देवता लोग दौड़े-दौड़े ऋषि दधीचि के पास पहुंचे, उनसे प्रार्थना की बोले- महाराज! आप अपने शरीर की समस्त हड्डियां निकाल के हमें दे दो तो बड़ी कृपा होगी। मुनि दधीचि ने कहा- देखो शरीर तो सबको प्रिय होता है और मैं आप लोगों को मना कर दूं तो! तब देवताओं ने बड़ी प्यारी बात कही।
किं नु तद दुस्त्यजं बृह्मन पुंसां भूतानुकम्पिनाम। भवद्विधानां महतां पुण्यश्लोकेsयकर्मणाम।।
महात्मा दधीचि से देवता कहते हैं- कि देने बालों के लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं होती, वह सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि, मांगने वाला तो स्वार्थी होता है, और देने वाला महान होता है। मांगने वाला कभी इस बात को सोचता नहीं कि जो चीज मैं मांग रहा हूं; सामने वाला वह दे पाएगा कि नहीं?.. पर देने वाले की महानता तो इसी में है, कि नहीं देने योग्य वस्तु भी मुसकुराकर देदे। अरे जीना तो उसी का जीना है, जो दूसरों के काम आए। अपनों के लिए तो संसार जीता है।
मुनि दधीचि ने कहा- देखो; आप देवताओं के मुख से सुंदर धर्म की बात जानने के लिए ही मैंने मना किया था। एक दिन तो यह शरीर हमें त्याग ही देना है, और मरने के बाद शरीर तो किसी काम का नहीं होता। आज मैं इस शरीर को त्याग दूं और यह आप लोगों के काम आ जाए तो मेरे लिए इससे बड़े सौभाग्य की बात और क्या होगी।
इतना कह दधीचि ऋषि ने तुरंत समाधि लगाई और धीरे-धीरे अपने श्वांस को ब्रह्म रंध्र में चढ़ाया और मस्तिष्क का भेदन करके प्राण निकल गए। “विष्णु पुराण में आया है; कि उनके शरीर में सतुआ लगाकर गाय से चटवाया”। इस प्रकार से देवता ऋषि दधीचि की हड्डियों से विश्वकर्मा के द्वारा सुंदर वज्र बनवाया।
कृपया इससे आगे की भागवत लिखकर हम सभी के ऊपर अति कृपा करें
जवाब देंहटाएंहमे सब ग्यान भेजो
हटाएंकृपया इससे आगे की भागवत लिखकर हम सभी के ऊपर अति कृपा करें
जवाब देंहटाएंआगे लिखने की कृपा करें भगवन्
जवाब देंहटाएंभूयो भूयो नमामि।
जवाब देंहटाएंआगे लिखने की कृपा करें।
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