राजा परीक्षित बोले- महाराज! आपने जो सूर्य वंश और चंद्र वंश का निरूपण किया है वह बहुत अच्छा लगा। लेकिन कन्हैया की कथा सुनाने में आपने जो कंजूसी की वह अच्छा नहीं लगा। इसलिए विस्तार से कहिए।
श्री कृष्ण तो मेरे जीवन है। हमारे प्राण हैं और उनकी कथा मैं संक्षिप्त सुनूं ! यह कभी हो नहीं सकता। भगवान ने जो उपकार किए हैं हमारे परिवार पर, मैं कैसे भूल सकता हूं। मेरे बाबा के पास में क्या था?.. कौरवों की सेना तो एक विशाल सागर थी और उस सागर में बड़ी-बड़ी मछलियां और मगरमच्छ है। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दुर्योधन, कर्ण मेरे बाबाओं के लिए यह सागर पार करना बड़ा ही दुर्लभ था। परंतु भगवान श्रीकृष्ण रूपी नौका का सहारा लेकर भगवान की उंगली पकड़ कर इस समुद्र को ऐसे पार कर गए। जैसे- गाय के खुर से बने गड्ढे को कोई सहज ही पार कर ले और इस कृष्ण कथा को मैं संक्षिप्त में सुनू। असंभव! अरे मेरी अपनी बात सुनिए न गुरुजी….
द्रौण्यस्त्र विप्लुष्टमिदं मदंगम् सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम्।
जुगोप कुक्षिं गत आत्त चक्रो मातुश्च मे यः शरणं गतायाः।। 6।1।10
द्रोणाचार्य जी के पुत्र अश्वत्थामा ने मुझे मारने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाया। कौरव और पांडवों के वंश को बढ़ाने वाला केवल मैं ही बचा था। लेकिन रोती-रोती मेरी मां जब श्री कृष्ण के चरणों में आई, तब मुझे बचाने के लिए भगवान ने मेरी मां के गर्भ में वास किया और अपनी गदा से मेरी रक्षा करी।
तो जो प्रभु मेरे परिवार के और स्वयं मेरे रक्षक हैं। उनकी कथा को मैं विस्तार से ही सुनना चाहता हूं। दूसरी बात यह है कि आपने रोहिणी के पुत्रों का नाम तो बताया, पर उसमें बलराम जी का नाम क्यों?..अब एक ही पुत्र दो माताओं का कैसे हो सकता है? श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में क्यों हुआ?.. उन्होंने गोकुल वृंदावन में क्या किया?.. फिर मथुरा द्वारिका में क्या किया?.. इन सारी कथाओं को विस्तार से कहिए। उनको कितनी पत्नियां थी बेटा बेटी कितने हुए?..
शुकाचार्य जी बोले- राजन! तुम्हारा भाव बढ़ा उच्च कोटि का है। बस भाव को जानकर ही तो हम तुम्हारे हो गए हैं। इसी भाव के कारण तो हम यहां बैठे हैं और आज चौथा दिन हो गया। पर एक बात समझ में नहीं आती कि हम तो ठहरे बाबाजी हम 2 महीने भी कुछ ना खाएं तो कुछ होने वाला नहीं।
पर तुम तो गृहस्थ हो राजा हो 4 दिन हो गए और तुमने पानी तक नहीं पिया। महाराज राजा परीक्षित ने हमारे आपके जैसे कथा थोड़ी सुनी थी। वहां जितने भी श्रोता थे सब लगातार सात दिन पर्यंत एक आसन में बैठ लगातार कथा सुनी थी। ना चेला ने पानी पिया और ना गुरुजी ने पानी पिया। तो यहां पर श्री शुकाचार्य जी ने परीक्षा लेनी चाही कि चलो ऐसा करते हैं। राजन 15 मिनट का विराम ले लेते हैं। तुम थोड़ा बालभोग पालो। पानी दूध पीलो, फिर कथा सुनाएंगे। महाराज इस बात को सुनकर परीक्षित की आंखों में आंसू आ गए।
