गुरुवार, 18 नवंबर 2021

इन्द्र को शाप और समुद्र मंथन 72

कहते हैं एक बार दुर्वासा ऋषि दर्शनार्थ वैकुण्ठ धाम पहुंचे, भगवान श्रीविष्णु के दर्शन कर प्रणाम किया तो भगवान श्रीनारायण जी ने अपने गले की प्रसादी माला दुर्वासा जी को पहना दी। अब दुर्वासा जी तो बड़े प्रसन्न हुए, चलते चलते ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी बोले आओ बेटा बड़ी प्रसन्नता की बात है, बड़े खुश लग रहे हो क्या बात है?

दुर्वासा जी बोले- मेरे गले में ये जो तुलसी की माला जो है ना यह भगवान विष्णु की प्रसादी माला है, यह माला सबको नहीं मिलती। पर प्रभु नारायण ने मुझे प्रदान किया है।

ब्रह्मा जी बोले- बड़े भाग्यशाली हो बेटा तभी इतने प्रसन्न होअब दुर्वासा जी दौड़े दौड़े भगवान शिव जी के पास पहुंचे।

भोलेबाबा बोले- अरे आओ दुर्वासा जी, बड़े दिनों बाद पधारे हो आज तो तुम्हे गले लगाने का मन हो रहा है।

दुर्वसा जी बोले- बस जरा दूर से बात करिए, चिता भस्म लगाते हो हमारी प्रसादी माला में लग जायेगी। यह माला हमें हमारे प्रभु ने दी है यह सब को नहीं मिलती। अब दुर्वासा जी वहां से अब सीधे इंद्र के पास पहुंचे। इंद्रदेव ने कहा- पधारिये महाराज!

क्या पधारिये तुम्हे यह प्रसादी माला नहीं दिखती, यह भगवान की प्रसादी माला है हर किसी को नहीं मिलती।

इन्द्रदेव बोले- महाराज आप तो बड़भागी हैं पर आपसे ज्यादा बड़भागी तो मैं हूँ जो आप यह माला पहनाकर मेरे घर पधारे, आपके चरण मेरी कुटिया में पड़े मैं तो धन्य हो गया। आइए पधारिये भोजन प्रसाद पाइए, दुर्वासा जी ने सोचा अब भोजन का समय भी है। अब थक भी गए हैं तो बस आसान लगाकर बैठ गए, प्रेम से भोजन प्रसाद पाया। ब्राम्हण मधुरं प्रियम।

कभी ब्राह्मणों को खुश करना हो तो एक ही उपाय है, इनको बढियां भोजन पवाओ। महात्मा बड़े प्रसन्न हुए। बोले- राजा तुमने आज बढियां भोजन कराया चलो अब हमसे कुछ वरदान मंगलो हम बड़े प्रसन्न हैं।

देवराज बोले- महाराज क्या मांगू बस आपकी कृपा बनी रहे, यह कहकर जैसे ही इंद्र ने चरण छुए। यह देख दुर्वासा और प्रसन्न हुए सो अपने गले की प्रसादी माला उतारकर देवराज के गले में पहना दी।

एक दिन देवराज ऐरावत में सवार हो चल दिये, तो रास्ते में वह माला उतारकर हाथी के गले में डाल दिया। थोड़ी देर तक तो हाथी ने वह माला पहना रहा, फिर उसको लगा, राजा ने मुझे ये क्या पहना दिया सो तुरत अपने सूढ़ से माला खींचकर नीचे डाल कर पैर से रौंद दिया। यह दृश्य अचानक से दुर्वासा जी ने देख लिया।

बोले- क्यों बड़ा अभिमान है तुम्हे धन का, की मैं स्वर्ग का स्वामी हूं। इसका गुमान है तुझे, अरे भगवान की प्रसादी माला को ब्रह्मादिक देवता भी तरसते हैं। कृपा कर मैंने तुम्हें वह माला पहनाई और तुमने गजराज को वह पहनाकर प्रसादी माला का अपमान किया। अरे ऐश्वर्य के अभिमान से जिसकी आंखें अंधी हो जाएं, उसकी आँखों में दरिद्रता का काजल लगना ही चाहिए। यह कह कर दुर्वासा जी चले गए, और इधर देवराज इंद्र श्रीहीन हो गए उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई।

