7 स्कन्ध प्रारम्भ
सूतजी कहते हैं- ऋषियों! तीन दिन से कथा सुनते परीक्षित के मन में फिर शंका हुई। परीक्षित अब शान्त और चिंतित होकर बैठे हैं। तब यह देखकर शुकाचार्य जी बोले- क्यों क्या हुआ?..
परीक्षित बोले- महराज! मेरी समझ मे तो कुछ आता ही नहीं है।
लेकिन हुआ क्या ?..
सम: प्रिय: सुहद्ब्रह्मन भूतानां भगवान स्वयम।
इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यान अवधीद्विषमो यथा।।
गुरुजी! एक बात बताइए, भगवान ऐसा भेद भाव क्यों करते हैं।
कैसा भेद भाव?
भगवान इन्द्रादि देवताओ के लिए दैत्यों को मारते हैं। क्या दैत्य भगवान के पुत्र नहीं हैं? फिर भगवान दैत्यों को मारते है और देवताओं को बचाते हैं। दुष्टों को डूबाते हैं भक्तों को पार लगाते हैं। कम से कम ऐसा भेद भाव तो नहीं होना चाहिए।
शुकदेव जी बोले- पर हमने तो ऐसा कुछ नहीं बताया।
परीक्षित बोले- तीन दिन से और क्या बता रहे हैं।
शुकदेव जी बोले देखो राजन! भगवान किसी को मारते नहीं तो किसी को छोड़ते भी नहीं। यह चमत्कार तो उनकी आंखों का है, जो उनके आखों के सामने पहुंचता है, वह पार हो जाता है और जो सन्मुख नहीं होता वह पार नहीं हो पाता। भागवत में आया है कि धर्म भगवान के वक्षस्थल से उत्पन्न हुआ है और अधर्म उनके पृष्ठ भाग से उत्पन्न हुआ है। तो जो व्यक्ति धर्म पर चलते हैं वे उनके सन्मुख रहते हैं। और जो अधर्म का आचरण करते हैं वे पीछे रहते हैं। इसलिए पीछे रहने वालों पर उनकी नजर नहीं जाती इसलिए वे पार नहीं लगते।
भगवान श्री कृष्ण जब पांच वर्ष के भये तो कन्हैया के बारे में मैया ने सोचा अब तो लाला पांच बरस को है गयो है। याके नाम से मैं जमुना में दीपदान करूंगी। मैया ने हजारन दीपक जलाएं और जन्मदिन मनाने को निश्चय कियो। दीपक सजाएं, सखियों को साथ में लिया और बालकृष्ण प्रभु के अभ्युत्थान के लिए यमुना जी में दीपदान का संकल्प लिया।
पल्लू पकड़कर पीछे पीछे लाला भी चल रहे हैं। यमुनाजी में प्रवेश करते ही सखियों ने मंगल गीत गाये। माता यशोदा ने एक दीपक उठाया और बहाते भये बोली जहां तक सूरज चंदा को प्रकाश है, वहां तक मेरो लाला राज्य करे। दूसरा दीपक जलाकर बहाते हुए बोली मेरो कन्हैया काऊ विद्या में काऊ के हाथन ते परास्त न होवे, तीसरा दीपक जलाकर बहाते भये बोली मेरो लाला के हजारन व्याह होय जाएं। फिर दीपक बहाते भए बोली मेरो कन्हैया सबको लाला ही बन्यो रहे।
इधर माताजी एक एक कामना करते हुए दीपक बहा रही हैं, तो उधर घोंटू घोंटू पानी में बालकृष्ण भी प्रवेश कर गए। मइया दीप जलाकर बहाती जाए और कन्हैया पकड़ पकड़ के किनारे लगाते जाएं, दीपक पकड़े किनारे लगादें। माता बोली- च्योंरे उधमी, मैं यमुना जी में तेरे तांईं दीप दान करूँ और तू पकड़ पकड़ के किनारे काय कूँ लगावे। कन्हैया बोले- मईया! बहते भये को किनारे लगानो तो मेरो जनम जनम को धंधों है। अब मैं नहीं लगाऊंगो किनारे तो बह जांगे सबरे।
मईया बोली- या भव सागर में तो करोड़न प्राणी रोज बहे लाला, फिर तू कौन कौन कुं किनारे लगावेगो। कन्हैया बोले- मईया! मैं या की परवाह न करूं, भवसागर में भले करोड़न प्राणी रोज बहें, पर मैं किनारे वाई कुं लगाउँ जो बहते बहते मेरे सामने आवे।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासऊ तबहीं।।
एक बार कोई सामने आजावे फिर मैं उसे बहने नहीं देता, यह मेरी प्रतिज्ञा है। लेकिन सामने जाने का मतलब क्या है?.. प्रभु का चिन्तन करना, उनका दिव्य स्मरण करना। जो जितना उनका चिन्तन करते हैं, वो उतना ही प्रभु के सम्मुख पहुंचते हैं। अब चिन्तन करने की पद्धति अलग अलग हो सकती है। कोई प्रेम से चिन्तन करता है, कोई मित्र मानके चिन्तन करता है तो कोई शत्रु मानके चिन्तन करता है। लेकिन यह तुम निश्चय समझो कि प्रभु का चिंतन किसी भी पद्धति से करो, उसे तो पार लगाना ही है।
