मंगलवार, 16 नवंबर 2021

सनातन धर्म का स्वरूप 69

शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अब युधिष्ठिर ने नारद जी से पूछा, अब आप हमें सनातन धर्म का निरूपण करके बताइये कि सनातन धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है?

नारद जी बोले- राजन! धर्म मूलं हि भगवान सर्वं वेद मयो हरि:।।

सनातन धर्म का जो मूल है वह हैं भगवान नारायण! जो देवताओं में व्याप्त हैं और सब में वे रहते हैं। सनातन धर्म में भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रीति की बात कही गई है। ऐसा करने से जीवात्मा को आत्मिक आनंद मिलता है।

सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः। अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम।।

यही सनातन धर्म का स्वरूप है। सत्य बोलना, जीवों के प्रति दया की भावना, शांति रखना, शौच याने पवित्रता। पवित्रता दो प्रकार की होती है। एक अंदर की एक बाहर की, तो अंदर की पवित्रता होती है सत्संग, कीर्तन भजन से। बाहरी पवित्रता जल स्नान आदि से होती है।

तितिक्षु बनना, मतलब हम दुःखी है तो क्या करे रोएं? किसी ने कहा है- कर्म करे का दंड है, सब काहू को होय। ज्ञानी काटे ज्ञान से पापी काटे रोय।।

यानी कर्म का जो दंड है वह सब भोगते हैं, लेकिन ज्ञानी लोग अपने ज्ञान से उसको काट लेते हैं। जो अज्ञानी लोग है वो सिर पीट पीट कर रोकर निकालते हैं।

तितिक्षा मतलब?.. बड़े से बड़े कष्ट को सहन की इच्छा, शहन शक्ति का आना, और शम-दम! शम कहते हैं प्रसमन को और दम कहते दमन करने को, तो इस प्रकार से शांति को स्थापित करके इंद्रियों का दमन करना।

अब अहिंसा ब्रह्मचर्यं च किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करने को अहिंसा कहते हैं और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। एक ब्रह्मचर्य तो नैष्ठिक होता है, जो नैष्ठिक ब्रह्मचारी है वह स्वप्न में भी स्त्री का स्पर्श नहीं करते। जैसे नारद जी हैं सनकादिक हैं। पर जिसने गृहस्थ आश्रम स्वीकार कर लिया, वह एक पत्नी व्रत धारण करे। यह भी एक प्रकार से ब्रह्मचर्य ही माना जाता है। तो एक पत्नी का व्रत जीवन में धारण करे यह भी ब्रह्मचारी का स्वरूप है। जैसे भगवान श्रीराम को ब्रह्मचारी कहा गया है। इस प्रकार से गृहस्थ बनना और त्यागी बनना। मतलब जो व्यक्ति जितना त्याग करते हैं लक्ष्मी उतना उनके पास पहुंचती हैं। स्वाध्याय तुलसीदास जी ने कहा है, शास्त्र सुनिश्चित पुनि पुनि देखी। शास्त्रों को चिंतन के द्वारा बार बार देखते रहना चाहिए। स्वाध्याय का मतलब धर्म ग्रंथों अध्ययन करना।

अब संतोष: समदृक सेवा ग्राम्ये हो परम शनै। संतोषी बनना और समदृक सेवा मतलब समान भाव से सब की सेवा करना। जहां वास्तव में जरूरत है वहां दान करना, चाहे वह कोई भी हो। यह सनातन धर्म का स्वरूप है। मौन धारण करना, कम बोलना और आत्मा का दर्शन करना। याने आत्मचिंतन में समय व्यतीत करना।

