अपने नन्हे भक्त
की शब्द रक्षा करने के लिए ऐसा विचित्र रूप धारण करके आये। न मृगं न मानुषम।
न शेर है न मनुष्य हैं, परन्तु हिरण्यकश्यप से युद्ध तो कर नहीं सकते दिन में,
और करें भी तो मार नहीं सकते, भगवान उसके बल को
बढ़ाने लगे। उसका मन लड़ने को और चेष्टा करे, इधर देवताओं ने भी
प्रभु के उस स्वरूप को देखा, पर डर के मारे सामने कोई नहीं आते।
पर जैसे ही सायं काल का समय हुआ जिसे हम न दिन कहते हैं न रात्रि कहते हैं। लाल पीला
आकाश हो जाता है, जिसे गोधूलि बेला भी कहा जाता है। भगवान ने
वो ही समय देखा तुरंत हिरण्यकश्यप को पकड़ लिया। उसके महल का जो विशाल द्वार है,
उस द्वार के दहलीज में बैठ कर हिरण्यकश्यप को अपनी गोद में लेकर बैठ
गए। भगवान बोले- हिरण्यकश्यप अब हम तुमको मारेंगे।
कैसे मारोगे? हमको
कोई नहीं मार सकता। और सुनिए छोटे मोटे देवता का वर नहीं मिला, हमे तो स्वयं
विधाता ने वर दिया है।
भगवान बोले- अच्छा तो
तुमने जितने वर मांगे थे वह मैने सब पूरे कर दिए। बताओ तो क्या वरदान मांगा था तुमने।
जंघा पर डाल रखे हैं, और प्रभु की जंघा ही आधे आकाश तक पहुंचती
है।
मैंने पहला वरदान
मांगा था न ऊपर मरूं न नीचे मरूं।
अच्छा तो बताओ अभी
तुम कहाँ हो?
मैंने दूसरा भी मांगा
है कि 12 महीने के किसी भी दिन न मरूं।
यह तरवां महीना मैंने
तेरे लिए ही बनाया है। इसका नाम है पुरुषोत्तम मास।
तो मेरा एक वरदान
और था की ब्रह्मा द्वारा बनाए किसी भी जीव से न मरूं।
बेटा तुम जिस ब्रह्मा
की बात कर रहे हो वह भी मुझसे उत्पन्न है। उस ब्रह्मा की आयु दो परार्द्ध है और जब
दो परार्द्ध पूरे होते है तब हमारा सिर्फ पलक झपकते है। इसलिए हम ही ब्रह्मा को बनाते
हैं क्योंकि हम ही नारायण हैं।
कोई बात नही हमने
और भी बहुत से वरदान मांगे हैं हमने मांगा है ना ऊपर मरु न नीचे।
अच्छा तो जरा देखो
इस समय तुम कहाँ हो?
मैं किसी भी अस्त्र
शस्त्र से नहीं मर सकता।
हां इसीलिए हम तुम्हे
अपने नुकीले नाखूनों से मारेंगे। और इस तरह कहते हुए भगवान नृसिंह ने हिरण्यकश्यप के
हृदय को विदीर्ण करते हुए उसके प्राण हर लिए।
भगवान बहुत क्रोधावेश
में हैं, लाल आंखे नाक से गर्म सांसें निकल रही है हांथों में हिरण्यकश्यप का रक्त लगा
हुआ है। यह स्वरूप देख उस स्थान से सभी भागते नजर आए। कोई टिका ही नहीं, देवता भी नजदीक आने से कांपते हैं। सब घबराए अब तो प्रलय होगा मानो,
कुछ नहीं हो सकता अब।
देवता लोग बोले अब
क्या करें प्रभु शांत कैसे हों? बोले ब्रह्मा जी को भेजा जाए वही शांत करेंगे, पर ब्रह्मा
जी भगवान नृसिंह का स्वरूप देख पसीना पसीना हो गए। बोले कोई बात नहीं भगवान शिव जी
तो मना ही लेंगे। शिवजी पधारे पर नंदी ने ज्यों देखा भगवान नृसिंह को शिव जी को लेके
ऐसे भागे के सीधे कैलास धाम में नजर आए। इंद्रदेव बोले अब तो एक ही हैं जो इन्हें शांत
कर सकती है वे है इनकी श्रीमती जी। माता लक्ष्मी जी के पास चलो वही आकर शांत करेंगी।
सभी देवता पहुंचे माता लक्ष्मी जी के पास माता लक्ष्मी की सभी स्तुति करी लक्ष्मी माता
