस इसी तलास में वह महल से निकल पड़ा। जगह-जगह उसने पूंछा पर अपना पुत्र बलि के लिए भला कौन देता।
परन्तु एक पंडित जी थे जिनका नाम था अजीगर्त, इन पंडित जी के तीन पुत्र थे, तो उनके पास जाकर रोहित ने कहा- हे विप्र! आप अपना एक पुत्र हमें देदो, आप जो कहो सो बदले में धन लेलो। तब पंडित जी ने कहा ठीक है पर हम बड़ा बेटा नहीं देंगे, बांकी दो हैं जो लगे ले जाओ। तभी पंडितानी जी पहुंची हम अपने छोटे पुत्र को नहीं देंगे। बीच का है सो इसे ले जाओ। बड़ा पुत्र पिता को प्यारा है छोटा माता को और बीच बालों की सीताराम।
बोले इनका नाम सुन:सेब है आप इसको ले जाओ। रोहित ने सुन:सेब को लेकर आये, वरुण देव का आह्वान कर बलि देने की प्रक्रिया प्रारंभ करी गई तो इस बात की चर्चा सारे देश में हो गई। जब विश्वामित्र जी ने सुना तो वह बड़े क्रोधित हुए की मेरे होते हुए किसी ब्राह्मण बालक की बलि दी जा रही है, तो विश्वामित्र जी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने तुरत वरुण देवता का आह्वान किया, विश्वामित्र जी से तो विधाता ब्रह्मा जी भी घबराते हैं; भला वरुण देव क्या हैं। वरुण देवता ने बलि का त्याग कर अपने धाम चले गए। तब विश्वामित्र जी उस बालक से बोले- पुत्र अब तुम सुरक्षित हो निर्भय होकर अपने घर जाओ। उस बालक ने कहा- मैं अपने मातापिता के पास नहीं जा सकता, जिन माता पिता ने धन के लोभ में अपने पुत्र को बेच दिया हो, अब मैं उनके पास कैसे जा सकता हूँ। विश्वामित्र जी बोले- ठीक है तो तुम आज से मेरे पुत्र हो।
महराज विश्वामित्र को पहले से ही 100 पुत्र हैं। तो आश्रम जाकर अपने पुत्रों से बोले- पुत्रो आज से यह तुम्हारा बड़ा भाई है, इसे स्वीकार करो। तब 50 पुत्रों ने कहा- पता नहीं इसे कहां से पकड़ के ले आये हमारा बड़ा भाई बनाने के लिए।
यह सुन विश्वामित्र जी को क्रोध आ गया बोले- मैं जिसे पुत्र मानता हूं तुम लोग उसे स्वीकार करने से मना करते हो।
म्लेक्षा भवतु दुर्जना।। तुम सब मलेक्ष हो जाओ। इस प्रकार अपने 50 पुत्रों को मलेक्ष हो जाने का शाप दे दिया और बांकी जो 50 थे, बोले ठीक है हम इन्हें अपना बड़ा भाई स्वीकार करते हैं। इस प्रकार विश्वामित्र जी के 100 में से अब 51 पुत्र ही बचे। फिर इन सबको राज्य सौंप दिया, ऐसे विचित्र संत थे श्रीमान विश्वामित्र जी महाराज।
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