इंद्र ने देखा मेरे स्वर्ग से यह सुंदर पुरुष निकल कर जा रहा है। इन्द्र ने पूछा तुम कौन हो? पुरुष ने कहा मैं ऐश्वर्य का स्वामी हूं, जहां भगवान का अपराध होता है वहां मैं नहीं रहता। फिर एक परम सुंदरी स्त्री निकली, देवी जी आप कौन हो? वह स्त्री बोली- मैं श्री: हूं! जहां मेरे स्वामी का अपमान होता है वहां मैं नही ठहरती और इस प्रकार देवराज श्रीहीन हो गए।

जब यह बात दैत्यों को पता चला तो दैत्यों ने अपने स्वामी राजा बली को आगे कर स्वर्ग में चढ़ाई कर दिया, और स्वर्ग का राजा बली को बना दिया। देवता रोते रोते ब्रह्मा जी के पास पहुंचे बोले- बली ने हमारा स्वर्ग छीन लिया उपाय बताइये। ब्रह्मा जी बोले- कोई बात नहीं चलो हम सब नारायण प्रभु की शरण में चलते हैं, वही कोई उपाय बताएंगे। गए सब भगवान नारायण की शरण में, स्तुति करी। भगवान बोले- बार बार तुम लोग भक्त जनों का ऋषि मुनियों के अपमान करते हो, और परिणाम स्वरूप तुम्हे वह दुख मिलता है। दैत्यों ने तो अपने गुरु शुकाचार्य को प्रसन्न किया है, उनके पास संजीवनी विद्या है। तुम लोग पहले पहले अमृत की प्राप्ति करो, अमृतपान करो और अमर हो जाओ। देवताओं ने कहा- प्रभु यह अमृत कहाँ मिलेगा?

भगवान बोले- सुनो! सब औसाधियों को डालो समुद्र में मेरु पर्वत की बनाओ मथानी और वासुकी को बनाओ रस्सी फिर सागर मंथन करो, अमृत मिलेगा। देवताओं ने कहा अच्छी बात है हम प्रयत्न करेंगे। भगवान ने कहा- सुनो! यह प्रोजेक्ट बहुत बड़ा है अकेले न कर पाओगे। तो? तुम लोग दैत्यों से मित्रता करो, उनसे सहायता लो। देवता बड़े आश्चर्य में पड़े वाह शत्रुओं से मित्रता करें, और उनसे मदद मांगें। ठीक है महाराज वे तैयार भी हो जाएंगे तो क्या अमृत में वे अपना हिस्सा नहीं मांगेंगे।

भगवान बोले- उसकी चिंता तुम न करो, तुम बस काम शुरू करो।

अरयोपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थ गौरवे। अहिमूषकवद देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतै:।।

अगर शत्रु बलवान हो तो उसके साथ मैत्री करने में हर्ज नहीं। जैसे यहां सर्प ने चूहे से मित्रता करी। अहिमूषकवद अहि याने सर्प मूषक माने चूहा, गारुणी के घर पिटारे में सर्प बन्द रहता है। वहां चूहा आता है सोचता है इसमें कुछ खाने का सामान होगा। तो चूहा कुतर कुतर के एक छिद्र बनाता है, उसमे बैठा सर्प बड़ा बुद्धिमान कुछ बोलता नहीं। वह जानता है कि यदि हम कोई हरकत करेंगे तो उसे पता चल जाएगा की यहां मिठाई नही मौत बैठा है। वह छिद्र कर रहा है तो करने दो, हमारे फायदे की बात है। छिद्र करके जब वह अंदर आएगा तो हम इसे खा जाएंगे। तो भोजन भी मिलेगा और उसके बनाये रास्ते से हम आजाद भी हो जाएंगे। इस तरह से यदि कार्य सिद्धि के लिए शत्रु को भी साधना पड़े तो साधलेना चाहिए। तुम दैत्यों से मदद मांगो