बोली क्या बात आप सभी इतने घबराए हुए क्यों हो।
इंद्रदेव बोले – माता जी
भगवान नारायण ने हिरण्यकश्यप का वध किया है और इस समय वे बड़े क्रोधावेश में किसी का
सामर्थ्य नहीं के उन्हें शांत कर सकें, बस अब आप ही हैं जिन्हें
शांत कर सकती है।
अच्छा स्वामीनारायण
को क्रोध भी आता है, वे तो सदा शांत होते हैं। शान्ताकारम भुजग शयनं कोई बात
नहीं चलिए मैं अभी उन्हें शांत करती हूं। माता लक्ष्मी जी आईं जैसे ही देखा लाल लाल
आंखें बिखरे हुए केश, हाथोंमें लगा रक्त जिसे अपनी जिह्वा से
साफ कर रहे हैं।
अरे ये कौन है कहाँ
ले आये मुझे ये कौन से नारायण है, ऐसा रूप तो मैंने कभी देखा ही नहीं,
ऐसी भागी माता जी के पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।
नारद जी बोले- बड़े भोले
बनते हो आप लोग जड़ को पकड़ते हो डाली पकड़ते हो। अरे जरा यह तो सोचो भगवान नृसिंह बनकर
आये क्यूं?.. प्रहलाद की वजह से। प्रभु को क्रोध किस लिए हो रहा
है, की प्रहलाद कहां है दिखाई नहीं पड़ता उन्हें। सामने जब तक
प्रहलाद नहीं जावेगा भगवान शान्त नहीं होने वाले।
प्रहलादं प्रेषयामास
ब्रह्मावस्थितमन्तिके।
तात प्रशमयोपेहि
स्वपित्रे कुपितं प्रभुम।।
भगवान नृसिंह के सम्मुख प्रह्लाद जी गए, जिन प्रभु को देखकर देवता भयभीत हैं, स्वयं उनकी पत्नी लक्ष्मी भयभीत होकर भाग गईं। पर भगवान के सामने जाकर गजब की स्तुति की प्रह्लाद जी ने-
ब्रह्मादय: सुरगणा मुनयोथ
सिद्धा:, सत्त्वैकतानमतयो वकसां प्रवाहै:।
नाराधितुं पुरुगणैर
धुनापि पिप्रु:, किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्र जाते:।।
प्रभु! मैं तो केवल
आपके श्रीचरणों में प्रणाम करता हूं, इस समय आप उग्र हो रहे हैं। बड़े बड़े देवता भी
आपको शान्त करने में अक्षम हैं। तो फिर मेरी क्या सामर्थ्य की मैं आपकी स्तुति कर सकूं।
यह तो आपकी बड़ी अनुकंपा है, की नन्हे से दैत्य बालक की वाक्य
रक्षा के लिए आप खम्भे में से प्रगट हो गए।
भगवन ब्राह्मण के
अंदर 12 गुण होते हैं, कौन से?..
मन्ये धनाभिजन रूपतप: श्रुतौजस्तेज:
प्रभावबलपौरुषबुद्धियोगा:।
नाराधनाय हि भवन्ति
परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय।।
सम, दम,
तप, स्वाध्याय, अध्ययन,
त्याग, संतोष, तितिक्षा,
प्रज्ञा, विद्या, आत्मज्ञान
और अनसुइया इन 12 गुडों से समन्वित ब्राह्मण को यदि आपके चरणों में प्रीति नहीं होती
तो वह ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं, और निम्न जाति में उत्पन्न यदि
आपके चरणों में अनुराग है तो मेरे समझ में आप उसे जल्दी मिलते हैं।
भगवान बोले- एक बात बताओ
बेटा- मेरी इस लंबी लंबी दाढ़ी को देख कर तुम्हे डर नहीं लगता।
ये जगत विधाता ब्रह्मा देखो डर के कारण कांप रहे है। ये वरुण यम कुबेर सामने नहीं आ
रहे, और तुम मेरे पास में आकर इतनी प्यारी स्तुति करते हो,
डर नहीं लगता तुम्हे।
प्रहलाद बोले- मैं डरता
तो हूं पर आपके रूप से नहीं। तो?.. किससे डरते हो?
