इधर देव गुरु बृहस्पति जी ने यज्ञ किया और यज्ञ के द्वारा ब्रह्महत्या को शांत किया। देवराज इंद्र को बुलाकर राज गद्दी पर बैठाया।
लेकिन राजा परीक्षित यह प्रसंग सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए। बोले- गुरु जी! क्षमा करना, एक बात पूछता हूं कि आपने कहा कि जैसे व्यक्ति संग करता है वैसे ही उसके विचार बनते हैं, अब वृत्तासुर ने भगवान की कितनी सुंदर स्तुति की। अब तक वह किसी बड़े यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की हो ऐसा तो सुनने में नहीं आया। किसी ऊंचे संत की शरण ली हो ऐसा भी आपने नहीं बताया। या वह बहुत सत्संग करता हो, यह भी नहीं बताया। “नारायणे भगवती कथमासीद दृढ़ा मती:” जब उसको संग अच्छा नहीं मिला, तो प्रभु के चरणों में उसकी वृद्धि कैसे हो गई?..
शुकदेव जी बोले- राजन! केवल एक जन्म
के संस्कार नहीं होते, संस्कार तो अनंत जन्मों के
होते हैं। वृत्तासुर ने जो यह स्तुति करी है न, वह उसके पूर्व जन्म
के संस्कार हैं।
राजन! पूर्व जन्म में यह चित्रकेतु नाम का राजा
था। माता पार्वती के शाप से इसे राक्षस बनना पड़ा। यह चित्रकेतु नाम का गंधर्वों का
राजा था। इसके बहुत सी पत्नियां थीं, पर बेटा एक न था।
बेटा न होने से मन मे बड़ी बेचैनी थी। बेचारा बड़ा चिंतित रहता, हमको पुत्र नहीं है, एक बार उसके यहां अंगिरा ऋषि आये उन्होंने पूछा-राजन! क्या हुआ तुम उदास क्यों हो?..
राजा ने बताया- महराज! आप लोगों से
कोई बात छुपी तो रहती नहीं है, आप तो सब जानते हैं
कि मेरी एक करोड़ रानियां हैं। पर इनमें से किसी को पुत्र नहीं है। महराज अंगिरा जी
ने कहा- राजन! तब तो तुम पर गोविन्द की परम कृपा है। सुनो- राजन! पुत्र होने से किछ नहीं होता। तुम तो बस गोविन्द
का भजन करो।
राजा ने कहा- महराज! यदि आप आशीर्वाद
देदें तो एक पुत्र तो हो जाए कम से कम, जिससे मेरा वंश चल
सके। अंगिरा ऋषि ने कहा- राजन मैंने तुम्हारा
भविष्य देख लिया, तुम्हे पुत्र सुख नहीं है।
फिर भी हम तुम्हारी आग्रह से तुम्हे पुत्र प्राप्ति का उपाय बताते हैं। तुम पुत्रेष्टि
यज्ञ करो। जब राजा ने यज्ञ किया तब ऋषि ने यज्ञ की चरु राजा को दी और बोले- राजन! तुम यह चरू अपनी बड़ी रानी को देना, वह अगर सुंदर पद्धति से इसका सेवन करेगी तो निश्चित
रूप से उसको एक पुत्र होगा। परंतु राजन ध्यान रहे यह पुत्र तुम्हे सुख भी देगा और शोक
भी देगा।
राजा ने कहा- महराज! एक बार प्राप्त
हो जाए फिर मैं सम्हाल लूंगा। ऋषि ने राजा को चरु दिया और चले गए। यहां चित्रकेतु की
बड़ी पत्नी का नाम था कृतद्विती। बस कृतद्विती ने उस चरु को गृहण किया औऱ भगवान कृपा