आत्ये सब देवता राजा बली के पास देवता बोले- देखो आखिर हम लोग सगे भाई ही हैं हमारी माता अलग हुई तो क्या हुआ पिता तो एक ही हैं। आपस में लड़ाई करना व्यर्थ है। यह सब सुनकर दैत्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ, अरे इन देवताओं को क्या हुआ?.. दैत्यों ने कहा- देखो तुम लोग सोचते होंगे कि मैत्री करके राज्य का बंटवारा करलें तो सुनो यहां तुम्हें कुछ मिलने बाला नहीं है। देवताओं ने कहा- नहीं महाराज! आप हमसे बड़े हैं तो इसपर अधिकार तो आपका ही बनता है, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस हमें तो आप सेवा का मौका दीजिए।

बली ने कहा- लेकिन तुम लोग ये जो बार बार झगड़ा करते हो न ये हमें अच्छा नहीं लगता। महाराज इसका भी उपाय है हमारे पास, एक ज्योतिषी ने बताया कि अगर हम मिलकर समुद्र मंथन करें तो उसमें से अमृत निकलेगा। जिसे पीकर हम लोग अमर हो जाएंगे। फिर कभी झगड़ा भी होगा न, तो न तुम मरोगे न हम मरेंगे। अच्छा तो क्या करना है हमें?

बस करना ये है कि वासुकी नाग की रस्सी बनाकर मन्दराचल पर्वत की मथानी से समुद्र का मंथन करना है।

राजा बली ने कहा- सुझाव तो बढियां है। ऐसा ही करना चाहिए, अब सभी देवता दैत्य वासुकी नांग के पास गए। उससे समुद्र मंथन के लिए मदद मांगी गई तो वासुकी ने पूछा- ठीक है वहां खिंचाई होगी मेरी, अमृत पियोगे तुम पर मुझे क्या मिलेगा? देवता बोले ठीक है थोड़ा तुम भी चाट लेना।

अब मंदराचल पर्वत को बनाया मथानी और उसे समुद्र में स्थापित किया गया, अब उसमें जैसे ही वासुकी नाग को लपेटकर खींचना शुरू हुआ तो दैत्यों के मन मे हमेसा यह भाव रहता है कि कहीं हम किसी काम में छोटे न पडजाएँ। जो वास्तव में निम्न स्तर के लोग होते हैं वो अपनी बढ़ोत्तरी के लिए यही दिखावा करते है। दैत्यों ने कहा- देखो भाई यह गड़बड़ हमको अच्छा नहीं लगता

क्या हुआ महाराज?.

अरे हम भी स्वाध्याय करते हैं त्रिकाल संध्या करते है, होम हवन करते हैं, बस नहाते नहीं तो क्या हुआ। सांप का मुख पकड़ लिया है तुम देवताओं ने और जो अमंगलकारी पूंछ है वह हमें पकड़ा दिया। हम किसी से कम थोड़ी न है जो पूंछ पकड़ें। इधर भगवान ने भी देवताओं को इशारा किया कि तुम लोग पूंछ पकड़ लो बिगड़ता क्या है। सांप का मुख खतरनाक होता है। देवता बोले ठीक है भैया जी आप ही मुख पकड़िए। अब मंथन प्रारंभ हुआ तो मंदराचल धसने लगा तब भगवान स्वयं कच्छप अवतार लेकर मंदराचल पर्वत को अपने पीठ पर धारण किया। अब फिर मंथन सुरु हुआ तो पर्वत उछालने लगा तब भगवान ने दूसरा हरि अवतार लेकर मंदराचल पर विराजमान हुए। अब पर्वत के नीचे भी भगवा भगवान न और ऊपर भी बैठे हैं।

संसार सागर में मंथन, मतलब मेहनत बहुत करते हैं हम सुख (अमृत) के लिए पर मिलता हमें दुख यानी विष ही है। देव दैत्यों ने मिलकर मंथन किया, अमृत तो नहीं निकला पर निकल आया हलाहल विष, दैत्यों ने कहा ये हम नहीं पियेंगे तुमने कहा था अमृत निकलेगा इसलिए हमने मदद करी। अब इसका जिम्मा तुम पर है जो ठीक लगे करो।

यही समाज भी करता है यदि हमें किसी तरह का दुख है तो उसे बांटने बाला कोई नहीं है। सुख के सब साथी दुख में न कोई। देवता गए नारायण के पास प्रभु आपने कहा था अमृत निकलेगा और यहां तो विष निकल आया अब क्या करें?.

