दूसरे जन्म में
जय-विजय रावण और कुम्भकरण के रूप में जन्म लिए जिनका वध त्रेतायुग में भगवान श्री
राम ने किया। इनका तीसरा जन्म शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में हुआ, तो
भगवान ने आज इसका भी उद्धार कर दिया।
परीक्षीत! तब
तुम्हारे बाबा ने नारद जी से पूँछा- महराज यह हिरण्याक्ष को तो भगवान ने वाराहरूप
धारण करके वध किया। पर यह हिरण्यकशिपु कैसे मारा गया, और इसे
मारने का क्या कारण था?..
हिरण्यकशिपु को
मारने के लिए भगवान ने कैसा रूप धारण किया?
शुकदेव जी कहते
हैं- राजन! हिरण्यकशिपु जो है, इसके छोटे भाई हिरण्याक्ष का
वध जब भगवान नारायण ने वाराह रूप धारण करके किया। तो यह हिरण्यकशिपु बड़ा क्रोधित
हुआ, की नारायण ने मेरे भाई का वध सूकर रूप में किया। यह
बदला तो मै लेकर हि रहूंगा, और बस वह मंदराचल पर्वत मे जाकर
तपस्या करने लगा। पुराणो में आता है की वह जैसे ही तपस्या के लिए बैठा तो नारद जी
तोता बनकर वहीं के एक वृक्ष में आकर बैठ गये, और नारायण
नारायण कहने लगे। हिरण्यकशिपु को नारायण शब्द से इतनी घृणा थी की अगर उसे नारायण
शब्द सुनाई दे जाए तो कान में उंगली करके निकालता की कहीं ये अंदर ना चला जाए। अब
उसे ज्यों हि नारायण शब्द सुनाई पड़ा, उसने चारो तरफ देखा की
यह कौन है जो मेरे राज्य में वो भी मेरे सामने नारायण नारायण की रट लगाए हुए है। तब
हि उसकी नजर तोते पर पड़ी, उसने उस तोते को डांटते हुए वहाँ
से उड़ा दिया और पुनः तप में लग गया। थोड़ी हि समय के बाद वाहा तोता फिरसे आकर वृक्ष
पे आकर बैठगया और नारायण नारायण गाने लगा। इस तरह हिरण्यकशिपु उस तोते को डांटे तोता
उड़ जाए और जैसे हि वह तप करने को बैठे तोता फिर आकर नारायण नारायण रटने लगे,
इस तरह करते कराते सुबह से शाम हो गई अंत मे हिरण्यकशिपु हार कर घर
लौटना हि उचित समझा। सोचा आज दिन हि अच्छा नहीं गुरुजी से कोई बढियाँ सा महूर्त लेकर
मैन पुनः तप करूंगा। इस तरह नारद जी के प्रयास से हिरण्यकशिपु का आज का परिश्रम
व्यर्थ चला गया।
इधर हिरण्यकशिपु
को वापस आया देख पुरा राजमहल हलचल मच गई, सब सोचने लगे बात क्या हुई? क्या इतनी
जल्दी महाराज ने तपस्या पूर्ण करलिया? राजा हिरण्यकशिपु हपने कक्ष में पहुंचे दास
दाशियों ने आवभगत किया, भोजन किया, तब
कुछ समय बाद महारानी कयाधु राजा की सेवा पहुंची और राजा से कुशलक्षेम पूछा- महराज!
यह कौन सा तप था जो इतनी सीघ्र संपन्न हो गया। ब्रह्मा जी से आपने कौन सा वरदान
प्राप्त किया। हिरण्यकशिपु बोला- कुछ मत पूँछो आज का तो दीना खराब था जो मै तप के
लिए गया। क्यूं ऐसा क्या हुआ, चकित होकर कयाधु ने पूँछा।
हिरण्यकशिपु- बोला देवी कुछ मत पूछो आज
तो गजब हि हो गया, मै जैसे ही तप करने के लिए बैठा तभी एक नारायण
ध्वनि सुनाई देने लगी। क्या कहा आपने ?.. आश्चर्य से भरे शब्दों मे कयाधु ने पूंछा। तब हिरण्यकशिपु ने कहाँ सच कह
रहा हुं। मुझे नारायण शब्द ध्वनि सुनाई पड़ी। तब मैने चारो ओर देखा तब मैने क्या
देखा की एक पक्षी वृक्ष मे बैठा हुआ नारायण नारायण की ध्वनि कर रहा है। नारायण नारायण!