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते।
पिवन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्।।
गुरु जी हमें भूख प्यास कुछ नहीं लगी यद्यपि भूख प्यास को जीतना किसी के बस की बात नहीं है, लेकिन मुझे इससे कोई समस्या नहीं है। क्यों?.. बोले- जहां राजभोग रसगुल्ला मिल रहा हो, तो व्यक्ति उसे छोड़कर गुड़ खाकर मुंह चिपकाना क्यों करेगा। अजी जिसको भागवत रूपी कथामृत पीने को, सुनने को मिल रही हो, उसको संसार की वस्तुओं की भूख क्यों! गुरु जी मैं आपके मुख रूपी चंद्रमा से जो भागवत कथामृत का पान कर रहा हूं। मुझे नहीं लगती भूख नहीं लगती प्यास। आप तो विस्तार से कथा कहिए।
इस बात को सुनकर शुकदेव जी गदगद हो गए। बोले- राजन! तुम्हारी बड़ी अच्छी भावना है, क्योंकि तुम्हारा चित्त श्री कृष्ण में लगा है। अवश्य हि मैं तुम्हें यह कथा विस्तार से सुनाऊंगा।
देखो बात ऐसी है; कि जब पृथ्वी पर पाप ज्यादा बढ़ने लगा तो पृथ्वी ने तुरंत गाय का रूप धारण किया और रोती-रोती विधाता ब्रह्मा के पास पहुंची। ब्रह्मा जी बोले- क्या हुआ?.. गौ बोली- अगर ऐसे पाप होता रहा तो मैं मर जाऊंगी। फांसी लगा लूंगी या रसातल चली जाऊंगी।
ब्रह्मा जी बोले- हां! यह मेरे बस की बात नहीं है। बड़े-बड़े पापी लोग मेरी छाती में बैठ कर पाप करते हैं, मुझसे यह सहन नहीं होता। इसका उपाय बताओ क्षण में नहीं तो डूब जाऊंगी समुद्र में। देवता बोले- ब्रह्मा जी! बात सही है। कुछ तो उपाय करिए। अब यह बात ब्रह्मा जी ने सुनी तो सबको लेकर भगवान नारायण की शरण में पहुंचे। मतलब यह कि ब्रह्मा जी ने कहा- सब आंखें बंद करो और ब्रह्मा जी ने भी आंख बंद करके समाधि लगाई। भगवान नारायण का ध्यान किया। तब मन जो वाणी को सुना! वह देवता और गौ माता से बोले। हे देवताओं! हे पृथ्वी तुम चिंता मत करो।
वसुदेव गृहे साक्षात् भगवान पुरुषः परः।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रियः।।23।1।10
स्वयं प्राण पुरुषोत्तम श्रीमन्नारायण वसुदेव देवकी के यहां पुत्र बनकर के आएंगे और लोक का कल्याण करेंगे। ब्रह्माजी बोले- सुनो! देवता बोले क्या?.. अब तुम लोग भी भगवान के लीला कार्य के लिए गोकुल में जन्म लो। इस प्रकार से पूरा गोलोकधाम गोकुल में आकर बस गया और देवताओं ने यदुवंश में आकर जन्म लिया। यह द्वापर युग का अंतिम चरण चल रहा था। मथुरा को यदुवंशियों की राजधानी कही गई। अब यहां के जो राजा हैं वे उग्रसेन जी हैं। महाराज उग्रसेन जी के छोटे भाई का नाम है देवक, इन्हीं की पुत्री है देवकी।
महाराज उग्रसेन बड़े प्रतापी हैं, संत ब्राह्मणों में निष्ठा है। लेकिन बेटा नहीं है, फिर भी यज्ञों के प्रभाव से इनकी पत्नी गर्भवती हुई। एक बार यह उग्रसेन की पत्नी अपनी सहेलियों के साथ जब जंगल गई। बिहार करने के लिए तो, उस जंगल में रहता था। एक द्रुवल नाम का राक्षस तो उस द्रुवल नाम के राक्षस ने वहां उग्रसेन की पत्नी को देखा और उनके पास में गया। तब उसकी छाया उग्रसेन की पत्नी के गर्भस्थ शिशु पर पड़ी, बस उसी से कंस