भगवान बोले- तो क्या मैं पी जाऊं, मेरे पास आये हो! तुम्हे पता कि हम माखन मिश्री के सिवा कुछ खाते ही नहीं। ऐसा करो शिव जी के पास जाओ वे ही कुछ कर सकते हैं। सारे देवता भगवान शिव जी के पास गए और स्तुति करी-

देव देव महादेव भूतात्मन भूतभावन। त्राहि न: शरणाण्न्नांस्त्रैलोक्यदहनाद विषात।।

भोलानाथ है तुरत प्रसन्न हो जाते हैं, देवताओं ने प्रार्थना किया, प्रभु हम आप की शरण में है, आपके सिवा और कौन बचाएगा हमें। भगवान विष्णु ने भेजा है जानकर तुरत कालकूट विष को पीलिया और उस विष को कंठ में धारण किया, तो हो गए नीलकंठ।

जगत को अमृत दिया स्वयं विष पिया इसलिए भगवान शिव देव नहीं है महादेव हैं। सभी देवताओं का एक दिन आता है पर हमारे भोले बाबा का तो पूरा महीना श्रावण का शिवजी को समर्पित है। क्योंकि ये देव नहीं है महादेव हैं, बांट दिया अमृत विश्व को स्वयं धारण किया विष को इस लिए महादेव हैं। 

भगवान शिव को प्रणाम कर देवता पुनः आये और समुद्र मंथन प्रारम्भ किया। अब की बार तो रत्न निकलने लगे। कामधेनु गाय निकली तो ऋषियों को दिया, अश्व निकला तो दैत्यों को दिया। कौस्तुभ मणी भगवान विष्णु को भेंट की गई। पारिजात वृक्ष और अप्सराएं देवताओं ने लिया। दैत्यों ने विरोध किया जो निकलता है तुम ही ले लेते हो, क्या हम मेहनत नहीं कर रहे। देवताओं ने कहा झगड़ा नहीं अबकी जो निकले वो तुम्हारा।

मंथन हुआ तो निकला मदिरा, देवताओं ने दैत्यों को दिया बोले जाओ और पियो। मदिरापान करना नहीं चाहिए इससे तन मन धन तीनो नष्ट हो जाते हैं, फिर आप जीवनामृत से वंचित हो जाओगे। दैत्यों ने मदिरा लिया इसलिए अमृत से वंचित हो जाये।

फिर मंथन हुआ तो माता लक्ष्मी निकलीं हाथ में माला लिए तो सब समझ गए। देवी जी वर की तलाश में पधारीं हैं तो देवता बोले हमें वरो दैत्य बोले हमें वरो। लक्ष्मी जी बोली देखो सोर मत करो एक लाइन में खड़े हो जाओ। जो अच्छा लगेगा वर लूंगी। जहां लक्ष्मी आती है वहां झगड़ा होता ही है और जहां झगड़ा होता है वहां नारायण नहीं होते। भगवान उस लाइन से अलग समुद्र के समीप खड़े हो गए।

अब लक्ष्मी जी ने पहले ब्रह्माजी को देखा, बोलीं नहीं यह तो रजोगुण वाले हैं। इंद्रा के पास आईं तो इन्द्र आंख निकाल के देखें, बोली यह तो कामी है। आगे चली तो मील दुर्वासा जी मिले बोलीं ये क्रोधी हैं नहीं चलेंगे। इनसे मिलो ये है कैलाश पती भगवान शिव। लक्ष्मी जी बोली- वो तो सब ठीक है पर कपड़ों का अकाल पड़ा है क्या? आगे चलीं तो देखा भगवान विष्णु अपने चरणों को देख रहे हैं लक्ष्मी जी को देख ही नहीं रहे। मतलब जब तक हमारे पास लक्ष्मी नहीं है तब तक हमारा ध्यान हमारे आचरण में होना चाहिए। यदि आचरण अच्छा है तो लक्ष्मी अवश्य मिलेगी।

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