हां देवी नारायण नारायण। अच्छा फिर फिर क्या था मैने उसे भगाया और पुनः तप ध्यान
लगाया। कुछ समय बाद फिर वही आवाज। कौन सी आवाज स्वामी?. अरे
वही आवाज देवी नारायण नारायण। ऐसे करते कराते बातों ही बातों में कयाधु ने हिरण्यकशिपु
के मुख से 108 बार नारायण नाम निकलवा दिया, और ठीक उसी
रात्रि में प्रहलाद ने गर्भ प्रवेश किया।
पति-पत्नी दोनों
उस समय भगवान का नाम उच्चारण किया यही कारण था की उनके यहां चतुर्थ पुत्र के रूप
में भगवान नारायण के परम भक्त श्रीमान प्रहलाद जी आये। प्रातःकाल
होते ही हिरण्यकशिपु पुनः तपस्या करने निकल गया। मंदराचल पर्वत की कंदराओं में एक
पैर के अंगूठे पर खड़ा होकर तो कभी जल के अंदर बैठकर, तो कभी
अग्नि के मध्य में खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करी। शुकदेव जी कहते हैं- उसके सम्पूर्ण शरीर में दीमक लग गई। हिरण्यकशिपु के तप के प्रभाव से इंद्र
भयभीत होकर कयाधु का हरण करने पहुंचे तभी नारद जी पधारे और इदरा को समझाया देवराज
यह पाप कर्म तुम मत करो। कयाधू पतिवृता नारी है उसके ताप से तुम बच ना सकोगे। नारद
जी की बात मानकर देवराज इंद्र स्वर्ग की चले गये। इधर नारद जी ने भक्त को परंभक्ति
का रसास्वादन कराने कयाधू को अपने आश्रम ले गये। वैसे देखा जाए तो नारद जी का कोई
विशेष आश्रम नहीं है, इसलिए नारद जी ने अपनी माया से बड़ा हि
सुंदर एक आश्रम का निर्माण किया। जहां पर बहुत से शिष्य आदि मधुर स्वर वाले पशु पक्षी,
पुष्पो की सुगंध से पूरा वातावरण अद्भुत सा प्रतीत हो रहा था। निरंतर
श्रीमन्नारायण ध्वनि गूंजती रहती। ऐसे पवित्र वातावरण मे कयाधू ने पूरे सौ वर्ष तक
गर्भ धारण कर समय व्यतीत किये तब एक दिन प्रहलाद जी का जन्म हुआ। धीरे-धीरे
प्रहलाद जी बड़े हो रहे हैँ, संतों का संग नित्य सत्संग ने
उनका जीवन भक्तिमय कर दिया, नित्य प्रति समय उनके मुख से हरिनाम
संकीर्तन निकलता रहता।
इधर हिरण्यकशिपुने
ऐसा कठोर तप किया, उसके सम्पूर्ण शरीर मे दीमक लग गई, उसमे
से भी बड़े बड़े वृक्ष निकल पड़े। ऐसा विचित्र तप ब्रह्मा जी का शायद हि किसी ने किया
हो। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए, वैसे तो ब्रह्माजी का तप
उपासाना कोई करता नहीं ले देके वही दैत्य हैं जो कभी कभी तपस्या कर लिया करते हैं।
ब्रह्मा जी ने सोचा जैसे तैसे तो एक भगत मिला है और यह हमारा पौत्र भी लगता है। सो
वरदान देने आ पहुंचे। “वरम ब्रूही” वरदान मांगो, हम
तुमपे बड़े प्रसन्न हैं। हिरण्यकशिपु बोला- बाबा जी बड़ी कृपा हुई जो आप ने दर्शन
दिया, मानो हमें तो सब कुछ मिल गया। ब्रह्मा जी बोले- देखो
हमें ये सब बहाना पसंद नहीं, जल्दी बोलो तुम्हे क्या चाहिए।