त्रस्तोस्म्यहं कृपणवत्सल
दु:सहोग्र संसारचक्रकदनाद ग्रसतां प्रणीत:।
वृद्ध: स्वकर्मभिरुशत्तम
तेsड़्घ्रिमूलं प्रीतोsपवर्गशरण ह्णयसे
कदा नु।।
भगवन बात ये है
कि संसार का जो चक्र है न इस चक्र में पड़ा हुआ प्राणी आपको भूल बैठा है। मुझे तो डर
है कहीं मैं भी इस कर्म बंधन में न बंध जाऊं की आपको हमेशा के लिए भूल जाऊं।
चलती चाकी देखकर
हिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
कौन बच पाता है, लेकिन जिसकी
उपेक्षा आप करदें, आपके द्वारा जो उपेक्षित हो जाते हैं। संसार
उसे अपनावे तो भी उसे कुछ नहीं मिलता और आप जिसको अपनावें सारी दुनिया भी उसकी उपेक्षा
करे तो भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता।
प्रभु! यह जीव मोह
रूपी रात्रि में सोया है, अनंत प्रकार के स्वप्न देखता है।
ये मैं हूँ, ये मेरा है। इस जाल में ऐसा बंधा है, जबकी उस जाल को उसने स्वयं बनाया है, और स्वयं उसमे फंस
गया। दोष देता है कि भगवान ने माया में फंसाया है। यह तो उसके मन का सृजन है, वह स्वयं फंसा है। मैं आपसे सत्य कहता हूं भगवन मेरे मन में और कोई कामना
नहीं।
भगवान बोले- प्रह्लाद
आज तो तुम्हे कुछ मांगना ही पड़ेगा। कुछ तो बोलो की तुम्हे चाहिए क्या??
प्रहलाद बोले- जो चीज मुझे
मिली है वह कम है क्या?
कौन सी चीज मिलगई?
बोले- आपने कभी
अपने पुत्र ब्रह्मा को गोद में बिठाके उनके ठोढ़ी पे हांथ लगाया। शिवजी के सिर पर कभी
हांथ रखा है। नहीं। तो यह तो मुझे मिल गया।
न ब्रह्मणो न तु
भवस्य न वै रमाया। यन्मेsर्पित: शिरसि पद्मकर:
प्रसाद:।।
कहां तो असुरों
के खानदान में जन्म लेने वाला मैं, पातकी तमोगुणी और कहां आपकी दिव्य विशिष्ट अनुकंपा।
जो सुख ब्रह्मा को न मिला, जो सुख शिव जी को नहीं मिला। जो सुख
आपकी धर्मपत्नी लक्ष्मी को भी नहीं मिला। जो आपने अपना वरद हस्त मेरे सिर पर रख दिया।
अब बताइये इससे बड़ी कोई चीज हो तो मैं मागूं। इससे बड़ा कुछ है ही नही तो मैं क्या मांगू।
आप तो करुणा के सागर हैं भगवन! मेरे जैसे अबोध बालक की बाकरक्षा के लिए खम्भे से प्रगट
हो गए क्यो?.. क्योंकि मैंने कहा दिया कि इसमें हैं।
जो भक्त कहता है
आप उसे पूरा करते हैं।
भगवान बोले- तुम्हारी
भावना बहुत ऊंची है बेटा! तुम बड़े सुखी हो।
प्रहलाद बोले- मैं
बिल्कुल सुखी नहीं हूं। सुख काय का भगवन मेरी जैसी खिंचाई हो रही है वह मैं ही
जानता हूँ।
वो कैसे?..
जिह्वैकतोsच्युत
विकर्षति मावि तृप्ता शिश्नोsन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित।
घ्राणोsन्यतश्चपलदृक
क्व च कर्मशक्ति: वह्वय: सपत्नय इव
गेहपतिं लुनन्ति।।
यह जो मेरी दस
इंद्रियां है यह मुझे सब अपनी अपनी ओर खींचती हैं। जिह्वा कहती है, मीठी
चटपटी चीज खाओ, कान कहता है दूसरों की बातें सुनों, त्वचा कहती है बहुत कोमल स्पर्श करो। ये सब इंद्रियां मुझे ऐसे अपनी ओर
खींच रहीं हैं जैसे किसी एक व्यक्ति की 1000 पत्नियां हो जाए और उस बेचारे की
खिंचाई हो अच्छी तरह से।
किसी भगत के दो
पत्नियां थीं, भगवान न देवे ऐसी दो पत्नियां किसी को भी। बहुत पैसे बाला पर
पत्नियां दो। एक दिन इसके यहां एक चोर घुसा चोरी करने। सो महाराज चोर ने कक्ष में चोरी
करना सुरु किया। तभी आवाज सुन चोर वहीं पर्दे के पीछे छिपे गया। एक बोली पैर खींच
कर तुम हमको हार क्यों नहीं लाये। दूसरी ने हाथ पकड़ के खींचा हमको सारी क्यों नहीं
लाये। यह देख चोर बेचारा चोरी करना भूल गया, वहीं से यह सब
तमासा देखने लगा। ऐसा बढियां नाटक और कहीं देखने को कहां मिले। अब यह नाटक जब अपने
चरम सीमा पर पहुंचा तो उसको हंसी आगे। हंसी को रोक बहुत पर रोक न पाया। बस हंस गया,
