शनिवार, 13 नवंबर 2021

प्रहलाद जी का उपदेश 67

संसार के लोगों से हम सच्चा प्रेम करते हैं क्या?.. भरोसा है कि वो सच्चा प्रेम करते हों! लेकिन एक बार प्रभु से प्रेम करके देखो। वो तो बस हांथ फैलाए खड़े हैं।

जो तू आवे एक पग मैं आऊं पग सात। जो तू कर्र्यो काठ सो मैं लोहे की लात।।

एक पग भी यदि जीव मेरी ओर बढ़ाता है तो मैं सात पग आगे चलके गले लगाने को राजी हूं। दृण प्रतिज्ञा यदि तुम लकड़ी के समान करते हो तो मैं उससे भी बड़ी प्रतिज्ञा करता हूँ। लेकिन वो आवे तो सही, जीव केवल संबंध जोड़े, निभाने की जिम्मेदारी परमात्मा जी है, और यदि संसार से हम संबंध जोड़ते हैं तो वह निभा पाएगा कि नहीं, यह कोई नहीं जानता।

प्रह्लाद जी कहते मित्रो! हमने अपना बचपन खेल कूद क्रीड़ा में गवां दिया। किशोरावस्था अध्ययन में, जब विवाह हुआ तो श्रीमती जी के मुखारविंद से जो शब्द निकलते हैं, वो तो बस वेद मंत्र के समान लगते है। उनको छोड़कर जाने का मन ही नही करता। वृद्धावस्था आती है, हाथ काम नहीं करता। आंख से दिखाई नही देता, कान से सुनाई नहीं देता। बत्तीसों दांत निकल कर बाहर आ गए। भजन क्या खाक करोगे। इसलिए बचपन से ही कृष्ण कीर्तन करो।

बच्चे बोले- पर यह शिक्षा तो गुरुजी ने हमें कभी नही दी, हमारे बराबर के तुम हो, साथ में पढ़ते हो। फिर तुम यह सीखकर आये कहाँ से।

प्रह्लाद बोले मैंने इन गुरुजी से थोड़ी न सीखी है यह विद्या, मेरे गुरु तो देवऋषि नारद जी हैं। नारद जी ने ही मुझे यह सब ज्ञान दिया है।

प्रहलाद जी की बात सुनके बच्चे बड़े आनंदित हुए। एक बात है प्रह्लाद अब हम चाहते हैं कि भगवान का कीर्तन करें उनका भजन करें। एक बात बताओ ये मिलते कैसे हैं?.. भैया हम तो असुर हैं, हमारा भोजन बढियां नहीं, पवित्रता हम में है नहीं, तो हमे कैसे मिलेंगे?..

नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजा:। प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता।। 51/7

भगवान को प्रसन्न करने के लिए किसी व्यक्ति विशेष ब्राह्मण देवता या ऋषियों में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं।

न दानं न तपो नेज्या न शौचं न वृत्तानि च। प्रीतयेमलया भक्त्या हरिरन्यद विडम्बनम।।

भगवान ने तो दान करने से नहीं मिलते, न ही तप करने से, शुद्धता से और न व्रतादि करने से मिलते। परमात्मा की प्राप्ति का एक साधन है, वह है अमल भक्ति, विशुद्ध भावात्मिका भक्ति और जब तक इस भक्ति का प्रादुर्भाव इस अन्तर्हृदय में नही होगा तब तक भगवान का मिलना बिल्कुल संभव नहीं।

ये अमल भक्ति क्या है?..

निष्काम भक्ति को ही अमल भक्ति कहते हैं। जिसको गीता में भगवान ने परा भक्ति बताया है। ब्रह्म भूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते परम।।

वह परा भक्ति है और यही परा भक्ति रासपंचाध्यायी सुनने से भी मिलती है। तो भगवान की जो परा भक्ति है उसे ही हम निष्काम प्रीति कहते हैं। या अमल भक्ति कहते हैं। जहां मुक्ति की कामना भी मन में न आवे, उसे कहते हैं अमल भक्ति। भगवान इसी अमल भक्ति से प्राप्त होते हैं।

बच्चे बोले- तो ठीक है हम ने तुमसे बहुत सत्संग किया, अब कुछ खेलने की इच्छा हो रही है। प्रहलाद बोले- खेलो मैं मना नहीं करता, पर आज वो खेलो जिसको मैं कहूँ, कौन सा?..