से उन्हें एक सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ। दूसरी रानीयों ने सोचा बड़ी भागवती है, यह जो इसे पुत्र प्राप्त हुआ। राजा ने पुत्र होने
पर बड़ा उत्सव बनाया, खूब दान पुण्य भी किया। रानी
को पुत्र होने के कारण राजा को उसके प्रति आकर्षण बढ़ गया। अब दूसरी रानियाँ भी यह सब
देख मन में ईर्ष्या उत्पन्न करने लगीं। तब एक दिन कुछ रानियों ने मिलकर उस बालक की
हत्या करदी। इस बात का पता जब रानी को चला तो वह छाती पीट पीट कर रोने लगी।
सब दुःखी थे, तभी वहां अंगिरा ऋषि
पधारे। साथ में उनके नारद जी भी आये। यह देख राजा ने उनका स्वागत किया। जब अंगिरा जी
ने दुःखी होने का कारण पूछा तब राजा ने बताया, महराज! आपने जो प्रसाद
रूप में पुत्र दिया था आज वह हमें छोड़कर चला गया। उसका केवल शरीर पड़ा है। या तो वह
जीवित हो जाये या मैं अपने प्राण त्यागे दे रहा हूं। अंगिरा जी बोले- हमने तो तुमसे पहले ही कहा था कि तुम्हे पुत्र से
हर्ष भी होगा और शोक भी।
यह तो संसार का नियम है राजन! जिस दिन हम जन्म लेते
हैं, मौत हमारे साथ में जन्म लेती है। आज हो कल हो या
100 वर्ष बाद हो मृत्यु तो निश्चित है। तब नारदजी ने समझाया- राजन! तुम कहो तो मैं अभी यहां तुम्हारे पुत्र को
प्रकट कर दूं पर एक बात बताओ अगर तुम्हारा पुत्र जीवित हो जाये तो तुम करोगे क्या?..
राजा चित्रकेतु ने कहा- मैं तो धन्य हो जाऊं, उसे अपने हृदय से लगा लूँ। तब नारदजी ने बालक के
शव पर हाथ रखा और गोविन्द का नाम लिया, वह बालक उठ कर खड़ा
हो गया। नारद जी ने कहा देखो, अब तुम्हारा पुत्र
जीवित हो गया अब उसे तुम हृदय से लगाओ। अब राजा बड़े हर्ष से जैसे ही उसे गले से लगाना
चाहा, उसने कहा- दूर… कौन हो तुम ?.. नारदजी बोले- बेटा यह तुम्हारे पिता जी हैं, दो घण्टे से तुम्हारे लिए रो रहे हैं। तुम्हें अपने
गले से लगाना चाहते हैं।
तब वह मुस्कुराते हुए बोला- अच्छा! तो ये किस जन्म के पिता हैं?..
महराज! यह तो संसार का क्रम है, कितनी बार ये मेरे पिता बन गए और कितनी बार मैं
इनका पिता हो चुका। इस संसार में कर्म विकर्म की आंधी चलती है। यह तो संसार का क्रम
है कि जो जहां जन्म लेता है उसे मृत्यु को भी स्वीकार करना पड़ता है, जीवन की अवधि तो मरण पर्यंत है।
इस प्रकार से उपदेश देकर वह सीधा स्वर्ग को प्रस्थान
कर गया। नारदजी बोले- अरे राजन तुमने अपने पुत्र
को गले से नहीं लगाया, वह तो तुम्हे छोड़कर चला गया।
राजा बोला- सुनिए! न तो मुझे बेटा चाहिए
न बेटी। अरे जिस बेटा के लिए हम पछाड़ पछाड़ के रो रहे हैं वह कहता है तुम कौन हो?.. कौन से जन्म के पिता हो?.. नहीं चाहिए हमें ऐसा पुत्र।
नारदजी बोले- पहले ही मान जाते
तो यह नाटक काय को करना पड़ता। पर अकल ठिकाने तो तभी आती है जब थप्पड़ बेटे से मिलती