अब हंसा तो फंसा। तो चोर चोर चोर करके पकड़ लिया। उस चोर को कोतवाल
के सामने ले जाया गया। देखो रात के 12 बजे हैम सरीफों के घर मे घुस के चोरी करता
पकड़ा गया है।
कोतवाल बोला- शर्म
नही आती चोरी करता है ऐसा दंड देंगे कि जीवन भर याद रखोगे। चोर बोला आप जो दंड दें
मुझे मंजूर है, पर वह कभी न चाहूंगा जो दंड इनको मिला हुआ
है। मेरी खिंचाई भी ऐसे ही होगी जैसे ये पत्नियां करतीं है। वह्वय:
सपत्नय इव गेहपतिं लुनन्ति।। प्रहलाद जी
कहते है- मेरी ऐसी ही खिंचाई हो रही है भगवन।
भगवान बोले- यह तो
संसार का सुख है पुत्र, इसे भोगने में आपत्ति क्या है। अरे
कुछ दिन रहकर इसे भी भोग लो।
प्रहलाद बोले- प्रभु
यह आप क्या कहते हैं संसार का यह सुख अच्छा थोड़ी ही है।
यन्मैथुनादि गृहमेधिसुखं
हि तुच्छं। कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम।।
जिसको खुजली
होती है न वह उसे खुजाता है और जितने जोर से खुजाता है उतना ही अच्छा लगता है। पर
परिणाम क्या होता है। उससे रक्त बहने लगता है। ऐसे ही इस संसार को भोगने में जीव
जब इंद्रियों को खुला छोड़ देता है, और यह तृप्त तो कभी होती हैं नहीं, उत्तरोत्तर और यह उनमें लिप्त होती जाती हैं। इसलिए मैं तो आपके श्री
चरणों में प्रीति करना चाहता हूँ।
भगवन! आप मुझे
मिल गए और मुझे क्या चाहिए। भगवान ने प्रहलाद को उठाकर गले से लगाया। जिस प्रकार
गाय अपने वत्स को जीभ से चाटती है वैसे ही भगवान प्रह्लाद को अपनी जीभ से चांटने
लगे। सिंहरूप में हैं ना इसलिए और उनके वात्सल्य का यही प्रतीक है की वो अपने वत्स
को चाटते है। भगवान मुस्कुरा कर बोले- कुछ मागो बेटा।
प्रह्लाद बोले – मांगू
भगवन।
हां मांगो…
ब्रह्मा की ओर
टेढ़ी नजर से देखा गुस्सा आरही थी वरदान इसी ने दिया था। भगवान बोले – कहो
तुम्हे ब्रह्मा की पदवी चाहिए? वरुण यम
कुबेर का स्थान चाहिए तुम्हे मिलेगा। सब देवता घवराएँ कहीँ हमारी पदवी न मांग ले। भगवान
बोले मांगो…
प्रह्लाद बोले-
या मां प्रलोभयोत्पत्त्याsअ्स्क्तं
कामेषु तैर्वरै:।
यह प्रलोभन मुझे
मत दिखाइए,
लोभ दिखाने की जरूरत नहीं है। मुझ जैसे भोला भाला संसार का प्राणी,
आपकी स्तुति करता है और आप कहते हैं मांगो। अब जीव की जितनी मती है
वह उतना ही तो मांगेगा। जब संसार की कोई चीज जब वह मांगता है तो कहते हैं बढियां
हुआ मेरा पीछा छूटा।
योग चहे तो योग
दे टारूं, भोग चहे तो भोग दे डारूँ।
मुक्ति चहे तो
मुक्ति दे डारूँ, पर भगत तो लेन न देन करे कछु वाकू न टारो
जाय।।
हमें कुछ नहीं
चाहिए।
भगवान बोले- बेटा
तुम्हारी भक्ति के बदले देने को मेरे पे है ही क्या? अरे भक्तों का तो मैं ऋणी हूं।
फिर भी मेरा मन कहता है कि तुम कुछ मांगो बस एक बार कहो। सत्य कहता हूं जो मांगोगे
सो दूंगा।
प्रहलाद बोले- तो जो मागूंगा
वह मिलेगा। भगवान बोले- कहो तो क्या चाहिए।
प्रह्लाद बोले- लाओ पहले
तीन वचन दो।
भगवान ने प्रह्लाद
के हांथ में हांथ रख बोले- जो मांगोगे सो देंगे देंगे देंगे। अब देवता
फिर घबराए पता नहीं क्या मांगेगा।
प्रहलाद बोले- यदि आप मुझे
कुछ देना चाहते हो तो केवल यही वर दो की जीवन पर्यन्त मेरे मन में आपसे कभी कुछ मांगने
की इच्छा ही पैदा न हो। सम्पूर्ण जीवन में मैं कभी कुछ आपसे न मांगू। सिवाय आपके कोई
चीज प्राप्त करने की इच्छा ही न हो।
भगवान ने प्रहलाद
को फिर हृदय से लगाया। बेटा! बहुत महान हो तुम।
प्रहलाद बोले- बस एक बात
कहना भूल गया मेरे पिता है न इन्होंने आपकी स्तुति कभी नहीं कि। पिता ने आपकी निंदा
भी की आपके ऐश्वर्य को वे जानते नहीं हैं मेरे पिता की कहीं दुर्गति न हो जाए,
इतना जरूर चाहता हूं।
भगवान बोले- पागल क्या
कहता है?