का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार समय बीतने पर कंस का जन्म हुआ तब उग्रसेन महाराज ने संत मंडली को बुलाया। बड़े-बड़े ज्योतिषाचार्य आए, ब्राह्मण आए। उन लोगों ने उसकी कुंडली बनाई और कहा- महाराज! यदि आप अपने खानदान की रक्षा करना चाहते हो तो इस बालक को त्याग दो। तब श्रीमान उग्रसेन जी ने उस बालक को एक टोकरी में रखकर जमुना जी में बहा दिया। जमुना जी में बालक वह रहा है और मथुरा से थोड़ी दूर पर एक बटेश्वर नाम की जगह है आगरा के पास, वहां सबुरी नाम का गांव है। यह सूरसेन जी की राजधानी है, तो वहां सूरसेन जी महाराज जमुना जी में खड़े होकर के गायत्री का जप कर रहे थे। उन्होंने जमुना में उस नन्हे से बालक को बहते हुए देखा तुरंत उछल कर के गोद में ले लिया। अपनी पत्नी से जाकर बोले- अब तक हमको बेटा वसुदेव था, आज से यह भी हमारा पुत्र होगा।
वसुदेव जी कंस से डेढ़ वर्ष बड़े हैं, अब कंस महाराज बड़े आराम से वहां रहते हैं। पढ़ लिख कर के बढ़े हुए, अब उद्दंड प्रकृति के यह पहले से ही हैं। जब कंस की उम्र में जब 12 वर्ष की हुई तब एक दिन नारद जी का पदार्पण हुआ। सूरसेन जी के महल में और नारद जी ने अकेले में कंस के कान में कहा- तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है? कंश बोला- हम सूरसेन महाराज के पुत्र हैं। नारद जी ने कहा काय को हमसे झूठ बोलते हो। मतलब?.. मतलब कि तुम तो मथुराधिपति उग्रसेन के बड़े पुत्र हो। अब तो महाराज! तुम्हारे चार भाई और हो गए हैं। अच्छा मैं उग्रसेन का पुत्र! तो फिर यहां कैसे आया?..
नारद जी बोले- महाराज! यह सब गड़बड़ी पंडितों ने की है। तुम्हारे पिताजी को तुम्हारे खिलाफ भिड़ा दिया। उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा दी और तुमको यमुना जी में फेंकवा दिया। कंस बोला- मैंने क्या बिगाड़ा था उन पंडितों का, जो मुझे यमुना जी में फेंकवा दिया।
अब मैं तो एक-एक से बदला लूंगा किसी को छोड़ने वाला नहीं! बस इतना पाठ पढ़ाकर नारद जी अंतर्ध्यान हुए और कंस रात्रि में ही उठ कर कैलाश पर्वत में चढ़ गया वहां जाकर बड़ी भारी तपस्या की, भगवान भूत भावन भोलेनाथ प्रसन्न हुए। बोल बच्चा क्या चाहिए? कंस ने कहा- मुझे कोई ऐसा वर दे दो महाराज कि मैं मरूँ नहीं।
शिवजी बोले- परंतु ऐसा संभव नहीं है। यहां जो भी जन्म लेता है उसे तो मरना ही होता है। लेकिन मैं तुम्हें यह धनुष देता हूं, पर इस धनुष को तुम रखना पास में और सिवाय नारायण के यह धनुष कोई तोड़ सकता नहीं। और जो तोड़ेगा वह तुम्हें छोड़ेगा नहीं। कंस ने धनुष लिया भगवान शंकर से अब दिग्विजय करने का मन में संकल्प किया। अब यह एक जंगल से गुजरा जहां पर महाराज जरासंध अपनी विशाल सेना को प्रशिक्षण दे रहा था। तो प्रशिक्षण के समय एक हाथी कुबलियापीड़ वह बिछड़ गया। अब वह हाथी किसी के संभाले संभले नहीं। कंस ने तुरंत उस हाथी को अपने हाथों से पकड़ लिया और उसे पकड़ कर ऐसा घुमा कर फेंका कि वहां जहां पर जरासंध था, उसके पास जा गिरा।