बोले आज हरि संकीर्तन नाम का खेल खेलेंगे। बच्चे बोले- नहीं भैया! इस बात की खबर तुम्हारे पिता को हो गई तो हम बेमौत मारे जाएंगे।

बस दर गए?..

इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण तो मैं हूँ। मुझे मारने का कितना प्रयास किया उन्होंने, पर मेरा बाल भी बांका नहीं हुआ। प्रभु के चरणों में विश्वास करने वालों को वे कभी भी संकट में पड़ने नहीं देते। इस तरह उन बच्चों की मति को भक्तिपूर्ण बनाया प्रहलाद जी ने, और सब बालक कीर्तन में तल्लीन हो गए। प्रहलाद बीच में हैं, चारो तरफ हजारो असुर बालक।

आइए हम आप भी इस संकीर्तन में सम्मिलित हों-

श्रीमन्नरायण नारायण हरी हरी।     भजमन्नारायण नारायण हरि हरि।

तेरी लीला सबसे न्यारी न्यारी।।     तेरी महिमा सबसे न्यारी न्यारी हरि हरि।

श्रीमन्नरायण नारायण हरि हरि      श्रीमन्नरायण नारायण हरि हरि।

ॐ नारायण नारायण हरि हरि।

बोलो नारायण नारायण हरि हरि।

बद्रीनारायण नारायण हरि हरि।

सत्यनारायण नारायण नारायण।

रामनारायण नारायण नारायण।

लक्ष्मीनारायण नारायण हरि हरि।

इतनी जोर से संकीर्तन हुआ की गुरुदेव को समाचार मिला, गुरुजी ने अपने सेवकों को भेजा। अब जो भी प्रहलाद को मना करने आए, प्रहलाद को छूते ही ऐसा आकर्षण होवे की वे भी संकीर्तन करने लगे, नाचने लगे। अब सण्ड अमर्क दोनों पहुंचे प्रहलाद को मना करने, स्पर्श किया तो वे भी नाचने लगे। इतनी जोर का संकीर्तन हुआ। कीर्तन में बड़ा प्रभाव है, भगवान के कीर्तन नाम से बढ़कर कोई दूसरी गति है ही नहीं। हिरण्यकश्यपु शयन कर रहा था, जोर से कीर्तन को सुना, बोला- ये कहाँ हो रहा है?

बोले- महाराज आपके विद्यालय में,

कौन है?

आपके सुपुत्र प्रहलाद जी करा रहे हैं संकीर्तन महाराज।

दौड़ा दौड़ा हिरण्यकश्यप विद्यालय पहुंचा, आज प्रहलाद को हमसे कोई बचा नहीं सकता। इसमें गुरु पुत्रों का कोई दोष नहीं, यह विद्या तो उसने पेट में ही सीखा है। हिरण्यकश्यप ने देखा प्रहलाद की मण्डली में सबसे पहले गुरुजी ही नाचते दिखाई दिए। सैनिकों से बोला- ये बीच में चोटी वाला कौन है?

सैनिक बोले- गुरुजी हैं महाराज!

यहां अगर हिरण्यकश्यप भी प्रहलाद का स्पर्श करता तो बिना नाचे नहीं रहता। पर उसने इतनी जोर से आवाज लगाई। ये क्या हो रहा है। बस शांत हो गए सब के सब। तब दौड़कर हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को पकड़ लिया, बार बार तुझे मैन समझाया पर तेरी समझ में नहीं आया।

हे दुर्विनीत मन्दात्मन्कुलभेदकराधम।

स्तब्धं मच्छासनोध्दूतं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम।।

अरे दुर्विनीत मन्द बुद्धि बाल दुष्ट बार बार मैंने तुमको समझाने की चेष्टा की, लेकिन तुमने मेरी बात का आदर नहीं किया। आज यमराज के पास पहुंचने से तुमको कोई रोक नहीं सकता।

मैं जिस समय क्रोध करता हूं तो तूनों लोक कंपित हो जाते हैं और ये नन्हा सा बालक मेरी बात नहीं सुनता। तुम्हे ऐसा करने का सामर्थ्य दिया किसने, तुमको ये बड़बोला बनाया किसने, आखिर ये शक्ति तुम्हे देता कौन है?

प्रहलाद जी बोले- पिता जी वो केवल हमको नहीं देता।

तो?..

