भागवत जी का जो 9वां स्कंध है, वह इशानु कथा है। ईश अर्थात ईश्वर। अनु अर्थात अनुसरण
करने वाले भक्त की कथा। 8वें स्कंध में भगवान के अवतारों की कथा है। तो 9वें स्कंध
में भगवान के भक्तों की कथा है। सूर्यवंश चंद्रवंश के राजाओं की कथा है। नवम स्कंध
भगवान का वाम वक्षस्थल है। राजा परीक्षित ने प्रश्न किया महाराज! आपने मन्वंतरों की
कथा तो सुनाई, अब भगवान के चरित्रों
की कथा सुनाइये।
तब शुकाचार्यजी बोले- देखो राजा! पहले तो शेषसाई भगवान नारायण से कमल
और उस कमल में ब्रह्मा जी प्रगट हुए। ब्रह्मा के मन से मरीचि, मरीचि के हुए कश्यप और कश्यप जी की पत्नी अदिती
से हुए विवश्वान नाम का सूर्य और इनके हुए वैवस्वत मनु इनके यहां संज्ञा नाम की रानी
से 10 पुत्र हुए। इनमें पहले सुद्युम्न और इला की कथा बताई, यह बहुत सुन्दर आख्यान है। वैसे तो इन राजा को कोई
संतान नहीं थी पर जब गुरु वसिष्ठ ने यज्ञ किया।
एक बात और बड़ी महत्वपूर्ण है, सूर्यवंश की खासियत यह है कि इस वंश में अधिकांश
राजाओं ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके ही पुत्र प्राप्त किया और चंद्रवंश में बिना झगड़े के
किसी का विवाह ही नहीं हुआ। जो वैवस्वत मनु हैं इनको कोई संतान नहीं थी, तब मनु महाराज ने पुत्रकामना के लिए वशिष्ठ जी से
प्रार्थना की। गुरुदेव! मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें, और हमारे यहां पुत्र हो ऐसा कोई उपाय करें। तब गुरु
वशिष्ठ जी ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। अब इस यज्ञ में एक गड़बड़ हो गया। राजा तो पुत्र
ही चाहते थे पर रानी को पुत्री चाहिए थी, सो रानी ने पती को बिना बताए ब्राह्मणों के कान
में बोली- महाराज! ऐसा मंत्र
पढ़ना की हमारे घर कन्या होवे। पंडित जी बोले ठीक है हमारा क्या बिगड़ता है, और उन्होंने कन्या के लिए मंत्र पढ़ा सो पुत्री हो
गई। पंडितों ने इसी कन्या का नाम इला रखा। कन्या को देख राजा बोले- गुरुजी होना तो बेटा था ये बेटी कहां से आई। बताया
गया ये रानी की इक्षा थी कि कन्या होवे, तो कन्या के लिए आह्वान किया गया। फिर राजा के जिद
करने पर वशिष्ठ जी ने अपने तपोबल से उस कन्या को पुत्र बना दिया।
एक बार यही इला जिसका नाम सुद्युम्न रखा गया रथ
में बैठकर घुड़सवार सिपाहियों के साथ जंगल मे आखेट के लिए चल पड़ा। शिकार की तलाश घूमते
हुए वे भगवान शिव के निसिध्द क्षेत्र में पहुंच गए। कहते हैं एक बार भगवान शिव और देवी
पार्वती दोनों एकांत में बैठकर चौसर खेल रहे थे तभी वहां से कुछ संत महात्मा गुजरे
तो सोचा चलो बाबा भोलेनाथ का दर्शन कर लिया जाए वे पहुंचे और भगवान शिव को प्रणाम किया।
कुशलक्षेम पूछा फिर वे आगे चले गए। यह सब देख कर देवी पार्वती जी को अच्छा न लगा।
बोलीं महाराज! हम दोनों इन्हीं से बचने के लिए इस
दुर्गम क्षेत्र में आये हैं तो ये बाबा लोग यहां भी आपका पीछा नही छोड़ते इसलिए मैं
शाप देती हूं कि इस भूमि में जो प्रवेश करेगा वह पुरुष से स्त्री हो जाएगा। और इसी
शापित क्षेत्र में आज सुद्युम्न अपने सेवकों के साथ जैसे ही प्रवेश किया वे सब के सब
स्त्री हो गए, यहां तक कि घोड़े
भी घोड़ी हो गई। यह देख सब चकित थे। आखिर ये क्या हुआ, बहुत समय बीत गया सुद्युम्न अपना यह स्त्री का रूप
लेकर अपने नगर नहीं जाना चाहता था। एक बार चंद्रमा ने इला को देखा तो मोहित हो गए, दोनों ने विवाह किया इनसे एक पुत्र जिसका नाम था
बुध। बुध जन्म से ही बड़े विवेकी थे इसलिए ये माता पिता का मोह न कर सिर्फ तपस्या करने
में अपने मन को लगाया। बहुत समय बाद जब रात्रि के अंधेरे में इला अपने गुरु की शरण
में पहुंचा और सारी कथा गुरु वसिष्ठ जी से बताया तो गुरुजी ने अपने यजमान के कल्याणार्थ
तप किया भगवान शिव प्रसन्न हुए।
वसिष्ठ जी ने भगवान शिव से इला को पुरुषत्व प्रदान करने की गुहार करी तो शिव जी बोले- बाबा जी यह शाप हमारी श्रीमती जी ने दिया है सो हम उनके शाप का निवारण तो नहीं कर सकते पर एक काम जरूर हो सकता है। यह वर्ष में 6 माह पुरुष रहेगा और 6 माह स्त्री के रूप में रहेगा ऐसा वरदान दे सकते हैं। अब मरता क्या न करता इला ने कहा मुझे स्वीकार है प्रभु मेरे लिए इतना ही बहुत है।
लेकिन मनु महाराज की भक्ति रंग लाई और उनको 10 पुत्र
हुए। इन दस पुत्रों में जो बड़े हैं, वे हैं इक्ष्वाकु, दूसरे हैं नृग तीसरे हैं शर्याति ये जो हैं वे बड़े
संत स्वभाव के हैं, तीसरे नंबर में आते
है नभग। इन्ही में एक हैं
पृषध्र जिनको मनु महाराज ने गुरु वसिष्ठ की सेवा के लिए देदिया था। पृषध्र आश्रम में
गौसेवा करते थे, गौशाला में रोज रात्रि
को एक सिंह आया करता और एक गाय को मार देता। तो यह देख पृषध्र एक रात्रि तलवार लिए
सिंह की प्रतीक्षा में बैठे थे। इन्होंने जब सिंह को आता देखा तो उसे मारने को दौड़े
और तलवार से प्रहार किया, पर हुआ ये की सिंह
का मात्र कान कटा परंतु एक गाय की मस्तक कट गया। इस कारण गुरु वसिष्ठ जी ने उसे राक्षस
होने का शाप दे दिया। और जो सर्याती राजा हैं ये बड़े धर्मात्मा है, संतो के सेवक हैं। इनकी पुत्री का नाम है शुकन्या
और इन्होंने संकल्प किया कि मेरी पुत्री ही पुत्र है। भला मुझे पुत्र की क्या आवश्यकता।
अपनी पुत्री को पढ़ाया लिखाया धनुष बाण तलवार चलाना सिखाया।
अब एक दिन पूरी सेना को प्रशिक्षण के लिए राजा सर्याती
पुत्री के सहित एक जंगल में पहुंचे, और उसी जंगल में तपस्या
कर रहे थे महात्मा च्यवन ऋषि, इनके संपूर्ण शरीर
मे दीमक लगी है केवल आंखों की दो ज्योति चमक रही है। अब शुकन्या अपनी सखियों के संग
वन में घूम रही थी और वहीं पहुंची जहां च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे। उसने देखा यह माटी
का मथौना बना है, पर इसमें कुछ चमक
रहा है, आखिर यह चीज क्या
