इधर असुर बालकों के साथ प्रहलाद जी विद्यालय मे अध्ययन करने
लगे। परन्तु बचपन से जिसके मन मे परमात्मा से मिलने की प्रबल अभिलाषा जाग्रत हो
जाए, उसको संसार का कोई भी आकर्षण अपनी ओर
खींच नहीं सकता। फिर प्रहलाद जी का जीवन तो बहुत महान है। वह् भगवान के एक मात्र
ऐसे भक्त है जिन्हें निष्काम भक्त की संज्ञा दी गई। जिसने गर्भ में ही भागवत धर्म
का उपदेश नारद जी जैसे महान भागवत से श्रवण अब, बच्चों को
गुरुजी क्या पढ़ाते हैं, प्रहलाद जी को नहीं मालुम। प्रहलाद के चित्त में कभी उद्वेग नहीं आता, किसी भी
प्रकार से अपनी इन्द्रियों को व्यसनों में नहीं जाने दिया। बस एकान्त में बैठे
रहते हैं, और प्रभु के नाम का स्मरण करते रहते हैं। कभी कभी
तो प्रहलाद जोर से रोने लग जाते और कभी रोते रोते ही तुरंत हंसने लगते। अब रोते
क्यूं हैं? की प्रभु कब मिलोगे, जीवन ऐसे हि जाएगा क्या?.
और हँसते किसलिए ?.. की भगवान् ने कितनी बड़ी
कृपा करी की मुझे मानव बनाया। अगर किसी अन्य योनि में होता तो किर्तन करने का
सौभाग्य मिलता कैसे। इसलिए कभी रोते, तो कभी हँसते, तो कभी नाचने लगते, कभी गाते, तो
कभी मूर्छित् होकर गिर जाते।
कृष्णगृहगृहीतात्मा
न वेद जगदीदृशम्।।
प्रहलाद की आत्मा को कृष्ण रूपी ग्रह ने ग्रहण कर लिया। भगवान को यहां पर ग्रह कहा गया है।
।। कर्ष्यति जीवानां चित्तम इति कृष्ण:।।
अपनी प्रिया माधुरी के द्वारा अपनी वेणु माधुरी के द्वारा, ललित माधुरी के द्वारा जीव के हृदय को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते
हैं, उन्हीं का नाम श्रीकृष्ण है।
या फिर जो जीव के हृदय को जोतकर भक्ती का बीज़ बोते हैं, उनका नाम कृष्ण। एक बार जो उनकी मुस्कुराती छटा को देख लेता
है—.
लखी जिन लाल की मुस्कान।
ताहि बिसरी वेद विधि योग संयम ध्यान।
नेम व्रत आचार पूजा पाठ गीता ज्ञान।
रसिक भगवत दृगदयी खैच के मुख म्यान।
एक बार त्रिभन्गी ललित स्वरूप श्रीकृष्ण की झांकी कोई देख लेवे, फिर तो उसका मानो सब कुछ लुट ही जाता है। ऐसे भगवान का दिव्य
स्वरूप है। वे ऐसे ग्रह हैं कि जिसको पकड़ लेते हैं, फिर उसे
छोड़ते नहीं।
एक मुस्लिम
बादशाह था, उसकी राजधानी दो जगह थी, बड़ी राजधानी दिल्ली में और छोटी राजधानी लखनऊ में, उसके
यहां दरवारी थे श्रीमान रसखान जी। रसखान का जन्म 1558 में बताया जाता है इस समय का
जो राजा था वह अकबर है। रसखान ने फारसी में भागावत जी का अनुवाद किया है। इनकी
मृत्यु भी वृंदावन मे हुई है। लखनऊ में बैठा अकबर ने मंत्रियों से पूछा- कि दिल्ली
जाने का सीधा मार्ग कौन सा है। हमें कल हि दिल्ली के लिए कूच करना है। मंत्रियों
ने बताया महराज दिल्ली के लिए सीधा मार्ग तो हरिगढ़ होकर हि है, पर एक रास्ता और है जो मथुरा
होकर गुजरता है। ऐसा है कि हरिगढ़ होकर तो आप जाते हि रहते हैं। क्यूं ना इस बार
माथुरा बृंदावन होकर चलें। एक ने बोला- ना ना… बृंदावन होकर तो बिल्कुल भी नहीं जाएंगे हम। दूसरे सैनिको ने पूछा क्यों?..
