लक्ष्मी जी ने देखा
हैं ये सत्गुणी हैं, सुन्दर हैं, और सुन्दर वस्त्र भी है,
हाथ में शंख भी और शंख मेरा भाई है। इन्होंने मेरे भाई को अपनाया है,
सौंदर्य ही नहीं; शौर्य भी है, रहते कहाँ
है? बैकुंठ में! तो स्थान भी उत्तम है। इसके अलावा भी और स्थान है बोले- हां क्षीरसागर में! यह तो मेरा मायका है, तब तो ये घर
जमाई बन के रहेंगे। अच्छा तो वाहन क्या है? गरुण! लक्ष्मी जी ने सोचा अब ज्यादा क्या
विचार करना सब तो बढियां है बस अपने हाथ की माला भगवान नारायण को पहना दी। अब तक ये
नारायण थे आज से लक्ष्मीनारायण हो गए।
अब पुनः सागर मंथन
हुआ तो अबकी स्वयं भगवान धनवंतरी हाथ में अमृत कलश लेकर पधारे। अमृत कलश देखते ही सारे
दैत्य दौड़े। छीन लिया अमृतकलश को अब उसी में छीना झपटी होने लगी कोई बोले मैं पहले
तो कोई कहे मैं। परिवार में धनसुख आने पर मैं पहले, मैं पहले का झगड़ा होने लगे तो
आया हुआ धनसुख वापस चला जाता है। सुख आये तो उसके साथ समर्पण की भावना भी आये। मैं
पहले नहीं, पहले आप।
यह देख देवता भगवान
की शरण मे पहुंचे, तो भगवान ने विश्वमोहनी का रूप धारण किया। दैत्य सब मोहित हुए,
दैत्यों से अमृतकलश लेकर भगवान ने देवताओं को पिला दिया। दैत्यों को
जब पता चला कि भगवान विष्णु ने मोहिनिरूप धारण करके हमारे साथ कपट किया है तो राहु।
नामका दैत्य रूप बदलकर देवताओं की मंडली में बैठगया, जब भगवान
उसे अमृत पिला ही रहे थे कि तभी चंद्रमा और सूर्य ने बताया भगवन यह देवता नही दानव
है। तो राहु वहां से भगा तभी भगवान ने सुदर्शन चक्र से उसका मस्तक काट दिया। इस प्रकार
मस्तक राहु के नाम से हुआ और जो धड़ था वह केतु हुआ। बाद में युद्ध शुरू हो गया। बहुत से दैत्य मारे गए। अब
देवताओं ने तो अमृत पिया हुआ था सो वे तो मरें नहीं, पर दैत्य
मरने लगे। यहां तक कि दैत्यराज बली को भी मार दिया देवताओं ने, तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन दैत्यों को जीवित कर दिया।
गुरुजी ने बली को बताया इस समय युद्ध करने से कोई लाभ नहीं होगा, इसलिए युद्ध को विराम दो। बली ने कहा गुरुजी मुझे स्वर्ग चाहिए किसी भी कीमत
में आप जो कहेंगे में करूंगा पर मुझे स्वर्ग का राजा बनना है। गुरु शुक्राचार्य ने
बताया पुत्र तुम 100 अश्वमेध यज्ञ करो, जो भी इस यज्ञ का फल प्राप्त
करता वह स्वर्ग का इन्द्र बनता है।
सभी दैत्य और गुरु
शुक्राचार्य पहुंचे कक्ष जो इस समय गुजरात में है। वहां की विशाल भूमि में अश्वमेध
यज्ञ आरम्भ हो गया। निरंतर के वर्षों तक यह अश्वमेध यज्ञ चलता रहा तब एक दिन यह देख
देवताओं की माता अदिति को बड़ी चिंता हुई। अपनी चिंता प्रस्तुत की अपने पती कश्यप से, तब महर्षि
कश्यप जी ने 12 दिवस का पयो व्रत करने को कहा। 12 दिन का पयोव्रत अदिति माता ने किया।
इस व्रत से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप धारण कर प्रगट हुए। तब अदिति माता
ने भगवान की स्तुति की।
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद तीर्थश्रव: श्रवणमङ्गलनामधेय।