है सो एक लंबा से कांटा लिया और बाबा की आंख में चुभा दिया। बाबा च्यवन की आंखों से
खून निकल पड़ा। उनके तप में विघ्न आने से वहां पर स्थित राजा सहित सभी सैनिकों का मलमूत्र
रुक गया, पेट फूलने लगा। सारे
सैनिक रोते हुए राजा के पास आये महाराज हम सैनिकों का पेट फटा जा रहा है कुछ करिए।
राजा बोले- हम क्या करें जो हाल तुम्हारा है वही हमारा भी है।
चलो पता करते हैं कारण क्या है। उसी समय शुकन्या रोती हुई पिता के पास आई और बताया
पिता जी हमने एक जगह पर मिट्टी का ठीहा देखा जिसमे दो ज्योति स्वरूप कुछ चमक रहा था
सो जानने के लिए हमने उसमे एक कांटा चुभोया अब वहां से खून की धार बाह रही है। राजा
सर्याती समझ गए मेरी कन्या ने महात्मा च्यवन ऋषि का अहित किया है उनके तपस्या में वाधा
पहुंचाई है।
राजा प्रजा के सहित महात्मा च्यवन ऋषि के पास गए
प्रार्थना करी क्षमा मांगी, महाराज यह अपराध मेरी
कन्या से हुआ है अंजाने मे इसने अपराध किया है क्षमा करें। महर्षि च्यवन ने कहा वह
तो ठीक है पर अब तो हमें कुछ दिखाई ही नहीं देता अब हम क्या करें? शुकन्या ने कहा आज
से मैं आपकी सेवा करूंगी, यह अपराध मुझसे हुआ
मेरे कारण आपकी आंख चली गई इसलिए आज से मैं आपकी आंख बनूंगी। इस तरह राजा सर्याती अपनी
कन्या को महऋषि च्यवन को सौंपकर महल आ गए इधर शुकन्या अपने पती च्यवन की भक्ति भाव
से सेवा करती और बचे हुए समय में अश्विनी कुमारों का आह्वान करती तब एक दिन प्रसन्न
होकर अश्विनी कुमार पधारे और च्यवन ऋषि की आंखों की औषधि करी तो उनकी आंखें वापस आगई।
इन्हीं शर्याति राजा के बाद में फिर तीन पुत्र भी
हुए उत्तनबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त के पुत्र हुए रेवत और रेवत के
हुए ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिए वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्मा
जी के पास पहुंचे, उस समय ब्रह्मलोक
का रास्ता इन राजाओं के लिए बेरोकटोक था। उस समय ब्रह्मलोक में सामवेद का गायन हो रहा
था। बातचीत के लिए अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गए। उत्सव के अंत में
ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने अपने आने का कारण बताया। तब हंसकर ब्रह्माजी बोले- राजन! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में
सोच रखा था वे अब पृथ्वी में नहीं रहे वे और उनके नाती पोते भी काल के गाल में समाहित
हैं। इस समय तो पृथ्वी पर 27 वां चतुर्युग प्रारम्भ हो गया। अब पृथ्वी पर तुम्हारे
वंशज नहीं रहे। इसलिए राजन अब तुम मृत्युलोक जाओ वहां इस समय द्वापरयुग प्रारम्भ है
नारायण के अंशावतार बलदेवजी से अपनी कन्या का विवाह करो। इस तरह सूर्यवंशी राजाककुद्मी
ने अपनी कन्या का विवाह बलदेव जी से किया था।
कहते हैं नभग नाम के जो पुत्र हैं ये अपने पिता
की बहुत सेवा करते थे। नभग के पुत्र हुए नाभाग और नाभाग के हुए अम्बरीष। अम्बरीष महाराज