अनुभूति तीन प्रकार की होती है, एक है स्वस्वरूपानुभूति, दूसरी है परस्वरूपानुभूति, और तीसरी है परमात्मस्वरूपानुभूति यानी मैं वास्तव में मैं क्या हूं यह सोचना, आपका स्वरूप क्या है, और मेरा आपका संबंध क्या है। आपसे हमसे परमात्म तत्व क्या है यह सोचना फिर तीनों का समन्वय कर देना। फिर- श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते। समय निकालकर प्रभु की कथा का श्रवण करना चाहिए। नाम कीर्तन करना चाहिए और जो महापुरुष हैं उनकी सेवा करना चाहिए। उनके प्रति गुरुता का भाव रखते हुए सेवा करना चाहिए। यही मनुष्य का परम धर्म है, जो तुमको मैन वर्णन करके बताया। यदि व्यक्ति इसको अपने जीवन में धारण करता है। तो दुःख नाम की चीज उसको स्वप्न में भी दिखाई नहीं देगी। अंत में उसे परमात्मा का दर्शन हुए बिना नहीं रह सकता।

युधिष्ठिर जी बोले- महाराज! यह वर्णाश्रमधर्म क्या है?.. इसके बारे में कुछ बताइये।

नारद जी कहते है वर्णाश्रम हमारे यहां चार प्रकार के हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास ये चार आश्रम हैं।

ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् ब्रह्मचर्य की अवस्था में व्यक्ति को गुरुकुल में रहना चाहिए, और अपने गुरुदेव के लिए ही परिश्रम करना चाहिए।  गुरु के प्रति दासत्व का भाव हो, सायं प्रातरूपासीत। सायं काल प्रातः काल में भी भगवान का चिंतन करते हुए संध्या वन्दन करें। यानी ब्रह्मचारी को दो समय की संध्या अनिवार्य होती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में कौपीन पहनकर मूज धारण करें और भिक्षा का अन्न जो लेकर के आवे वह पहले गुरु की शरण में समर्पित करे फिर गुरुजी जो कहे वैसा कार्य करें। ब्रह्मचारी को सुसील होना चाहिए। यानी उत्तेजना कभी जीवन में आने नहीं देना चाहिए और थोड़ा भोजन करे।

काक चेस्टा वको ध्यानं स्वान निद्रा तथैव च। ब्रह्चारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणं।।

विद्यार्थी को इन पांच चीजों पर ध्यान देना चाहिए। केशप्रसाधनोन्मर्दं ब्रह्मचारी को कभी भी जुल्फें नहीं काढनी चाहिए। बढियां सुगंधित तेल नहीं लगाना चाहिए। ये सब नियम है। गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा। नन्वग्नि प्रमदा नाम धृतकुम्भसमः पुमान।। यदि गुरु की पत्नी भी युवती हो तो उसके साथ एकांत में नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि जो युवा स्त्री है वह अग्नि के समान होती है और युवा पुरुष घृत के भरे घड़े के समान है। इसलिए ब्रह्मचारी को स्त्री संग कभी नहीं करना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा समय अपने अध्ययन में व्यतीत करे। जब गुरुजी कहें तब वह अपने घर जाकर गृहस्थ जीवन को अपनावे।

अब गृहस्थियों के नियम क्या हैं?..

गृहस्थियों का पहला नियम तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा धन कमावे, लेकिन धन कमाते समय इस बात का ध्यान रखे कि हमारे धन कमाने से किसी को कष्ट तो नहीं होता। तो किसी को तकलीफ देकर धन एकत्रित करने की चेष्टा न करें। जो धन कमावे उसको कई भागों में बांटे। एक भाग धर्म के लिए एक भाग समाज के लिए एक भाग जमा करे, एक भाग परिवार के लिए। अतिथि की सेवा करे, मानो की अतिथि हमारे घर आया है और घर में बिल्कुल भी व्यवस्था नहीं है तो अतिथि सेवा कैसे करें?

है तो कुर्सी में बिठाएं नहीं है तो चटाई में बैठाएं। पानी देकर अतिथि का सम्मान करें। यदि पानी भी नहीं है पिलाने को, यदि जमीन नहीं बैठाने को पानी नहीं पिलाने को तो अपनी वाणी तो है। कई लोग होते हैं जो अतिथि को डांट के भगा देते हैं, पर नहीं उसे पवित्र वाणी से बोलें। की आप हमारे घर आये हमें बहुत बड़ी प्रसन्नता हुई, पर क्षमा करें मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता। यानी विनम्रता पूर्ण वाणी से अपनी असमर्थता सिद्ध कर देना भी अतिथि का सत्कार है। इसे अपमान नहीं कहा जाता। तो अतिथि सेवा भी गृहस्थ आश्रम का परम कर्तव्य है। और क्या करें? 