है। नारदजी ने राजा को संकर्षण देव की उपासना बताई और इस उपासना से राजा की भावनाओं
में परिवर्तन आ गया, लेकिन प्राणी को अपने जीवन
में किसी भी प्रकार का अहम नहीं करना चाहिए, की मैं बहुत बड़ा संत
हूं मैं बहुत बड़ा विद्वान हूं। सबसे बड़ा योगी मैं ही हूं। ऐसा अहम ठीक नहीं।
चित्रकेतु विमान पर बैठकर जगह जगह यज्ञ किया करता।
एक बार वह विमान पर बैठकर भगवान भोलेनाथ के दिव्य स्थान पर पहुंचा, उसने वहां देखा कि माता पार्वती उस समय भगवान शिव
की गोद पे बैठी हैं। यह देखते ही चित्रकेतु अपने विमान से उतरा और हंसने लगा।
एष लोकगुरु: साक्षात् धर्मं वक्ता शरीरिणाम।
राम राम ये तो दुनिया का गुरु कहलाने वाला शंकर
सभा में स्त्री को लेकर बैठा है। इसे यह करने में जरा भी संकोच नहीं लगता।
यह बात सुनकर शिवजी तो हंस गए भोल बाबा को ठहरे। पर माता पार्वती से नही रहा गया, खड़ी हो गई। अच्छा तो हम निर्लज्जों को शिक्षा देने के लिए ब्रह्माजी ने तुम्हें ही पण्डित
बनाया है। बेटा ये जगत पिता है, भगवान शिव के स्वरूप
को वास्तविक नाम रूप से बिना जाने इनमें जो दोष दर्शन करता है। मेरी दृष्टि में वह
गंधर्व नहीं, ऐसा स्वभाव तो दैत्यों
का होता है, इसलिए तुम्हारी जो
मति है न वह दुर्मति है। श्रेष्ठ मति नहीं है, मैं तुम्हें शाप देती हूं, की तुम्हे आसुरी योनि में जाना पड़े।
चित्रकेतु के नेत्र खुले मैंने तो बहुत बड़ी गलती
की, जो शिव जी मे दोष
देखा। अरे आत्म चिंतन करते करते जिनका मन आत्मा पर केंद्रित हो जाता है, उसको देहाभ्यास की दृष्टि हो जाती है, और देहाभ्यास खत्म होने के बाद शरीर से उसने क्या
किया इस बात का उसे ध्यान नहीं रहता। यही तो आत्मज्ञानी पुरूष का लक्षण है। माता आपके
शाप को मैं अंजली में लेता हूं, मैंने बहुत बड़ा अपराध
किया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन हूं तो मैं आपका ही पुत्र, आप तो जगत की माता हैं, थोड़ी सी कृपा दृष्टि करें तो मेरा कल्याण हो जाये।
मैं दैत्य बनू असुर बनू, राक्षस बनूं आपत्ति
नहीं। लेकिन प्रभु चरणों में मेरी प्रीति तो बनी रहे, बस मैं इतना चाहता हूं।
माता पार्वती का हृदय पिघल गया, कहती हैं- मैं ने जो शाप दिया वह तो होना ही है। तुम्हे दैत्य
तो बनना ही पड़ेगा, लेकिन भगवत चरणों
के तुम अनुरागी बनोगे। ये वही चित्रकेतु शाप के कारण वृत्तासुर बना, और उन्ही के आशीर्वाद से प्रभु चरणों का प्रेमी
बना।
इस प्रकार परीक्षित के शंका का समाधान हुआ। लेकिन
वृत्तासुर की मृत्यु के बाद असुरों की माता दिति को यह अच्छा नही लगा। वे अपने पती
कश्यप जी की सेवा करने लगीं। कश्यप जी बोले
बड़ी सेवा हो रही है, क्या बात है, कुछ चाहिए क्या?
