त्रिकूट नाम का एक
पर्वत था, जिसके तीन शिखर हैं। एक सोने का दूसरा चांदी का और तीसरा लोहे का या समझें
तो यह सत, रज, तम यानी त्रिगुणात्मक प्रकृति
की बात यहां कही गई है। यह वन्य संपत्ति से विभूषित था, उसमे
एक सरोवर था। वहां एक हांथी अपने परिवार के साथ निवास करता था। बड़ा मदमस्त अपने परिवार
के सहित जिस स्थान से गुजरता मानो वहां के अनेक वृक्षों नष्ट कर देता। ऐसे ही एक दिन
घूमता हुआ वह सपरिवार पानी की तलाश में निकला रास्ते में सामने जो भी वृक्ष दीखता उसकी
डालियों को तोड़ता हुआ। भूमि को रौंदता हुआ एक सरोवर में पहुंचा। सभी ने पानी पिया और
पानी पीने के बाद वह सपरिवार जल क्रीड़ा करने लगा।
उस सरोवर में रहता
था एक मगर तो उस मगर ने मतवाले हाथी का पैर पकड़ लिया। युद्ध होने लगा मगर और हांथी
में तो हुआ ये की जल में तो मगर का ही बल बढ़ता है। खींचकर ले जा रहा है, तो सेज सम्बन्धी
सब हाथी को खींचकर बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। लेकिन मगर उस हांथी को दोगुना बल
से खींचने लगा। ग्राह का बल बढ़ने लगा और हांथी निर्बल हुआ। जब सब छोड़कर चल दिये तब
उसने भगवान से प्रार्थना की। सन्त श्रीसूरदास
जी ने इसका भी एक पद बनाया।
हे गोविन्द हे गोपाल
अब तो जीवन हारे..
हे गोविन्द राखो
शरण अब तो जीवन हारे.. (भजन संख्या 19)
संसार सागर में आते ही ग्राह पकड़ लेता है गजेन्द्र को, गजेन्द्र माने जीवात्मा। क्यों आया है संसार सागर में, “नीर पिवन हेतु गयो” प्यास लगी है उसे, प्यास का अर्थ होता है तृष्णा वासना। वासना ही जीव के पुनः जन्म का कारण है। और आते ही क्या होता है, ग्राह पकड़ लेता है उसे, ग्राह जो है वह काल का प्रतीक है। काल जब आता है तो पहले पैर पकड़ता है जीवात्मा का, बैठे हैं तो खड़े होने में मुश्किल, खड़े हैं तो बैठने में कठिनाई। चल रहे हैं तो भी तकलीफ यानी चलना फिरना उठना बैठना बड़ा कठिन काम हो जाता है। फिर काल पेट तक पहुंचता तो पाचनतंत्र खराब, कुछ भी पचाने की शक्ति नहीं।
कुछ भी खाओ पचता
ही नहीं। और आगे बढ़ा तो दांत हिलने लगे धीरे धीरे हिलकर सब गिर गए। जब कुछ पचता ही
नहीं तो दांतो का क्या काम, वह सब बाहर आ गए। अब खिचड़ी खाओ और मजे करो।
काल और ऊपर आया तो अब आंख और कान भी गए, अब सुनाई भी नही दे रहा
और दिखाई भी कम हो गया। लेकिन इन्शान भी बहुत चालक है। दांत टूटे तो नकली बत्तीसी सेट
कर वा लिया, बाल सफेद हुए तो कलर करवा लिया, दिखाई नहीं दे रहा चसमा लगा लिया। कालदेवता याद दिला रहे हैं भाई समय आ गया
है अब तो भजन शुरू करदे, पर नहीं! बत्तीसी लगा लेंगे पर खाएंगे
चना ही। भाई संसार को तूने बहुत देख लिया अब अपने आपको देखने
का समय आ गया। अपने अन्दर देख और अंदर देखने के लिए आंख की क्या जरूरत पर नहीं हम तो
चश्मा लगा के देखेंगे पर अन्दर नहीं देखेंगे। तुमने दूसरों का बहुत सुना अब आत्मा की
सुन।
चार प्रहर युद्ध
भयो लई गयो मझधारे। नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे..
हे गोविन्द हे गोपाल
अब तो जीवन हारे..