का मन सदा कन्हैया के चरणों में लगा रहता, अपने हाथ से भगवान के मंदिर को साफ करते और टकटकी
लगाए भगवान के सौंदर्य को निहारते रहते। अम्बरीष महाराज का जीवन समझो बस भगवतमई हो
गई थी। पती पत्नी दोनों ठाकुर जी की सेवा करते।
एक दिन अम्बरीष से किसी व्यक्ति ने आकर कहा- महाराज! क्षमा करना, महारानी जी के महल में रात के समय घुंघरू की आवाज़
आती है। अम्बरीष ने कहा, हम स्वयं देखेंगे। जैसे ही इन्होंने महल में प्रवेश किया रात्रि के
बारह बजे, देखा तो इनकी पत्नी
ताली बजा रहीं हैं और बालकृष्ण प्रभु नृत्य कर रहे हैं। महारानी का श्रीकृष्ण के प्रति
पुत्र का भाव है, वात्सल्य भाव है।
अम्बरीष को अपनी पत्नी के प्रति बड़ा स्नेह जागृत हुआ, बोले देवी तुम्हारा जीवन तो धन्य है, महान है, के तुम परमात्मा के दर्शन नित्य करती हो। जो संसार
को नचाने वाला है उसे तुम नचा रही हो।
अम्बरीष महाराज की दूसरी विशेषता है कि साल की जितनी
भी एकादशी आती हैं वे प्रत्येक एकादशी को निर्जला एकादशी के रूप में व्रत करते थे।
जल का एक बूंद भी नहीं लेते थे, और द्वादशी को पहले
ब्राह्मण भोजन कराते, फिर संतों को दान
देते फिर स्वयं भोजन करते।
एकबार अम्बरीष जी ने ऐसे ही एकादशी का व्रत किया
और द्वादशी को इनके घर दुर्वासा जी अपनी मण्डली के साथ पधारे। दुर्वासा जी को देख अम्बरीष
बड़े प्रसन्न हुए। अहो भाग्य महाराज जो आप स्वयं मेरे घर पधारे, आज द्वादशी है सो आप यही भोजन प्रसाद पाइये। दुर्वासा
जी बोले ठीक है तो आप तैयारी करो हम मध्यान संध्या करके भोजन करेंगे। अब दुर्वासा जी
मण्डली के साथ यमुना किनारे स्नान कर संध्या में बैठे तो समाधी लग गई।
अब यहां राजा पूरी तैयारी करके महात्मा जी की प्रतीक्षा
करने लगे। पर दुर्वासा जी नहीं आये, और इधर द्वादशी तिथि
खत्म होने को है तो राजा दूसरे संतों से पूछा- महाराज इस परिस्थिति में क्या करना चाहिए?
तब पंडितों ने बताया कि राजा तुम तो निर्जला व्रत
करते हो, तो तुम ठाकुर जी
के चरणामृत से आचमन करलो, इस तरह तुम्हारा पारण
भी हो जाएगा, और दुर्वासा जी का
अपमान भी नहीं होगा। तो अम्बरीष जी ने ऐसा ही किया, कि तभी दुर्वासा जी आ पहुंचे। उन्हें पता चला कि
राजा ने पारण कर लिया। उस समय दुर्वासा जी को बहुत जोरों की भूख लगी थी, बस भूखा ब्राह्मण शेर बराबर यह एक कहावत
है। तब क्या था बड़े क्रोधित हुए। बोले- राजा तुमने तो सूर्यवंश का नाम ही डुबा दिया, तुमने ब्राह्मणों को भोजन करने का निमंत्रण दिया
और ब्राह्मणों के भोजन करने से पहले ही स्वयं पारण भी कर लिया तुम्हारे जैसा भुक्खड़
तो हमने देखा ही नहीं। इसने धर्म का उल्लंघन किया है। इसने अतिथि सत्कार करने से पहले
ही पारण कर लिया। दुष्ट अभी तुझे इसका दण्ड देता हूं, यह कहकर दुर्वासा जी ने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे
अम्बरीष को मारने के लिए कृत्या नाम की राक्षसी को प्रगट किया। वह हाथों में तलवार
लिए अम्बरीष पर टूट पड़ी। पर अम्बरीष ज्यों के त्यों खड़े रहे बिल्कुल भी नहीं डरे भगवान
विष्णु ने उनकी रक्षा के लिए सुदर्शन को नियुक्त किया था। सो सुदर्शन ने उस राक्षसी
का मस्तक काट दिया। अब तो महाराज वह सुदर्शन चक्र मानो दुर्वासा ऋषि को काटने को व्याकुल
था, यह देख दुर्वासा जी
घबराए और दण्ड कमण्डलु छोड़ भागे अब जहां जहां बाबा जी उनके पीछे पीछे सुदर्शन, दौड़े दौड़े ब्रह्मा जी के पास पहुचे हमे इस सुदर्शन
से बचाओ। ब्रह्माजी बोले- श्रीहरि के भक्तों
का अपमान करते हो और बचने के लिए हमारे पास आते हो। हम कुछ नहीं कर सकते जो किया है
वो भोगो। फिर दुर्वासा जी भगवान शिव जी के पास पहुंचे प्रभु हमें इस सुदर्शन से बचाओ।
शिवजी बोले- यह हमारे बस का नहीं
तुम श्रीहरि के पास जाओ। दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु के पास पहुंचे भगवन मुझे अपने इस
सुदर्शन चक्र से बचाओ। तब भगवान नारायण बोले- अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो
भक्तैर्भक्तजनप्रियः।। 9।4।63
मैं तो भक्तों के आधीन हूं। भक्त के अपराधी को मैं
भी बचा नहीं सकता। हां इतना हो सकता है कि; जिस तरह आप मेरी शरण में आये हो आप अम्बरीष
के पास जाओ। यदि महात्मा अम्बरीष ने आपको क्षमा कर दिया तो समझो हमने भी क्षमा कर दिया।
इस अहंकार को त्यागिये और अम्बरीष के पास जाइये।
दुर्वासा जी को एक बरस बीत गया भागते और यहां अम्बरीष
महाराज एक वर्ष से वही चरणामृत लिए खड़े हैं। जबतक मैं दुर्वासा जी को अन्न नहीं खिला
देता तब तक मैं स्वयं जल भी ग्रहण नहीं करूंगा। तब दुर्वासा जी पधारे अम्बरीष के चरणों
में गिरने को जैसे झुके तो महात्मा अम्बरीष ने उन्हें गले से लगाया, और स्वयं उनके चरणों में गिरके बोले- बाबा ये उल्टी गंगा काय बहाते हो, हम तो संतो के चरणों की धूलि हैं। दुर्वासा जी बोले- वो सब ठीक है सबसे पहले मुझे इस सुदर्शन से बचाओ।
यह सुदर्शन हमारा एक वर्ष से पीछा कर रहा है। तब अम्बरीष ने कहा- यदि मैं अपने जीवन में कभी जीव और भगवान में कोई
अंतर नहीं समझा हूं तो हे सुदर्शन जी आप शांत होकर लौट जाएं। अम्बरीष महाराज की बात
को प्रमाणित करने के लिए ही ये लौटकर चले गए।
दुर्वासा जी को बैठाकर के भोजन कराया, फिर बोले महाराज जो त्रुटि रह गई हो सो क्षमा करए।
दुर्वासा जी की आंखें खुली की खुली राह गईं।
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे। कृतागसोSपि यद् राजन् मड़्गलानि समीहसे।।
वास्तव में भगवान
के दासों का जो महत्व है मैं ने आज देखा है। क्योंकि जिसे मारने का मैंने प्रयास किया।
उस राजा ने किस प्रकार से मेरा वन्दन किया, सेवा की। महात्मा अम्बरीष को को ढेर सारा आशीर्वाद
दिया दुर्वासा जी ने और वहां से चले गए।
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