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाद्य
शं न: कृधीश भगवन्नसि दीननाथ:।।
कश्यप जी भी दौड़ते
हुए आये उन्होंने भी स्तुति की। तब भगवान से मां अदिति ने मांगा, भगवन मेरे
पुत्र देवगण सब दुखी हैं दैत्यों ने स्वर्ग का राज्य छीन लिया है। कृपाकर मेरे पुत्रों
को उनका अधिकार दिलाएं, ऐसी कृपा करें।
भगवान ने कहा- इस समय बली
यज्ञ के द्वारा हमारा ही भजन कर रहा है। तो बली को मारना उचित नहीं, पर मैं तुम्हारा व्रत निष्फल नहीं जाने दूंगा। मैं बली को मार नहीं सकता,
पर बली को मांग तो सकता हूँ। आपके कार्य सिद्धि के लिए हम भिक्षुक बनेंगे,
हम बली के पास मांगने जाएंगे। भगवान का चतुर्भुज रूप हुआ अंतर्धान और
नारायण बन गए वामन उपेंद्र भगवान।
तं बटुं बामनं दृष्ट्वा
मोदमाना महर्षयः।
कर्माणि कारयामासुः
पुरस्कृत्य प्रजापतिम्।।
भगवान वामन का प्रागट्य
हुआ, बृहस्पति जी ने यज्ञोपवीत संस्कार कराया। कश्यप जी ने मेखला दी, ब्रह्मा जी ने कमण्डलु दिया। देवताओं ने छत्र दिया, चंद्रमा
ने दण्ड और कुबेर ने भिक्षा पात्र दिया। भगवान वामन का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। गोपतसत्स
की शिखा है, मस्तक में त्रिपुंड है, हाथ
में कमण्डलु है, जनेऊ धारण किये हैं।
अब भगवान वामन बली
को मांगने चले, आये बली राजा के यज्ञ में। भगवान वामन का तेज देखकर सब विचार करने
लगे कहीं ये साक्षात सूर्यनारायण तो नहीं। बली ने भगवान वामन का स्वागत किया। राजा
ने चरण धोए चरणामृत लिया, यहां पर भगवान वामन और बली का सुंदर
संवाद है।
स्वस्ति स्वागतमर्थमहं
वतविद्भू किंदेयदतां मेदिनी का मात्रा मम विक्रयत्रयभिदं दत्तं ब्रुहीतंमया।
मां देहित्व सना: किं हरिदयं पात्रं किमस्मात्परं
एवं न स बलि मख मुखे पायात्सनो वामन: भिर्जितो।।
स्वस्ति- तुम्हारा कल्याण हो।
स्वागतम- नमस्कार! आपका स्वागत है।
वतविद्भू- महाराज बताईये।
किंदेयदतां – आपको क्या दूं?
मेदिनी – पृथ्वी चाहिए।
का मात्रा – कितना चाहिए?
मम विक्रयत्रयभिदं – मेरे पग से नापकर तीन पग भूमि
देदो।
दत्तं – दिया।
ब्रुहीतंमया – ठीक है हम स्वीकार करते हैं।
यह सब देख शुक्राचार्यजी को लगा
ये है कौन? दृष्टि करी तो पता चला ये वामन नहीं विराट हैं, स्वयं नारायण हैं। तो तुरंत बुलाया बली को मां देहित्व सना: - कुछ मत देना।
तो बली ने पूंछा किं क्यों
नहीं दूं? मैं ने उनको बचन दिया है। अब कैसे मना कर दूं। शुक्राचार्यजी बोले हरिदयं
ये हरि है हरने आया है।
तो बली ने कह दिया पात्रं किमस्मात्परं
मुझे ऐसा पात्र कहां मिलेगा जो संसार को देता है वह आज मुझसे मांगने आया है। एवं
न स बलि मख मुखे पायात्सनो वामन: इस तरह से बली के द्वारा भगवान
वामन पूजित हुए। भगवान तीन चरण पृथ्वी मांगते
है बली से अर्थात तन,मन, धन तीनों मांगते हैं। धन की सेवा वित्तजा सेवा, तन की सेवा तनुजा सेवा और मन की सेवा मनसी सेवा है। इनमें से मानसी सेवा सबसे श्रेष्ठतम सेवा होती है।
वित्तजा और तनुजा साध्य नहीं साधन सेवा है पर मानसी सेवा तो सिद्ध सेवा है।
दूसरे पुराणों में भी यह कथा आती