अब अग्नि हमारे देवता हैं, उनकी शरण में जाएं उनकी वंदना कर कहें ही हे अग्नि देवता मैं आपकी शरण में हूं, आप मुझे जलाना नहीं। इस प्रकार स्तुति करके फिर हम उनका स्पर्श करें, तो क्या वे जलावेंगे नहीं?.. जरूर जलाएंगे। उन्हें चाहे डण्डे मारके छुओ या पूजा करके स्पर्श करो। उनका धर्म ही जलाना है। इसीप्रकार से परमात्मा का चिन्तन चाहे प्रेम से करो या क्रोध से करो, अर्थात चाहे शत्रु भाव से करो। जीव का मोक्ष तो निश्चित है। बस फर्क इतना है कि जो प्रेम से चिन्तन करता है वह प्रभु के गोद में बैठकर मोक्ष को प्राप्त होता है और शत्रुभाव से चिन्तन करता है वह प्रभु के हाथों मरके मोक्ष को प्राप्त होता है। कैसे भी चिन्तन करो मोक्ष तो निश्चित है और चिन्तन के द्वारा ही व्यक्ति प्रभु सन्मुख होता है। इसके बारे में मैं तुमको एक इतिहास कहता हूं राजन। तुम्हारे बाबा युधिष्ठिर ने जब यज्ञ किया तो वहां पर यह निश्चित हुआ, कि वहां पर पहली पूजा किसकी होगी। तब पांडवों के छोटे भाई सहदेव ने कहा- हमारे प्राण, हमारे जीवन तो केवल श्रीकृष्ण हैं। इसलिए मैं इस सभा से प्रार्थना करता हूं कि श्रीकृष्ण की ही प्रथम पूजा का अधिकार हमें प्रदान करें। जैसे ही यह बात कही गई तो सभा में बैठा था शिशुपाल सो खड़ा हो गया। शिशुपाल ने अपने जीवन में श्रीकृष्ण को नचकईया के अलावा कुछ नहीं कहा। “श्रीकृष्ण” ऐसा पूरा नाम कभी लिया हो ऐसा तो सम्भव ही नहीं।
तुमने क्या कहा- किसकी पूजा! जिसके माता-पिता का पता नहीं, जाती का पता नहीं, जीवनपर्यंत जिसने केवल गाय चराई हो, चार दिन से द्वारिका का राजा क्या हो गया, तो हमारे बीच बैठकर प्रथम पूजा का अधिकारी भी बन गया।
भगवान श्रीकृष्ण के बारे में सुनते ही शिशुपाल बिना पानी पिये 99 गाली रोज देता था। अब वह गालियां दे रहा था और भगवान गिनते जाएं, 100 गाली जहां हुई तो तुरत उसके मस्तक को सुदर्शन से उतार लिया। तब उसके शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली और गोविन्द में समा गई। इसको सायुज्य मुक्ति कहते हैं। अब वहां बैठे थे तुम्हारे बाबा युधिष्ठिर के पास नारद जी, तो युधिष्ठिर जी ने नारद जी से यही प्रश्न किया। बोले- महराज! यह शिशुपाल भगवान को गिन गिन कर गाली दिया। ऐसे पापी को तो करोड़ों वर्ष नरक भोगना चाहिए। उसे हम लोगों के सामने इस प्रकार मुक्ति मिल गई। ऐसा क्यूं??..
तब वहां नारद जी ने जो बात बताई मैं तुमसे वही बात कहता हूं।
कामाद् द्वेषाद्भयात्स्नेहात् यथा भक्तयेश्वरे मन:।
आवेश्य तदहं हित्वा वहवस्तद्वतिं गता:।।
काम से क्रोध से भय से स्नेह से किसी भी प्रकार से यदि हम परमात्मचिन्तन करते हैं, भगवान की याद करते हैं, तो निश्चित रूप से प्राणी का कल्याण होता है।
गोप्य: कामाद भयात्कंसो द्वैषाचैद्यादयो नृपा:।
सम्बन्धाद वृष्णय: स्नेहात् यूंयं भक्त्या वयं विभो।।
गोपियों ने काम बस कृष्ण उपासना करी, कंश ने भय से कृष्ण को याद किया। और शिशुपाल आदि जो हैं इन्होंने द्वेश से कृष्ण चिन्तन किया। नारद जी कहते हैं- यह जो शिशुपाल है न, यह इसी जन्म से नहीं, पिछले तीन जन्म से भगवान से द्वेश कर रहा है।
यहां पर शुकदेवजी एक बार फिर वर्णन करते हुए कहते हैं कि ये जो शिशुपाल आदि दैत्य हैं न, ये पूर्व जन्म में भगवान के पार्षद थे। इनका नाम था जय-विजय और एक बार इन्होंने जब सनतकुमारों को वैकुण्ठ में प्रवेश नहीं होने दिया तब सनकादियों ने इन्हें शाप दे दिया कि तुम तीन जन्मों तक दैत्य बनो। तब ये दोनों पहले जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप बने। जिनमे से हिरण्याक्ष का वध भगवान ने वाराह रूप में अवतरित हो कर किया और हिरण्यकश्यप का वध नृसिंह अवतार में किया।
बहुत सुंदर बहुत दिनो बाद नई पोस्ट डाली
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंइसके आगे की कथा डालने का कष्ट करें महाराज जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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