बोलीं - कुछ नहीं महराज आप प्रसन्न है मेरे लिए तो बस इतना
ही बहुत है। कश्यप जी बोले- नहीं! आज आप कुछ मांग
ही लो। दिति महारानी बोलीं- तो फिर आप मुझे ऐसा
पुत्र दो जो इन्द्र को मारने वाला हो।
क्या?.. इन्द्र को मारने वाला पुत्र।
अब बचन तो दिया है, पूरा तो करना पड़ेगा। फिर भी कश्यप जी सोच समझकर
दिति महारानी को एक व्रत बताया। बोले- देवी! हम तुमको एक सुंदर व्रत बताते हैं, यह व्रत यदि तुम करोगी तो अवश्य तुम्हारी मनोकामना
पूर्ण होगी। परन्तु यदि इस व्रत में कोई त्रुटि रह गई, तो तुमसे होने वाली संतान इन्द्र का मित्र बन जावेगा।
देवी इस व्रत का नाम है “पुंसवन व्रत” अब इस व्रत का नियम सुनो- प्रातः जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर के
मंत्रों का जाप करना मन क्रम वचन से किसी की
भी हिंसा नहीं करनी। घर आये अतिथि को मानशिक क्लेश तक पहुंचाने का अधिकार नहीं होगा।
जितने प्राणी हैं सबसे दया का भाव रखना होगा।
इस प्रकार फिर महारानी दिति ने नियम पूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। नारद जी ने
यह बात जाकर देवराज इंद्र को बताई। तो इन्द्र स्वयं ब्रम्हचारी का रूप धारण करके आये
और माता की सेवा में लग गए। महारानी दिति ने सोचा इतने दिनों से यह व्रत कर रही हुं
तो व्रत पूरा तो हो ही जायेगा। कभी कभी क्या होता है, की जब हमको व्रत या मानो मानस बैठाया है महीने दो
महीने का, तो 15 20 दिन तो बड़ा आनंद आएगा। फिर अचानक से सब ढीले
पड़ जाएंगे। फिर तो मानो समय ही पूरा होता है। जब तक व्रत का आनंद मिल रहा है तब तक
सब ठीक, पर जब समय पूरा करने
की बात आएगी तो वहीं त्रुटियां भी उत्पन्न होनी शुरू हो जाएगी।
एक दिन माता ने कुछ खाया और जूठे मुख ही सो गई।
इन्द्र ने इस त्रुटि को देख लिया, और तुरंत सूक्ष्मरूप
धारण करके माता के गर्भ में प्रवेश कर गया और गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े कर दिए। वेद
मंत्र की शक्ति से वह शिशु मरा नहीं, इन्द्र को यह देख फिर क्रोध आया तो फिर से एक एक
के सात टुकड़े कर दिए। तो ये हो गए 49 इन्हें और काटना चाहा तो उस बालक ने कहा- महराज अब माता के व्रत में त्रुटि तो हो ही गई है
और व्रत के नियम के अनुसार मैं आपका मित्र हो गया हूँ, इसलिए अब शांत हो जाएं। तब इन्द्र उनको लेकर के
गर्भ से बाहर निकले। यह देख माता दिति को क्रोध हुआ, यह देख इन्द्र ने जूठे मुख सोने की बात बताई जिससे
व्रत भंग हो गया। माता दिति को तब वास्तविकता का ज्ञान हुआ। बोलीं- इन्द्र! तुमने सत्य कहा है। इसलिए मैं तुम्हे छोड़
देती हूं। अन्यथा मैं तुम्हे भस्म कर देती।
रामायण में आता है न “ चलत मरुत उनचास” ये वही मरुतगण हैं जो माता दिति से उत्पन्न हुए। यद्यपि ये दैत्यों की माता दिति से उत्पन्न हुए हैं, फिर भी इन्हें देवताओं के यहां पर स्थान प्राप्त हुआ। पुंसवन व्रत की विधि कश्यप जी ने बताई। लेकिन ये कथाएं तीन दिन से सुनते सुनते परीक्षित के मन में एक शंका हुई।
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