इस प्रकार उसने एक नहीं दो नहीं उसने तो महराज कई वरदान मांगे।
न ऊपर मरू ना
नीचे मरू
ना दाएं मरू ना
बाए मरू
ना दिन मे ना
रात मे मरू
ना देव से मरू
ना दानव से मरू
न सूखे से मरू न
गीले मरू
ना शस्त्र से
मरू ना अस्त्र से मरू
मै आपके द्वारा
निर्मित किसी भी वस्तु से ना मरू
कछु
तो मियाँ बाबरे कछु पी लाई भांग।
एक तो वह पहले से हि दुष्ट था दूसरा ब्रह्मा जी ने
रजिस्ट्रेशन भी कर दिया, अजर अमर
होने का वरदान जो दे दिया। ब्रह्मा जी ने हिरण्यकशिपु को पुनः
हृष्ट-पुष्ट शरीर देकर विदा किया। महराज हिरण्यकशिपु के आगमन का समाचार जब नगर को
मिला तो नगर वाशी तो भयभीत हो गये की अब पता नहीं वह दुष्ट हमारा क्या करेगा। इधर
राज महल मे खुशियां मनाई जाने लगी, सुंदर कलश सजाये गये, सब ने राजा का स्वागत किया। जब राजा को सूचना मिली की कयाधू महल में नहीं
हैं तो वह बड़ा क्रोधित हुआ। तब नारद जी कयाधू और प्रहलाद को साथ में लेकर राजदरबार
में प्रगट हुए। हिरण्यकशिपु ने नारद को देख प्रणाम किया, नारद
जी ने सारी बात बताई के तुम्हारे जाने के बाद इंद्र तुम्हारी पत्नी का हरण करके ले
जा रहे थे, तब मैने तुम्हारी पत्नी की रक्षा की और उसे अपने
आश्रम में शरण दी हैं। यह तुम्हारा पुत्र हैं, अब यह पांच
वर्ष का हो गया। प्रहलाद ने पिता के चरणों में प्रणाम किया, पिता
ने अपने पुत्र और पत्नी को सुरक्षित देख दोनो को गले से लगाया। नारद जी को सहर्ष
विदा किया। नारद जी के जाने के बाद हिरण्यकशिपु बड़ा क्रोधित हुआ की मेरी
अनुपस्थिति मे इंद्र इतना बड़ा दुस्साहस किया, मेरी गर्भवती स्त्री
का हरण कर लिया अब उसे मेरे क्रोध से कोई नहीं बच्चा सकता। उसने स्वर्ग पर आक्रमण
किया और इंद्र के सिंहासन पर आधीपत्य प्राप्त किया। इंद्र रोते रोते ब्रह्मा जी के
पास पहुंचे यह आपने कौन सा वरदान दिया है जो आज हिरण्यकशिपु ने हमें परास्त कर
स्वर्ग का राजा बन बैठा। ब्रह्मा जी ने कहा तुम्हे किसने कहा था की उसकी पत्नी का
हरण करने को तुमने पाप किया यह उसी का दंड है।
स्वर्ग पर
विजय पाकर हिरण्यकशिपु बड़ा प्रसन्न था उसने सोचा की अब नारायण को निर्बल बनाना है। उसका
एक हि तरीका है। नारायण रहता कहाँ है, जहां सनातन धर्म है। सनातन धर्म कहाँ है?
जहां गौब्राह्मण हैँ जहां सदग्रंथों का अध्ययन हैं। इसलिए हिरण्यकशिपु इन सबको
तकलीफ देना शुरु कर दिया। बहुत बड़ा इनका स्वयं का एक विश्वविद्यालय है, उस विद्यालय का नाम था HD University यानी हिरण्यकशिपु
दानव विश्वविद्यालय, इस विद्यालय के प्रचार्य थे शुक्राचार्य
जी, और मुख्य आचार्य थे शुक्राचार्य जी के पुत्र सन्डामर्क। हिरण्यकशिपु
ने प्रहलाद जी का एडमीशन् करा दिया।
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