चार प्रहर बीता मतलब
चौथापन चल रहा है, अंतिम समय है पता नहीं कब प्राण पखेरू उड़ जाएं। रोग से ग्रसित
है शरीर, बिछौने पर पड़े हैं, बहुत सारे
ऑपरेशन किये हैं मल मूत्र का त्याग भी अब तगाड़ी पर हो रहा है। ऐसी स्थिति में डॉक्टर
भी कहने लगता है बचेंगे नहीं अब तो बस भगवान ही… बच्चों ने बहुत
परिश्रम किया पत्नी भी बहुत ध्यान रख रही है। पर क्या करें काल से बड़ा कौन है। सब ने
हांथ खड़े कर दिए। अब तो लड़के भी सोचने लगते हैं कि अंतिम क्रिया
में भी बहुत खर्चा होना है। परिवार खिलाओ, कुटुम्ब खिलाओ,
रिस्तेदारों की मेजवानी करो। पंडितों को दान दक्षिणा का भी खर्च सो अलग।
यह खर्चा यहीं तक नहीं रुकने वाला महाराज! आगे और लड़ाई है।
अब उमर भी तो हो
रख्खी है चार पीढ़ी को देख लिया अब कितना जियोगे। जाने दो… लड़के भी
साथ छोड़ देते हैं, कोई बचाने वाला नहीं रहेगा।
उसकी हथिनी और बच्चों
ने सोचा अब इसे बचाने जाएंगे तो हम भी मारे जाएंगे। यहाँ हमारे बच्चे भी सोचते हैं;
इतना खर्च कर दिया अब बचने वाला तो है नहीं, ऊपर से कर्जा भी हो रखा है। रहने तो अब जाने
दो इन्हें बहुत जी लिया। कोई कोई बच्चे तो खुद ही धक्का दे देते हैं जा जल्दी..
जब कोई साथ नहीं
देता तब वह भगवान को याद करता है। यहां गजेन्द्र ने याद किया, पूर्व जन्म
में जो सीखा था वह याद आ गया।
ॐ नमो भगवते तस्मै
यत एतच्चितात्मकम। पुरुषायादिवीजाय परेशायाभिधीमही।।
चार प्रहर युद्ध
भयो लई गयो मझधारे। नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे..
हे गोविन्द हे गोपाल
अब तो जीवन हारे..
जय जय श्री कृष्ण
चन्द्र नंद के दुलारे।
नंद के दुलारे बाबा
नंद के दुलारे।
हे गोविन्द हे गोपाल
अब तो जीवन हारे..
पुकारने लगा परमात्मा
को, पूर्वजन्म में जो सीखा था वह
स्त्रोत याद आया। स्तुति किया तो शब्द पहुंचे द्वारका धीस के पास।
द्वारका में शब्द भयो शोर भयो भरे।
शंख चक्र गदा पद्म गरुड़ ले सिधारे।
हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे..
भगवान ने ग्राह के मस्तक को काट दिया और गजराज को बचा लिया। ग्राह मस्तक कटते ही वह गंधर्व रूप धारण करके प्रगट
हो गया। यह पूर्व जन्म में हू हू नाम का गंधर्व था। देवलऋषि के शाप से यह मगर
बना था। आज भगवान श्रीहरि के द्वारा उसे उस शरीर से मुक्ति मिल गई। गजेन्द्र ने भी
भगवान की यह कृपा वत्सलता देखी तो उसने पास में खिले एक कमल पुष्प को तोड़ कर भगवान
को भेंट कर अपने शरीर से मुक्त हो एक राजा के स्वरूप में प्रगट हो गया। । यह इन्द्रद्युम्न
था, महर्षि अगस्त्य जी के शाप से आज मुक्त हुआ।
भगवान की क्रिया में भले ही भेद दिखाई देता हो कि एक को बचाने के लिए दूसरे को मार दिया। पर हकीकत में भगवान के भाव मे कोई भेद नहीं। ये दोनों श्रापित थे जिन्हें आज भागवान श्री हरि ने शाप मुक्त कर दिया।
यह है चतुर्थ तामस मन्वंतर की कथा, फिर पांचवा है रैवत मन्वंतर, छठा है चाक्षुष मन्वंतर इसमें
भगवान का अजितावतार हुआ। अजित भगवान ने देव दानवों से समुद्र मंथन करवाया यह कथा भी
बताई।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें