परीक्षित! अब मैं तुम्हें गाधि की पुत्री का वंश सुनाता हूं। कहते हैं- ऋचीक मुनि की पत्नी सत्यवती हैं, तो गाधि ने अपनी पत्नी से कहा- तुम अपनी बेटी से कहो न कि दामाद से कहकर कोई ऐसी दवा हमें दिलवा दे वे, जिससे हमको भी बेटा हो जाये। तो ऋचीक मुनि ने अपनी सासु जी के गर्भ से पुत्र जन्म कराने के लिए एक चरु बनाया। तब सत्यवती ने कहा- एक मेरे लिए भी बना दीजिए। तो ऋचीक मुनि ने दो प्रकार का चरु बनाया। सास है क्षत्रिय वंश की, तो उनके लिए ऐसा चरु बनाया जिससे क्षत्रिय विचार वाला बालक हो, और अपने लिए ब्राह्मण विचार का सौम्य बालक जन्म लेवे, ऐसा चरु बनाया। अब ऋचीक मुनि संध्या वंदन करने चले गए।
तब गाधि की पत्नी ने सोचा इन्होंने अपनी पत्नी के लिए नंबर एक का चरु बनाया होगा। और मेरे लिए दो नंबर का बनाया होगा। सो इन्होंने उस चरु का अदला बदली करली अपना चरु बेटी को खिला दिया और बेटी वाला स्वयं पी गई।
ऋचीक मुनि ने सत्यवती से कहा- देवी! आपकी माता जी ने सब गड़बड़ कर दिया। देखो जैसा तुमको पुत्र होना चाहिए ब्राह्मण स्वभाव वाला वह अब तुम्हारी माता जी को होगा। और क्षत्रिय स्वभाव वाला पुत्र अब तुम्हे होगा। सत्यवती ने कहा- स्वामी मैं क्षत्रिय स्वभाव का पुत्र नहीं चाहती आप इसमें कुछ कीजिए।
तब ऋचीक मुनि बोले- देवी! मैं तो अब बस इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हारा पुत्र तो होगा ब्राह्मण स्वभाव का परंतु जो पौत्र होगा वह क्षत्रिय स्वभाव का होगा। अब राजा गाधि के यहां विश्वामित्र जी का जन्म हुआ। जो क्षत्रिय होते हुए भी बाद में ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लिया। और सत्यवती के यहां हुए जमदग्नि जो पूर्ण रूप से ब्राह्मण स्वभाव वाले थे। जमदग्नि जी का विवाह हुआ, इनकी पत्नी का नाम था रेणुका, इनके यहां चार ब्राह्मण कुमारों ने जन्म लिया। इनमें जो बड़े हैं वही हैं भगवान परशुराम जी महराज। जो बड़े यशस्वी, तेजस्वी, तपस्वी हैं। जमदग्नि जी का जीवन बड़े सात्त्विकता से परिपूर्ण है। इनके हृदय में कभी रजोगुण तमोगुण नहीं आया। लेकिन कभी-कभी किसी व्यक्ति को दण्ड देने के लिए संतों को क्रोध धारण करना पड़ता है। तो वह तमोगुणी क्रोध नहीं है, तमोगुणी क्रोध में तो व्यक्ति का स्वयं अनिष्ट हो जाता है। जहां क्रोध करने पर भी सामने वाले का अनिष्ट नहीं होवे, बल्कि कल्याण हो, समझिए वह सात्विक क्रोध है। यही कारण है कि हमारे ऋषि जन क्रोध कर जिस किसी को भी शाप देते हैं तो उसका कल्याण ही होता है।
तो जमदग्नि जी के यहां गौसेवा की जाती, त्रिकाल संध्या भी करते हैं। और इनकी पत्नी रेणुका पतिव्रता भी हैं, सदाचारिणी हैं। तो एक दिन ये जल लेने के लिए एक सरोवर में गईं, उस सरोवर में एक चित्ररथ नाम का गंधर्व जल विहार कर रहा था। उस चित्ररथ को देख महारानी रेणुका का मन मोहित हो गया।
ध्यान दीजिए! यहां पर उस गन्धर्व को देखकर काम भावना नहीं जागी, या उस गन्धर्व को देख मोहित नहीं हुई। संतों का कहना है कि चित्ररथ का जो विचित्र रथ था उसे देखने में माता जी को देरी हो गई। ये जब देरी से जल लेकर लौटीं तो जमदग्नि मुनि के मन में यह भाव जगा, की शायद इनका मन दूषित हो गया है। जमदग्नि ने अपने पुत्रों से कहा बेटा तुम्हारी माता जी के विचार अच्छे नहीं, मारो इन्हें। परंतु पुत्रों ने यह कार्य करने से मना कर दिया। बोले- हम माता जी का वध नहीं करेंगे।
परन्तु परशुराम जी के लिए पिता आज्ञा सर्वोपरि था। मतलब जो बात पिता ने कह दिया वह बात मानना ही है। देखो आपके भाइयों ने हमारी बात का आदर नहीं किया, तुम्हारी माता ने भी हमारी आज्ञा नहीं मानी इसलिए हम आदेश देते हैं कि अपने भाइयों का वध कर दो। तब परशुराम जी ने तुरत फरसा उठाया और भाइयों का मस्तक काट दिया और साथ ही माताजी को भी मार दिया। जमदग्नि ने तुरत अपने हृदय से पुत्र को लगाया, पुत्र तुमने हमारी बात मानी वरदान माँगलो।
परशुराम बोले- पिताजी आप मेरे भाइयों सहित माताजी को जीवित कर दें और मैंने इनका वध किया यह इनको स्वप्न में भी पता ना चले। परशुराम जी ने अपने भाइयों का वध क्यों किया?.. क्योंकि परशुराम जी जानते थे, पिताजी वरदान मांगने को जरूर कहेंगे, तो मैं इन्हीं से भाइयों और माताजी को जीवित करने का वर मांग लूंगा।
हम लोगों को ऐसी आज्ञा नहीं माननी। आप सोचो की परशुराम जी ने आज्ञा मानी थी, हम भी मानेंगे। अब पिताजी दारू पीकर आवें और कहे बेटा मार अपने भाई को, मार अपनी मां को। अरे साब हम तो पिताजी की बात को मानेंगे।
मात पिता गुरु हित की वाणी।
विनु विचार करिए सब जानी॥
ऐसा कर दिया रामायण की चौपाई पढ़कर तो फांसी हो जाएगी। परशुराम जी के पिता बड़े भारी तपस्वी यशस्वी हैं और हमारे पिता में तो यह सामर्थ्य है ही नहीं तो माता, पिता, गुरु जी की ऐसी आज्ञा नहीं माननी चाहिए कलयुग में।
इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा- मात पिता गुरु हित की वाणी॥ इन्होंने बीच में “हित” शब्द लगाया है; क्योंकि हित की वाणी है तो बिना विचार के ही कर लेना चाहिए। हित अहित की बात तो पशु-पक्षी भी जानते हैं। हित और अहित की भाषा तो पशु-पक्षी भी जानते हैं। तो यहां अब माता भी जीवित हैं, भाई भी जीवित हैं उन्होंने सबको गले से लगा लिया।
आश्रमों में अतिथि को देवता माना जाता है, अब यह बात अलग है कि वह अतिथि राजा है, कि संत है। त्यागी है कि अवधूत है। यानी जो भी अतिथि यहां आता है उसका आदर करते, सम्मान करते। महाराज जमदग्नि के आश्रम में एक बार राजा सहस्त्रार्जुन आए, अब इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से राजा के संपूर्ण सेना सहित उनका स्वागत किया। जलपान आदि कराया राजा सहस्त्रार्जुन ने सोचा की कुटिया में रहने वाले यह बाबाजी इनके पास इतनी शक्ति कहां से हुई?. इतना सामर्थ कहां से, कि मेरी संपूर्ण सेना का इन्होंने स्वागत सत्कार बड़ी सरलता से कर दिया। पता चला यह सब सामर्थ्य गौ माता की है। राजा ने कहा महाराज यह गाए आप हमको दे दो।
गाय के रोम-रोम में देवता वास करते हैं। एक बार लक्ष्मी देवी ने गैया माता से कहा- आप अपने शरीर में हमें भी स्थान दे दीजिए। गाय माता ने कहा- कोई स्थान खाली नहीं है। लक्ष्मी जी बोली- जब तक हमें आपके शरीर में जगह नहीं मिलेगी लोग हमें देवी जी नहीं मानेंगे।
गईया बोली- जगह खाली है ही नहीं तो मैं दूं कहां से, रोम-रोम में तो देवता बैठे हैं।
कोई जगह तो होगी?.. माताजी लक्ष्मी से गौ माता बोली- और तो कोई जगह नहीं है खाली! हां तुम गोबर में रह सकती हो। इस प्रकार से गैया के गोबर में लक्ष्मीजी का वास हुआ और गोमूत्र साक्षात गंगा का रूप माना जाता है। इसलिए हम जब कोई पवित्र काम करते हैं। चाहे यज्ञ है, हवन है तो गाय के गोबर का चौका लगाते हैं पंचगव्य का सेवन यजमान ब्राह्मण सब करते हैं।
पंचगव्य में गाय का गोबर, गोमूत्र, गाय का दूध, गाय का घी और गाय का दही मिश्रित होता है इसलिए उसे पंचगव्य कहा जाता है। तो कहने का तात्पर्य यह है कि गाय के गोबर में भी लक्ष्मी जी वास करती हैं।
राजा ने कहा- बताओ इस गाय के प्रताप से हजारों अतिथियों की सेवा कर की जा सकती है। राजा जबरन जमदग्नि के यहां से गाय को ले गया। परशुराम जी ने पूछा- पिताजी! वह गाय कहां है?.. महात्मा जमदग्नि बोले- बेटा! उसे राजा सहस्त्रबाहु ले गए। हम लोग तो ऋषि ठहरे उनको कुछ कह नहीं पाया, जबरन वह गाय को ले गए।
परशुराम जी ने फरसा उठाया सहस्त्रबाहु के यहां पहुंचे। चलो अब हमारी गाय वापस करो, नहीं तो हम से युद्ध करो। सहस्त्रबाहु राजा ने उनसे विचित्र युद्ध किया, परशुराम जी ने उसकी सभी भुजाएं भी काट दी और उसका भी उद्धार कर दिया और गाय को लेकर आश्रम में आए।
जमदग्नि जी बोले- बेटा! बड़ी खुशी की बात है तुम गाय ले आए, पर कुछ गड़बड़ तो नहीं किया। बोले- पिताजी और तो कुछ नहीं कुछ राजा को ऊपर पहुंचा कर आए। अरे बेटा एक गाय के लिए तुमने एक राजा का वध कर दिया। यह तुमने अच्छा नहीं किया, चलो जाओ चार धाम की पैदल यात्रा करने, पैदल यात्रा करो तीर्थों के रज को माथे से लगाओ क्योंकि राजा को मारना भी गौ हत्या के समान अपराध है। परशुराम जी चार धाम की यात्रा चले गए।
अब यहां राजा के पुत्रों को पता चला कि जमदग्नि अकेले हैं, तो आए और जमदग्नि के सिर को काट कर ले गए। परशुराम जी की माता बड़ी जोर-जोर से विलाप करती हैं। बेटा राम तुम होते तो ऐसा नहीं होता तुम्हारी अनुपस्थिति में ऐसा कार्य हुआ है। 21 बार माता ने अपने वक्षस्थल को पीटा इसलिए परशुराम जी ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया।
सब क्षत्रिय नहीं यह जो हयी-हयी वंश में उत्पन्न हुए थे उन सब क्षत्रियों का उन्होंने 21 बार धरती से विहीन किया। देवताओं ने जब समझाया तब यह माने और सा नंद महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने के लिए चले गए। इस प्रकार श्रीमान परशुराम जी का जीवन वृत्त है।
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