वानप्रस्थ आश्रम

मन राखो जहां कृपानिधाना।

अब 50 के ऊपर जब हो जाएं तो व्यक्ति को घर छोड़ देना चाहिए। वन चले जाना चाहिए, हमने अपने गुरुजी से पूछा- गुरुजी पहले तो लोग जब वानप्रस्थ होते थे तो वन में उन्हें फल मिले खाने के लिए पर आज कल व्यक्ति वन में जाय तो भूखा ही मर जाए। तो गुरुजी बोले आजकल वन में जाने का मतलब है- वनं वृन्दावनं नाम वसव्यं नव कननं। आजकल जब 51वां वर्ष शुरू हो जाए तो सब छोड़कर वृंदावन आजाना चाहिए। बस यहां एक कुटिया बना ले और उसी में एकांत वास करें। जगह जगह सत्संग होवे कथा होवे उसको श्रवण करें। लेकिन वानप्रस्थ का नियम है ऐसा की उसे अग्नि में बिना पकाएं अन्न खाना चाहिए। जब माघ का महीना आवे तो जमुना जी में गले से खड़े होकर भजन करे। वैसाख ज्येष्ठ का महीना आवे तो पंचाग्नि तापे यह नियम है। ज्यादा से ज्यादा शरीर को कष्ट देवे और आत्म चिंतन करे। वानप्रस्थ में सपत्नीक जाने का विधान है।

वानप्रस्थ जब पूरा हो जाए तो पत्नी से भी ममता को त्याग दे और सन्यास धारण करे। ये जो दंडी स्वामी होते हैं न ये पक्के सन्यासी होते हैं। दंडी स्वामी सिर्फ ब्राह्मण होते हैं। ब्राह्मण को एक और नियम है कि ब्राह्मण बालक ब्रह्मचर्य का पालन करके सीधे सन्यास ले सकता है। मतलब गृहस्थ वानप्रस्थ हुए बिना वह सन्यासी हो सकता है। पर क्षत्रिय और वैश्य को गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ और उसके बाद सन्यास में प्रवेश मिलता है।

अब सन्यासी के नियम क्या है? तो सन्यासी का पहला नियम है कि उसको आश्रम नही बनाना है, बिल्कुल पेड़ के नीचे रहे। करपात्र ऊदरझोली मतलब हाथ में लेवे और पेट में रख लेवे। जो वस्त्र वह पहने उसके सिवा किसी अन्य वस्तु का संग्रह नही कर। दूसरा नियम यह है कि सन्यासी को शिष्य नहीं बनाना है, कभी किसी शास्त्र के अध्ययन में समय नष्ट नहीं करना है। केवल ब्रह्म चिंतन और पांच घरों में भिक्षा इन नियमों का पालन बड़े श्रद्धा से करे। सन्यासी को न तो किसी की निंदा करनी चाहिए और न ही सुने और किसी की स्तुति भी न करे।

शुकदेवजी कहते है राजन इस प्रकार से नारद जी ने युधिष्ठिर जी को सूक्ष्म गीता ज्ञान का उपदेश दिया। शुकदेवजी जी ने आगे त्रिपुर दहन की कथा भी सुनाई। त्रिपुर नाम एक राजा था उसके पास एक अमृतकुण्ड था, एक समय जब भगवान शिव दैत्यों के वध करें तो वह उन्हें लाकर उस कुंड में डुबोकर जीवित कर देता था तब भगवान विष्णु गाय बनकर आये और उस कुंड का सारा अमृत पी गए तब शिव जी ने उस त्रिपुर का भी उद्धार कर दिया जिससे शिवजी का एक नाम त्रिपुरारी भी हुआ। यह सब प्रसंग बताकर सातवां स्कंध को विराम देते हैं। अब अष्टम स्कंध में प्रवेश करते है। 

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