गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

यदु और पुरु वंश का विस्तार 81

ययाति महाराज की जो पत्नी है;- वह ब्राम्हण की पुत्री है और जो दासी है वह क्षत्रिय राजा वृषपर्वा की राजकुमारी है। ययाति अपने मन को नहीं संभाल पाए और उस दासी को भी पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया।

देवयानी को यदु और दुर्वसु 2 पुत्र हुए और शर्मिष्ठा को दुह्यू, उरु और पुरु यह तीन बेटा हुए। यह देख देवयानी को अच्छा नहीं लगा, तो पिता से जाकर बोली- आपको मालूम है पिताजी?.. शर्मिष्ठा को मैं दासी बना कर ले गई थी। उन्होंने उसे पत्नी बना लिया और उसके तीन-तीन बेटा भी हो गए। 

शुक्राचार्य बोले- हमारे दामाद को बड़ा अभिमान है सुंदरता का, हमारी बेटी के साथ में धोखा दिया। अभी शाप देता हूं कि दामाद जी बूढ़े हो जाए। शुक्राचार्य के शाप देते ही ययाति महाराज की कमर झुक गई, दाढ़ी सफेद हो गई। हाथ जोड़कर कहा यह आपने क्या किया महाराज! मेरी कामनाएं तो अभी अधूरी हैं और अभी से आपने मुझे वृद्ध बना दिया। आपको यह भी तो सोचना चाहिए था कि मेरे वृद्ध बनने से आपकी पुत्री को ही तो तकलीफ होगी। शुक्राचार्य बोले- ओsssहो यह तो मैंने सोचा ही नहीं। लेकिन हम अब क्या करें?.. 

बोले- अच्छा आपको पांच बेटा है! बोले- जी! तो उनमें से किसी एक से युवावस्था लेकर उन्हें अपना बुढ़ापा दे दो। ययाति ने अपने सबसे बड़े पुत्र यदु से कहा- पुत्र! देखो हम बड़े तकलीफ में हैं वृद्धावस्था को प्राप्त हुए हैं, समय से पूर्व। 
यदु ने कहा- नsssना मुझे पाप लगेगा। बोले क्यों?.. बोले- पिताजी! मेरी युवावस्था लेंगे और मां के साथ संसर्ग करेंगे। इसमें स्त्री संबंध का दोष लगेगा। यदु महाराज ने विनम्रता पूर्वक मना कर दिया। पर ययाति के सबसे छोटे बेटे हैं पुरु! पुरु ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया और युवावस्था देकर उनकी वृद्धावस्था ले ली। 
पुत्र की आयु लेकर राजा ने 1000 वर्ष तक काम सुख का उपभोग किया पर एक दिन उनका मन विचलित हुआ और सोचने लगे कि देखो मैं कैसा स्त्री लंपट हूं, कि हजार वर्ष बीत गए और मेरा मन आज भी तृप्त नहीं हुआ। तब उन्होंने अपने पुत्र पुरु को युवावस्था पुनः वापस करके उसे राजा बनाकर वन में तपस्या करने चले गए। 

शुकदेव जी कहते हैं- राजन! इन्हीं ययाति राजा के पुत्र पुरु के वंश में दुष्यंत नाम के राजा हुए और उनकी पत्नी शकुंतला से राजा भरत का जन्म हुआ। भरत जी बाल्यावस्था से ही इतने तेजस्वी थे कि बड़े-बड़े शेरों को खेल ही खेल में बांधकर उनसे उनके साथ खेला करते थे और इन्हीं भारत के नाम से हमारे राष्ट्र का नाम भारत पड़ा। इनके वंश में रंतिदेव महाराज का प्रादुर्भाव हुआ। 

महाराज रंतिदेव के जीवन का तो एक ही उद्देश्य है पर उपकार, महान पुरुषों का आभूषण महान पुरुषों का लक्षण परोपकार ही होता है। रंतिदेव के जीवन में 12 वर्ष तक अकाल पड़ गया, तो इनके राज्य में जो भी खजाने में था सब प्रजा को बांट दिया। बोले- प्रजा का पालन करना ही तो राजा का परम कर्तव्य होता है इस भाव से जब सारी चीज राज्य में बांट दी परिणाम यह हुआ।

कि इनके पास स्वयं के लिए कुछ भी नहीं बचा। थोड़े चावल थे बनाकर पाने लगे, तभी एक ब्राम्हण देवता आए बोले- महाराज बहुत जोरों की भूख लगी है कुछ हो तो हमें भी दे दें। तो महाराज रंतिदेव ने वह चावल उस ब्राह्मण को दे दिया। फिर सोचने लगे चलो कुछ नहीं तो पानी सही हम पानी पी कर अपनी भूख शांत कर लेंगे। तभी एक चांडाल अपने कुत्ते के साथ में आया। बोला- महाराज थोड़ा पानी हो तो कृपा करें। मैं भी प्यासा हूं, मेरा यह कुत्ता भी प्यासा है। तो इन्होंने वह पानी उस उन दोनों को पिला दिया। भगवान से प्रार्थना करके रंतिदेव ने एक ही बात मांगी।
न कामेहं गतिमीश्वरात पराम
अष्टर्ध्दियुक्तायपुनर्भवं वा।
आर्तिं प्रपद्येखिलदेहभाजाम् अन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः।।
महाराज मेरे मन में स्वर्ग की कामना नहीं है। वैकुंठ ले करके करूंगा क्या। और भी कोई श्रेष्ठ मोक्ष हो तो मुझे नहीं चाहिए। चाहता हूं; तो केवल एक बात की जितने भी दुखी प्राणी है। मैं उन सब के अंतर हृदय में बैठकर के उनके दु:ख का अनुभव करूं और मेरे पास में जो सुख है वह उनको प्राप्त हो जाए। 