बोले भैया वहां हिन्दुओं का कोई काला कलूटा छोरा रहता है। कृष्ण है
उसका नाम और मैने सुना है, एक बार यदि कोई वहां चला जावे तो
वह जबरजस्ती पकड़ लेता है। आने ही नहीं देता, कहीं हम चले गये
और हमको पकड़ लिया, तो शासन कौन सम्हालेगा?.. तब रसखान बोले- यदि ऐसा है तब तो आप कहीं होकर जाओ महराज मैं तो वृन्दावन
होकर हि जाऊंगा। अरे रसखान जी जिद मत करिये पकड़ लेता है। बोले- ज्यादा नहीं बस एक
घंटा रुकूंगा, लेकिन वृन्दावन जाऊंगा।
चलो रे मन श्रीवृन्दावन धाम…
एक एक पैर बढ़ाने से, कोटिन यज्ञ समान।
करोड़ों यज्ञ का फल प्राप्त होता है, ऐसा पावन श्रीधाम वृन्दावन। रसखान जी जैसे हि मथुरा से श्रीधाम वृन्दावन की ओर चले उनके मन में दिव्य सुख की अनुभूती होने लगी। अब जैसे ही वृन्दावन की सीमा में प्रवेश किया, तो महराज गली गली में राधे राधे की धुन, बालकृष्ण प्रभु के नाम का संकीर्तन-
वृन्दावन की गली गली मे राधे राधे होय।
ऐसा
सुंदर नगर मोहन का मरम ना जाने कोय।।
वृन्दावन
के वृक्षन को जी मर्म ना जाने कोय।
डाल
डाल ओर पात पात मे राधे राधे होय।।
ऐसी विचित्र स्थली वृंदावन अब, यहाँ गली गली में सत्संग, कथाएं,
कीर्तन एक घंटा की जगह रसखान जी को एक महीना बीत गया। धीर समीर
यमुना के तटपर पालथी मारके बैठ गये। सत्संग में जो ध्यान योग की पद्धति को जाना बस
उसी प्रकार समाधी लगाकर बैठ गये। उन्हें ऐसा लगता मानो मै भी कन्हैया के गायों के
बीच चर रहा हुं। मैं भी कन्हैया के गवाल मण्डली के साथ जा रहा हूं। महाराज पूरे सर
का मुंडन कराया दाढ़ी घुटाई और शरीर में वृज रज को लपेटा बस एकदम समाधी लगाकर बैठ गये। इस प्रकार करते कराते 6
माह बीत गये। बादशह बोला वो रसखान कहाँ बहुत दिनों से दिखे नहीं। पता लगाया गया तो
खबर मिली की रसखान अभी तक दिल्ली पहुंचे हि नहीं। राजा ने सैनिकों से कहा तुम लोग
जाकर हमें, पता करो रसखान कहाँ है। सैनिक खोज करते हुए
पहुंचे वृन्दावन।
एक बात कहें यदि सच्ची भावना लेकर आओ वृंदावन में तो गोविन्द
की अनुभूति अवश्य होती है। और यदि भौतिक दृष्टी से वृन्दावन में प्रवेश किया तो
सिवाय भीड़ और बाजार के कुछ ना दिखेगा। गोविन्द के दर्शन एक लिए हमारी भावना अच्छी होनी चाहिए। सैनिको ने वृंदावन की
गली गली में खोजा पर कहीं ना मिले रस खान,
जब यमुना तट पर पहुंचे तो
देखा समाधी लगाकर रसखान बैठे है। अरे रसखान जी यहाँ हैं…
पूरे शरीर में वृज रज लगी है, सिर पर एक बाल नहीं। रस खान जीsss सुनते क्यों नहीं?..
