इस प्रकार वृत्तासुर को मारने के लिए बज्र का निर्माण हुआ।
अब एक ओर है दैत्य वृत्तासुर की सेना दूसरी ओर हैं देवराज इंद्र की सेना इन दोनों में घोर युध्द प्रारम्भ हो गया।
आपको एक बात बताएं, यह कोई जरूरी नहीं कि सभी देवता भक्त हों और यह भी जरूरी नहीं की सभी दैत्य भक्त नहीं हो सकते।
वृत्तासुर था तो दैत्य पर भगवान का बड़ा भक्त भी था। अनंत जन्मों का पुण्य उसके साथ में था। परंतु देवराज इंद्र ने वज्र से वृत्रासुर का एक हाथ काट दिया और एक पैर भी काट दिया। रणभूमि में पड़ा है वृत्रासुर असहाय होकर और भगवान के चरणों में स्तुति करने लगा।
अहं हरे तव पादैकमूलदासानुदासो भवितास्मि भूयः।
मनः स्मरेनासुपतेर्गुणास्ते गुणीत वाक कर्म करोतु कायः।।
वृत्रासुर बोला- हे प्रभु! शरीर को तो एक दिन जाना ही है इसको कोई रोक नहीं सकता पर मेरे ऊपर कृपा की दृष्टि करो मैं आपके चरणों का दास बनना चाहता हूं। माना कि मैं दास बनने के योग्य नहीं तो
दासानुदासो भवितास्मि भूयः
मैं दासों का दास बन जाऊं यानी "दासत्व की पराकाष्ठा" लेकिन बनाओ मुझे अपना ही दास! मैं मन से ही आपके गुणों का चिंतन करूं, वाणी से आपके गुणों को गाऊं, और शरीर से आपके लिए कर्म करूं।
भगवान बोले- बड़ी स्तुति कर रहे हो, क्या बात है ?.. बताओ तुम्हें क्या चाहिए?
न नाक पृष्ठं न च परमेष्ठ्यम न सार्व भौमं न रासाधिपत्यम।
न योग सिद्धीरपुनर्भवं वा समन्जस त्वा विराहस्य कांक्षे।।
हे भगवान! मैं आपके सिवा और कुछ नहीं चाहता। मैं यह स्वर्ग लोक, ब्रह्म लोक लेकर क्या करूंगा। ना मुझे मोक्ष चाहिए और ना मुझे कहीं का राजा बनना है। हां यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो केवल एक ही वरदान दे दो.. कि 24 घंटे आपकी याद करके मैं रोता रहूं। आपकी याद में रोने का जो आनंद आता है। वह और किसी में नहीं आता है और मैं तो तड़प रहा हूं। हे केशव! आप से मिलने के लिए एक-एक पल मैं आपके बिना कैसे गुजार रहा हूं यह शब्दों में कहा नहीं जा सकता।
आजात पक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता:।
प्रियं प्रियेव व्यषितं विषण्णा
मनोsरविंदाक्ष दिदृक्ष्ते त्वाम।।
हे प्रभु! जब तक पक्षी के पंख नहीं निकलते वह क्या करता है?.. बस घोसले में बैठा रहता है। बछड़ा भी खूंटे में बंधा रहता है। अपनी मां की राह देखता रहता है। की माताजी जब चरके आएंगी तब दूध पीने को मिलेगा। प्रियतम पति जब परदेस जाते हैं तो प्रियतम पत्नी एक-एक दिन गिन कर समय काटती रहती है। बस ऐसे ही केशव आपसे मिलने के लिए मैं भी तरस रहा हूं। आपको बिना देखें मेरी स्थिति भी ऐसी हो गई है।
कैसी तुलसी बाबा कहते हैं-
कामहि नारी प्रिया राजमी, लोभहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहुँ मोहि राम।।
किसी कामी पुरूष को जिस प्रकार नारी प्रिय है, ऐसे राम जी मुझे क्यों प्रिय हो?क्योंकि कामी पुरुष को तो स्त्री से प्रेम होता है लेकिन कामवासना शांत होने के बाद वह प्रेम नहीं रहता तो ऐसा प्रेम मुझे नहीं चाहिए। "लोभही प्रिय जिमी दाम" तो लोभी को जैसे धन से प्रेम होता है और "लाभेेन लाभेन वर्धते लोभः" जितना लाभ बढ़ेगा जितना धन बढ़ेगा उतना ही लोग भी बढ़ेगा।
तो कामी को जैसे स्त्री प्रिय होती है, लोभी को जिस प्रकार धन प्रिय है। राघवेंद्र सरकार बस आप भी मुझे इसी प्रकार प्रिय लगो। मैं कीट पतंगा कुछ भी बनू, पर मुझे सत्संग मिलता रहे ऐसा मुझ पर कृपा करो। यूं कहकर वह जोर जोर से रोने लगा।
अब वृत्तासुर के इस स्तुति को सुनकर देवराज गदगद हो गए। बोले-
अहो दानव सिद्धोसि यस्य ते मतिरी दृशी। भक्तः सर्वात्मनात्मानं सुहृदं जगदीश्वरम।।
एक बात है भैया वृत्तासुर! हो तो तुम हमारे शत्रु लेकिन भगवान के बड़े प्रेमी हो। इच्छा होती है, तुम को गले से लगा ले।