इसके अलावा मेरे मन में कुछ मांगने की कोई कामना नहीं है। क्योंकि मैंने निकटता से लोगों के दु:ख को देखा है। कोई तन से दु:खी है, कोई मन से दु:खी है, कोई धन से दु:खी है। तो कितने भी यह प्राणी हैं, इन समस्त प्राणियों को आनंद मिले, सुख मिले बस मेरी यही कामना है। 

महाराज रंतिदेव के वंश में ही आगे चलकर पुरु वंश की तीन शाखा हो गई। पुरु वंश से कुरु वंश हो गया, इसी में पांचाल शाखा कुरु शाखा और मगध शाखा यह तीन शाखाएं निकली। तो जो पांचाल शाखा है उसमें द्रुपद महाराज का जन्म हुआ। जिनकी बेटी द्रौपदी पांचाल शाखा से ही ये पाञ्चाली कहलाईं। पांचाल कहते हैं पंजाब को। मगध देश में हुए जरासंध आदि राजा और कुरु शाखा में कौरव, पांडव लोग हुए।

अब कहते हैं जो महाराज यदु हैं इनके भी तीन शाखाएं बट गई। तो यदुवंश की जो सही शाखा है वह वसुदेव की शाखा और यदुवंश की दूसरी शाखा है जिसे भोजवंश कहते हैं जिसमें उग्रसेन जी हुए। यदु की एक और शाखा है जिसे विदर्भ शाखा कहते हैं, जिसमें भीष्मक महाराज हुए। कहते हैं महाराज यदु के वंश में बहुत से पीढ़ियां बीतने के बाद एक देवमीढ़ नामक के राजा हुए इन की दो पत्नियां हैं एक से 9 पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से सूर्यसेन। तो यह नौ पुत्र ही नवनंद कहलाए और सूरसेन के बेटा स्वयं वसुदेव जी हुए। कहते हैं यह नवनंद जो हैं यह गोकुल में वास करने लगे और इनका कार्य कृषि प्रधान हुआ। इसलिए लोग इन्हें गोप कहते। जबकि नंद महाराज भी एकदम पक्के यदुवंशी हैं। अब यहां सूर्यसेन महाराज के यहां वसुदेव हुए और वसुदेव जी के यहां हमारे प्रभु भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया। फिर गोकुल में भगवान ने अन्य लीलाएं कि वैसे वसुदेव जी की कई पत्नियां हैं।

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इरा।
देवकी प्रमुखा आसन पत्न्या आनक दुन्दुभी।।
वसुदेव जी का एक नाम आनक दुंदुभी है। इनकी सबसे बड़ी पत्नी पौरवी कहलाती हैं और दूसरी पत्नी रोहणी है पर देवकी प्रमुख हैं। रोहिणी जी के कई पुत्र हैं। 
बलं गदं शारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्।
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत।।

बलराम जी इन के बड़े पुत्र हैं। बाकी गदम सारण आदि कई हैं। पर वसुदेव जी की पत्नी जो देवकी हैं उनके यहां बड़े पुत्र ने जन्म लिया उस बालक का नाम है कीर्तिमान और सातवें पुत्र के रूप में जिसने जन्म लिया उसे कहते हैं भगवान बलराम और सबसे छोटा जो आठवां पुत्र है वह हैं भगवान श्री कृष्ण।

अब हमारे जगदीश्वर श्री कृष्ण ने मथुरा में मामा जी के यहां तो जन्म लिया। गोकुल में आकर पलना झूला, फिर श्रीधाम वृंदावन में गाय चराई। फिर मथुरा जाकर अपने मामा कंस का वध किया और फिर द्वारिका में जाकर विवाह किया। अंत में उद्धव जी को उपदेश देकर अपने स्वभाव चले गए।

इस प्रकार से श्री शुकदेव जी महाराज ने संपूर्ण श्री कृष्ण चरित्र को सुना दिया और शांत होकर बैठ गए। राजा परीक्षित तो शुकदेव जी के चेहरे की ओर देख रहे हैं। बोले- गुरु जी हो गई कथा?.. शुकदेव जी बोले- हां अभी तो सुनाई कृष्ण कथा! अरे महाराज जिस कथा को सुनने के लिए हमने संपूर्ण कथाएं संक्षिप्त में सुनी अब वही कथा सुनने का समय आया तो पहेलियां बुझा कर शांत हो गए।

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