यह देखकर जरासंध बड़ा प्रसन्न हुआ, इस वीरता से प्रसन्न होकर अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह कंस के साथ कर दिया। जरासंध की स्त्रियों का नाम है अस्ति और प्राप्ति कंस कालनेमि का अंश है ऐसा गर्ग संहिता में वर्णन आता है। कहते हैं कि अभिमान रूपी कंस की दो ही स्त्रियां हुआ करती है। अस्ति का मतलब “है” और प्राप्ति का माने “होगा” मतलब यह अभिमान है जीव को, कि इस संसार में जितने भी भोग हैं सब मेरा है और नहीं है तो हो जाएगा।
इस प्रकार से महराज कंस का बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। इनके ससुर जरासंध ने दहेज में बहुत सा धन दिया और धन के साथ बहुत से घोड़े दासी, सैनिक, और कुबलियापीड़ हाथी भी दिया। अब सैन्य के सहित कंस दिग्विजय करते हुए मथुरा में प्रवेश किया। मार्गों में धूल उड़ रही थी, चारों तरफ भागो-भागो की आवाजें गूंज रही थी। इस समय कंस ने कई ब्राह्मणों की, स्त्रियों की, बच्चों की हत्या करते हुए महल में जा पहुंचा।
अपने पिता उग्रसेन से बोला- पिताजी आज से यहां के राजा हम हैं, अब आपने बहुत राज किया अब आराम करिए और कल सुबह उग्रसेन को कठोर कारागार में डाल दिया। जो अपने पिता का नहीं भला वह किसका हो सकता है। सबसे पहले उसने आदेश दिया कहीं भी यज्ञ हवन वेद ध्वनि नहीं होगी।
शुकदेव जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार से कंस मथुरा का राजा बन गया। पर एक दिन उसने विचार किया कि अब हम तो मथुरा के राजा बन ही गए। परंतु हमारे मित्र जो वसुदेव हैं क्यों न उनसे अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह कर दिया जाए तो कैसा रहेगा। इस प्रकार से वसुदेव और देवकी जी की सगाई पक्की हो गई फिर विवाह हुआ, कंस ने देवकी का विवाह बड़े धूमधाम से किया और दहेज में दिया क्या।
चतुः सतं पारिवर्हं गजानां हेममालिनाम्।
अश्वानामयुतं सार्ध रथानां च त्रिषट्शतम्।। 31।1।10
महाराज सोने के हार से सुसज्जित 400 हाथी दिए। गजानां हेममालिनाम् और क्या दिया? अश्वानामयुतं 15000 घोड़ा दिया। और रथानां च त्रिषट्शतम् 3×6=18 अर्थात 18000 रथ दिए। इनके साथ में 200 कुमारी दासियाँ, आभूषण सब कुछ दिया। अब विदा करने को कंस स्वयं चला, वसुदेव देवकी रथ में विराजित हुए। कंस सारथी बना और रथ लेकर जैसे चला, आकाश में आकाशवाणी हुई। हे अबुध जिस तेरी बहन देवकी को इतना प्रेम कर रहा है उसी के आठवें गर्व से तेरा काल जन्म लेगा।
अब कुछ लोग यहां पर प्रश्न करते हैं, भला देवताओं को आकाशवाणी करने की जरूरत क्या थी। इसी आकाशवाणी के कारण तो कंस इतना दुष्ट हुआ कि अपनी ही बहन के बच्चों को मारने को तैयार हो गया। तो यहां पर हमें यह समझना चाहिए कि भगवान ने सोचा हम जिसके द्वारा प्रकट होना चाहते हैं, उसके जीवन रथ का साथ सारथी कंस जैसा देहाभिमानी नहीं होना चाहिए। जीवन रथ का सारथी जहां देहाभिमानी होता है, वहां भगवान नहीं आते। भगवान नहीं चाहते कि इसके जीवन रथ का सारथी कंस हो, इसलिए आकाशवाणी की।
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