त्रि: सप्तभि:
पिता पूत: पितृभि: सह तेनद्य।
यत साधोsस्य गृहे जातोभवान्वै कुलपावन:।।
प्रहलाद! जिस खानदान
में तुम्हारे जैसे बालक जन्म लेते हैं, उसकी तो 21 पीढ़ी तर जाती है। इस पिता के बारे
में तुम चिंता न करो। आओ इस राज गद्दी पर बैठकर इसे सम्हालो।
न न मैं गद्दी पर
नहीं बैठूंगा। भगवान बोले- क्यों?
मेरे पिता जी इस
गद्दी पर बैठकर आपको दुर्वचन कहते थे कहीं मेरी मति भी ऐसी हो गई तो? पुत्र अब यह तुम्हारे पिता की गद्दी नहीं मेरा प्रसाद
है। प्रहलाद को राज्याभिषिक्त किया भगवान ने और नारायण रूप का दर्शन देकर अंतर्धान
हो गए।
यहां लक्ष्मी जी
की शांसे बड़ी तेज चल रही थीं। भगवान को देखते ही बोली- पतिदेव पधारिये।
देखिए देवता लोग हमारे पास आये और बोले- भगवान को बड़ा कोप आया
है चलिए चलके शांत करिये। और कोई बब्बर शेर के सामने लेजके हमको खड़ा कर दिया।
भगवान मुस्कुराते
हुए बोले- देवि! वह नृसिंह मैं ही तो था। आप थे? वो लम्बी लम्बी दाढ़ी, वो मोटे बड़े दांत। भगवान बोले हां देवि वह मेरा ही एक स्वरूप था। असल में नृसिंह
हम क्यों बने जानती हो।
एक बार भगवान के
चरण दबा रहीं थी माता लक्ष्मी। अब प्रभु तो बड़े कोमल हैं, सो बोले
देवी थोड़ा धीमे धीमे दबाओ। लक्ष्मीजी ने धीमे धीमे दबाना प्रारम्भ किया। ओहो और धीरे
दबाओ। लक्ष्मी जी ने पैर और धीरे दबाया। बोले और धीरे।
लक्ष्मी जी बोली- और कितना
धीरे दबाउं सोचने लगीं कितने कोमल है मेरे स्वामी तो अपने हांथों को हटाया अब कमल पुष्प
को पैरों में स्पर्श करने लगीं। इतने कोमल हैं भगवान और सोचने लगीं। कमल जैसे कोमल
मेरे हांथ का आघात भी प्रभु सहन नही कर पा रहे, तो ये बड़े बड़े
राक्षसों को मारते कैसे होंगे?..
भगवान बोले- देवी आपके
मन में यही शंका थी न बोलीं हां प्रभु! उसी को पूर्ण करने के लिए मैं नृसिंह का रूप
धारण किया। कोमल तो मैं इतना हूं कि तुम्हारे हस्तकमल का आघात भी मुझसे सहन नहीं होता
और कठोर इतना हूं कि देखते ही तीन पटकनी तो आपको ही लग गई।
लक्ष्मी जी बोलीं
हांथ जोड़ के कहती हूं। जीवन में ये रूप दुबारा न दिखाना। इस प्रकार प्रह्लाद जी के
चरित्र का संक्षिप्त वर्णन नारद जी ने युधिष्ठिर को सुनाया।
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