न केवलं मे भवतश्च राजन, स वै बलं बलिनां चापरेषाम।

परेsवरेsमी स्थिरजङ्गमा ये, ब्रह्मादयो येन वशं प्राणीता:।।

ऐसा कौन है संसार में जिसको वो शक्ति नहीं देता। सबको सामर्थ वही प्रदान करते हैं। इसलिए उनकी शक्ति ही मुझमे है, और उनका नाम ही नारायण है।

फिर वही नारायण, फिर उस नारायण का नाम। जानते हो मैंने तीनों लोक जीत लिए।

पर पिता जी। आपने चाहे चौदह लोक जीते हों पर जिसने अपने मन के शत्रुओं को नहीं जीता वह तो परास्त ही है। अविद्या, अश्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश, अहंमता, ममता इन सात शत्रुओं पर विजय जिसने नहीं पाई, अपने मन के क्रोध को जिसने नहीं जीता वह त्रिलोकी को भी जीत ले तो भी परास्त है।

अच्छा तो ऐसा है। तुमसे तो बात बाद में करूँगा, पहले तुम्हारे नारायण से मिलूं कहां है वह नारायण।

पिता जी आप यह पूछिये की वह कहां नहीं है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म वह नारायण तो हर जगह विद्यमान है।

अच्छा तुम कहते हो तुम्हारा नारायण सब जगह है, तो क्या इस खम्भे में क्यूं नहीं है?कस्मात स्तम्भे न दृश्यते। वह दिखाई क्यूं नहीं दे रहा।

प्रहलाद बोले- दृश्यते पर मुझे तो दिखाई दे रहे हैं। आपके आंखों में काला पर्दा पड़ा है तो इसमें मेरा क्या दोष।

अच्छा तो खम्भे में भी है।

बोले हां जी।

तो क्रोध करके उस स्तंभ में गदा का एक प्रहार किया। तब प्रहलाद ने कान लगाकर ध्यान दिया तो गुर्र गुर्र की आवाज आ रही थी। बेटा डरना नहीं मैं भीतर ही हूं।

हमारे अंदर विश्वास है तो प्रभु खम्भे में भी हैं और विश्वास नहीं तो वे मंदिर में भी नहीं। जब दूसरा प्रहार उसने किया तो बीच में से खम्भा फोड़कर भगवान नृसिंह प्रगट हो गए।

यहां पर शुकदेवजी गदगद हो गए और परीक्षित से बोले- एक बार आंखे बंद करो राजन! और इस दिव्य झांकी को अपने हृदय में उतारने की चेष्टा करो।

स सत्त्वमेनं परितोsपि पश्यन, स्तम्भस्य मध्यादनु निर्जिहानम।

नायं मृगो नापि नरो विचित्र-

महो किमेतन्नृमृगेन्द्ररूपम।।

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं, व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मन:।

अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन, स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम।। 

अपने नन्हे भक्त की शब्द रक्षा करने के लिए ऐसा विचित्र रूप धारण करके आये। न मृगं न मानुषम। न शेर है न मनुष्य हैं, परन्तु हिरण्यकश्यप से युद्ध तो कर नहीं सकते दिन में, और करें भी तो मार नहीं सकते, भगवान उसके बल को बढ़ाने लगे। उसका मन लड़ने को और चेष्टा करे, इधर देवताओं ने भी प्रभु के उस स्वरूप को देखा, पर डर के मारे सामने कोई नहीं आते। पर जैसे ही सायं काल का समय हुआ जिसे हम न दिन कहते हैं न रात्रि कहते हैं। लाल पीला आकाश हो जाता है, जिसे गोधूलि बेला भी कहा जाता है। भगवान ने वो ही समय देखा तुरंत हिरण्यकश्यप को पकड़ लिया। उसके महल का जो विशाल द्वार है, उस द्वार के दहलीज में बैठ कर हिरण्यकश्यप को अपनी गोद में लेकर बैठ गए। भगवान बोले- हिरण्यकश्यप अब हम तुमको मारेंगे।

कैसे मारोगे? हमको कोई नहीं मार सकता। और सुनिए छोटे मोटे देवता का वर नहीं मिला, हमे तो स्वयं विधाता ने वर दिया है।

भगवान बोले- अच्छा तो तुमने जितने वर मांगे थे वह मैने सब पूरे कर दिए। बताओ तो क्या वरदान मांगा था तुमने। जंघा पर डाल रखे हैं, और प्रभु की जंघा ही आधे आकाश तक पहुंचती है।

मैंने पहला वरदान मांगा था न ऊपर मरूं न नीचे मरूं।

अच्छा तो बताओ अभी तुम कहाँ हो?