है कि बली जब संकल्प करने के लिए हांथ में जल लेते हैं तो कमण्डलु की टोटी में जलावरोध
के लिए शुक्राचार्यजी जा बैठते हैं तब भगवान वामन कुशा के जड़ भाग से टोटी साफ करते
है तो शुक्राचार्यजी की आंख फूट जाती है। अब बली ने तीन पग भूमि नापने को कहा तो अब
भगवान वामन से विराट हो गए। एक चरण से पृथ्वी नापी दूसरे से स्वर्ग तभी ब्रह्मा जी
ने देखा भगवान का चरण आया है, तो ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से
जल निकाला भगवान के चरण धोया तो वह जल गंगा जल होगया। यह गंगा जो हैं न ये ब्रह्मा
विष्णु और महेश इन तीनों से जुड़ी हैं मतलब गंगा को विष्णुपदी कहते हैं। क्योंकि भगवान
के अंगूठे से निकली हैं। अब ब्रह्मा जी ने धोया और कमण्डलु में रख लिया तो इनसे भी
संम्बन्धित हैं। फिर शिव जी ने इन्हें अपनी जटाओं में धारण किया है। इस प्रकार भगवान
ने दो चरण में ही सब कुछ नाप लिया, तो अब तीसरा पग में क्या नापें।
बोले- बली तुमने तीन पग नापने को कहा अब तीसरा पग में क्या नापें। बली ने सब कुछ दिया, लेकिन अहंमता बढ़ गई। कि मैंने इतना बड़ा दान किया, जो संसार को देता है आज मैंने उसे दिया। इसलिए भगवान ने तीसरा चरण बाकी रखा, ताकि बली स्वयं समर्पित हो। तो बली ने भी कह दिया प्रभु जब आपने मेरे सब कुछ ले
ही लिया है तो अब मुझे भी लेलो। अब आप अपना तीसरा पग मेरे मस्तक में रखो। इस प्रकार
भगवान ने बली को भी स्वीकार किया।
बली ने कहा- प्रभु! आपने मेरा सब कुछ लेलिया यहां तक कि मुझे भी अपना बना लिया अब यह बताइये
की में रहूं कहां?
तब भगवान ने उसे रसातल का राज्य
दिया और स्वयं द्वारपाल बन गए। इधर इन्द्र ने अपना राज्य पुनः प्राप्त किया। भगवान
ने बली को बताया बली तुम इन्द्र बनना चाहते हो तो मैं तुम्हे इन्द्र बनाऊंगा अभी यह
सातवां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है जब आठवां शुरू होगा तब तुम स्वर्ग के राजा बनोगे।
अब बली इन्द्र तब बनेगा जब वह जीवित रहेगा। इसलिए भगवान स्वंय उसकी रक्षा के लिए द्वार
पर पहरा दे रहे हैं। कुछ समय के बाद नारद जी के साथ लक्ष्मी जी आईं बली को राखी बांधा
और भाई से अपने पती को वापस लेकर वैकुण्ठ चली गईं।
ये जो बली हैं ना ये चिरंजीवी
हैं इनकी गिनती चिरंजीवीयों में होती है।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमान
च विभीषण:। ध्रुव: परसुराम च सप्तैते चिरंजीवीन:।।
14 मन्वंतर के समाप्त होने पर जब
कल्प पूरा होता है तब प्रलय होता है, उस समय भगवान मत्स्यावतार धारण
करते हैं। इस अवतार में भगवान ने राजा सत्यव्रत की सप्तऋषियों, औषधियों और धान्यों के साथ रक्षा करते हैं। भगवान ने मत्स्यरूप धारण किया तो राजा
सत्यव्रत ने स्तुति की। जब तक एक कल्प तक ब्रह्मा की रात्रि रही तब तक भगवान नारायण
जल में विहार करते रहे। जो सत्यव्रत है उसका प्रलय में भी विनास नहीं होता भगवान उसकी
रक्षा करते है इस कथा में यही बताया गया। इस प्रकार मत्स्य अवतार की कथा कहकर अष्टम
स्कंध को विराम दिया।
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