तब सैनिकों ने हाथ पकड़ हिलाया, तब आँख खुली…
कौन तो आप लोग?... अरे हमको नहीं पहचानते। हम
बादशाह के सेवक हैं।
बोले- कौन बादशाह?
सैनिक बोले- दिल्ली वाले बादशाह।
कैसी दिल्ली?
एक सिपाही बोला- बस इनको तो पकड़ लिया महराज! ये तो बिल्कुल
हि भूल गये। अरे हम दरबारी हैं और आप दरबारी कवि। आप राजा के प्रशंसक कवि गई, राजा ने आपको याद किया
है।
रसखान बोले- पर मै तो किसी बादशाह को नहीं जानता, अब जानता हुं तो बस एक बात क्या?
मानुष
हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो
पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन
हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग
हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
मानव का शरीर मुझे कभी मिले तो वृजमण्डल में मिले, श्रीधाम वृन्दावन में मिले। इसके शिवा दूसरी कोई कामना नहीं
है। नहीं बन सकता मानव तो पशु का देह भी मिले तो वृज में मिले, ताकि नंद के गायों के बीच कन्हैया के साथ मै भी चलूँ। नहीं बन सकता पशु तो
पत्थर बन जाऊं लेकिन बनूँ श्रीगिरीराज का जिसको भगवान ने ऊँगली पर धारण किया। नहीं
बन सकता पत्थर तो लता पत्र बनूँ, कीट पतंग बनूं और नहीं बन
सकता कुछ तो वृज के रज का एक कण बन जाऊं। लेकिन शिवाय वृन्दावन के कहीं और नहीं
जाना चाहता।
सैनिक बोले – क्या
मिलेगा तुम्हे यहां रहके?
बोले – तुम नहीं
समझोगे।
या
लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ
सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान
कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक
हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
बाँके बिहारी जी की ये जो तिरछी चितवन है न, कारी कमरिया लकुटी इसके लिए त्रिलोकी के राज को मैं त्याग सकता
हूं। नव निधियों का सुख भी त्याग सकता हूं। पर एक क्षण को भी वृन्दावन नहीं त्याग
सकता। तब से रसखान वृंदावन त्याग कर कहीं नहीं गये। कृष्ण तो ऐसा ग्रह है महराज
जिसे ग्रहण करले महराज बस उसे तो छोड़ता ही नहीं।
प्रहलाद जी को भी श्रीकृष्ण रूपी ग्रह ने ग्रस लिया। एक
वर्ष विद्यालय मे पूर्ण हुआ। आज पिता हिरण्यकशिपु ने विद्यालय का परीक्षण करने का
विचार किया। असुर बालकों ने राजा का स्वागत किया।
हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद को गले लगाया। बेटा बताओ
तुमने अब तक क्या सीखा?
तब प्रहलाद जी नवधाभक्ति गाने बात, जो नारद जी ने बताया था।
श्रवणं
कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं
वंदनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनम्।। 23/5
पिताजी! नारायण प्रभु के श्रीचरणों में प्रीति नौ प्रकार से
की जाती है।
क्या?.. तुम
मुझे नारायण की प्रीति बता रहे हो।
बोले- जी पिता जी। व्याख्या करता हुं कृपया सुनिए। पिता जी
पहली भक्ति है “श्रवण” प्रभु की कथा का श्रवण करिये। श्रवण के तीन भेद हैं।
“श्रवण, चिंतन, निताध्यासन” करना।
दूसरा है “कीर्तन” भगवान् के नाम गान को हि कीर्तन
कहते है। नाम गान करने से नामी हृदय में आये बिना नहीं रह सकता। इसलिए कीर्तन
करिये।
तीसरा है “विष्णुस्मरणं” उन भगवान का नित्य स्मरण करना
अर्चन करना वन्दन करना उनके चरणों की दिव्य सेवा करना।
पिताजी! इस नवधाभक्ति में अंतिम जो तीन भक्ति हैं वो सर्वोत्तम
हैं।
अहं ही
नारायण दास दास, दासानु दासस्य च दास दास।
त्वद भृत्य
परिचानक भृत्य भृत्य, भृत्यस्य भृत्येति मांस स्मरणलोकनाथ।।
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