वृत्तासुर बोला- मैं भगवान की स्तुति कर रहा हूं, यह मेरा अपना मामला है। पर तुम्हें जिंदा छोड़ दूं यह संभव नहीं, तुमने मित्र को मारा, गुरु को मारा, भाई को मारा और वृत्तासुर अपनी माया के बल से अपने विशाल मुख को खोला और ऐसा विचित्र आकर्षण किया कि देवराज इंद्र अपने हाथी के सहित पेट में चले गए।
शुकदेव जी कहते हैं- राजन! दूसरा कोई होता तो उसका वृत्रासुर बालभोग ही कर लेता लेकिन देवराज इंद्र को नारायण कवच याद था। यह नारायण कवच इंद्र ने विश्वरूप से सीखा था। सो मन ही मन इंद्र नारायण कवच का पाठ करने लगे जिस कारण से उनकी मृत्यु नहीं हुई और फिर इंद्र उस दैत्य के पेट का भेदन कर उसके उधर से बाहर आ गए। लेकिन वृत्रासुर की मृत्यु के बाद फिर ब्रह्महत्या दौड़ी। क्योंकि वृत्तासुर भी ब्राम्हण ही था। देवराज इंद्र इस बार ब्रह्महत्या के डर से एक सरोवर के कमल नाल में सूक्ष्म रूप धारण कर नाल की तंतु में जा कर बैठे। अब देवता ब्रह्मा जी के पास गए।
बोले- पहले तो आचार्य हमने दूसरे बनाए अब क्या राजा भी दूसरा बनाना पड़ेगा? ब्रह्मा जी बोले- हां! जब तक देवराज इंद्र वापस नहीं आते तब तक तुम राजा नहुष को गद्दी पर बैठा दो। यह जो नहुष है यह चंद्रवंशी राजा है, यह बड़े सुंदर और गुणवान भी हैं।
अब देवता लोग राजा नहुष के पास गए। बोले- साब हम आपको स्वर्ग का इंद्र बनाना चाहते हैं।
इंद्र का नाम सुनते ही राजा नहुष तो प्रसन्न हो गए और आकर स्वर्ग की गद्दी में बैठ
गए। अब उन्होंने जब इंद्र की पत्नी सचि को देखा तो उनके प्रति कुदृष्टि डाली।
महारानी सचि को जब इस बात का पता चला तो देव
गुरु बृहस्पति के पास पहुंची। गुरुजी बोले- तुम चिंता ना
करो, तुम उससे जाकर कहो, तुम तो राजा हो इसलिए हमारे पास पालकी में बैठकर आओ और
तुम्हारी पालकी सप्त ऋषि मंडल के सदस्य लेकर के आए। तो मैं तुम्हें माला पहनाकर
पति रूप में स्वीकार कर लूंगी। अब राजा को तो अभिमान था सो सप्त ऋषि मंडल के बीच
में गए बोले- चलिए हमारी पालकी में लागिये।
अगस्त्य ऋषि ने देखा बोले- यह कौन सा इंद्र
है जो हमको पालकी में लगने को कहता है।
इसने इसमें से कितने तो ऐसे हैं जिनके जीवन में
सैकड़ों इंद्र बदल गए, उनकी इतनी लंबी आयु यह
वही अगस्त हैं, जो गुस्से में आकर
समुद्र पी गए थे। खतरनाक ऋषियों में इनका दूसरा नंबर है। हमारे यहां पांच ऋषि
खतरनाक ऋषि माने जाते हैं। कौन से?.. एक हैं भृगुऋषि
जिन्होंने नारायण की छाती पर लात मारी थी। दूसरे नंबर पर अगस्त्य मुनि है, यह एक सांस में समुद्र पी गए थे। तीसरे है बाबा
दुर्वासा चौथे हैं श्रीमान विश्वामित्र पांचवें हैं फरसा वाले बाबा
परशुराम यह पांच महात्मा ऐसे हुए हैं कि यदि राजी हो जाए तो एक बार में ही
आपकी गोद में कन्हैया को बिठा दें, और नाराज हो
जाएं तो भगवान को भी नहीं छोड़ा।
अगस्त्य जी बोले- मूर्ख हमको
पालकी में लगाता है, चल कोई बात नहीं हम तेरी
इच्छा पूरी करेंगे और लग गए पालकी में। तो संस्कृत में एक धातु है सर्पगतौ धातु! जैसे
हिंदी में कहते हैं ना जल्दी-चलो जल्दी-चलो। तो संस्कृत में यदि सर्पा सर्पा ऐसा कहा जाए तो इसका
मतलब जल्दी चलना होता है। अब राजा नहुष को तो जल्दी थी माला पहनने की, तो अगस्त मुनि के कान में उसने ठोकर लगाई और बोला सर्पा सर्पा
जल्दी चलो। अगस्त जी बोले- क्या सर्पा सर्पा
करते हो। जा मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू अजगर सर्प बनकर नीचे गिर जा।
वह क्षण भर में अजगर सर्प बन कर गिर पड़े। बोले-
महाराज! यह आपने क्या किया?..
अगस्त जी बोले-
मैंने कुछ नहीं किया,
तुमने जो पतिव्रता स्त्री का अपमान किया है,
वह अपमान ही तुम्हें ले डूबा। इस प्रकार राजा नहुष
को सर्प योनि में जाना पड़ा और द्वापर में जब पांडवों के साथ संवाद हुआ उसके बाद
इसे मोक्ष की प्राप्ति हुई।
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