मैंने दूसरा भी मांगा है कि 12 महीने के किसी भी दिन न मरूं।

यह तरवां महीना मैंने तेरे लिए ही बनाया है। इसका नाम है पुरुषोत्तम मास।

तो मेरा एक वरदान और था की ब्रह्मा द्वारा बनाए किसी भी जीव से न मरूं।

बेटा तुम जिस ब्रह्मा की बात कर रहे हो वह भी मुझसे उत्पन्न है। उस ब्रह्मा की आयु दो परार्द्ध है और जब दो परार्द्ध पूरे होते है तब हमारा सिर्फ पलक झपकते है। इसलिए हम ही ब्रह्मा को बनाते हैं क्योंकि हम ही नारायण हैं।

कोई बात नही हमने और भी बहुत से वरदान मांगे हैं हमने मांगा है ना ऊपर मरु न नीचे।

अच्छा तो जरा देखो इस समय तुम कहाँ हो?

मैं किसी भी अस्त्र शस्त्र से नहीं मर सकता।

हां इसीलिए हम तुम्हे अपने नुकीले नाखूनों से मारेंगे। और इस तरह कहते हुए भगवान नृसिंह ने हिरण्यकश्यप के हृदय को विदीर्ण करते हुए उसके प्राण हर लिए।

भगवान बहुत क्रोधावेश में हैं, लाल आंखे नाक से गर्म सांसें निकल रही है हांथों में हिरण्यकश्यप का रक्त लगा हुआ है। यह स्वरूप देख उस स्थान से सभी भागते नजर आए। कोई टिका ही नहीं, देवता भी नजदीक आने से कांपते हैं। सब घबराए अब तो प्रलय होगा मानो, कुछ नहीं हो सकता अब।  

देवता लोग बोले अब क्या करें प्रभु शांत कैसे हों? बोले ब्रह्मा जी को भेजा जाए वही शांत करेंगे, पर ब्रह्मा जी भगवान नृसिंह का स्वरूप देख पसीना पसीना हो गए। बोले कोई बात नहीं भगवान शिव जी तो मना ही लेंगे। शिवजी पधारे पर नंदी ने ज्यों देखा भगवान नृसिंह को शिव जी को लेके ऐसे भागे के सीधे कैलास धाम में नजर आए। इंद्रदेव बोले अब तो एक ही हैं जो इन्हें शांत कर सकती है वे है इनकी श्रीमती जी। माता लक्ष्मी जी के पास चलो वही आकर शांत करेंगी। सभी देवता पहुंचे माता लक्ष्मी जी के पास माता लक्ष्मी की सभी स्तुति करी लक्ष्मी माता बोली क्या बात आप सभी इतने घबराए हुए क्यों हो।

इंद्रदेव बोले माता जी भगवान नारायण ने हिरण्यकश्यप का वध किया है और इस समय वे बड़े क्रोधावेश में किसी का सामर्थ्य नहीं के उन्हें शांत कर सकें, बस अब आप ही हैं जिन्हें शांत कर सकती है।

अच्छा स्वामीनारायण को क्रोध भी आता है, वे तो सदा शांत होते हैं। शान्ताकारम भुजग शयनं कोई बात नहीं चलिए मैं अभी उन्हें शांत करती हूं। माता लक्ष्मी जी आईं जैसे ही देखा लाल लाल आंखें बिखरे हुए केश, हाथोंमें लगा रक्त जिसे अपनी जिह्वा से साफ कर रहे हैं।

अरे ये कौन है कहाँ ले आये मुझे ये कौन से नारायण है, ऐसा रूप तो मैंने कभी देखा ही नहीं, ऐसी भागी माता जी के पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।

नारद जी बोले- बड़े भोले बनते हो आप लोग जड़ को पकड़ते हो डाली पकड़ते हो। अरे जरा यह तो सोचो भगवान नृसिंह बनकर आये क्यूं?.. प्रहलाद की वजह से। प्रभु को क्रोध किस लिए हो रहा है, की प्रहलाद कहां है दिखाई नहीं पड़ता उन्हें। सामने जब तक प्रहलाद नहीं जावेगा भगवान शान्त नहीं होने वाले।

प्रहलादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके।

तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम।।

भगवान नृसिंह के सम्मुख प्रह्लाद जी गए, जिन प्रभु को देखकर देवता भयभीत हैं, स्वयं उनकी पत्नी लक्ष्मी भयभीत होकर भाग गईं। पर भगवान के सामने जाकर गजब की स्तुति की प्रह्लाद जी ने- 

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