शुकदेवजी कहते हैं राजन! एक बार इंद्रदेव को स्वर्ग सुख पाकर बड़ा घमण्ड हो गया। इसी कारण भरे दरबार में अपने आचार्य वृहस्पति जी का अनादर कर बैठे, इस कारण आचार्य वृहस्पति ने इंद्र का त्याग कर दिया।
इस बात की खबर जब शुक्राचार्य को लगी, तो असुरों को स्वर्ग पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। उन असुरों की इस दुष्टता से परेशान होकर सब देवता ब्रह्मा जी के पहुंचे। अपनी विपत्ति का कारण बताया। तब ब्रह्माजी बोले तुम चिंता मत करो, और अब तुम त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बनाओ।
इस प्रकार देवताओं ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना पुरोहित स्वीकार किया। तब विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या से देवताओं के छीना हुआ राज्य राक्षसों से वापस दिला दिया। दरअसल विश्वरूप ने देवराज इंद्र को नारायण कवच का उपदेश दिया। इसी कारण इंद्र दानवों को पराजित करने में सक्षम हो सके।
शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मैंने सुना है कि विश्वरूप के तीन सर हैं। वह एक मुख से सोमरस, दूसरे से मदिरा और तीसरे मुख से अन्न खाते थे। विश्वरूप बड़े उच्च स्वर से बोलकर, बड़े विनम्रता के साथ देवताओं को आहूति देते थे और साथ ही छिप-छिप कर चुपके से असुरों को भी आहूति दिया करते थे। कारण यह था कि उनकी माता असुर कुल की थीं। इसलिए मातृ स्नेह के कारण यज्ञ करते समय असुरों को भी थोड़ा भाग दे दिया करते थे। जिस कारण असुर भी हृष्ट-पुष्ट रहा करते।
जब इस बात का पता इंद्र को चला, कि हमसे कपट कर दानवों को आहुति देते हैं। इस बात से इंद्र डर गए और क्रोध में आकर विश्वरूप के तीनों सर काट दिए। इस प्रकार विश्वरूप नामक ब्राह्मण की हत्या करने से ब्रह्म हत्या इंद्र की ओर दौड़ी, जिसे इंद्र ने स्वीकार कर लिया।
एक वर्ष तक ब्रह्महत्या को अपने पास रखा जिस कारण स्वर्ग से इनका पतन हो गया। अंत में अपनी शुद्धि के लिए ब्रह्म हत्या के चार भाग कर दिए और पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री को बांट दिया। बदले में पृथ्वी ने वरदान मांगा जहां गड्ढे हैं वे अपने आप भर जाएं। और पृथ्वी को ब्रह्महत्या के रूप में ऊसर भूमि को स्वीकार करना पड़ा।
वृक्ष को वरदान मिला कि कोई सा भी हिस्सा कट जाने पर वह पुनः हरा भरा हो जाए, और इस प्रकार गोंद के रूप में ब्रह्म हत्या को अपनाया।
स्त्रियों ने यह वर पाकर की उन्हें गुणवान संतान प्राप्त हो और ब्रह्म हत्या मासिक रज के रूप में स्वीकार किया। जल ने यह वर पाकर की खर्च करते रहने पर बढ़ती रहे और फेन, बुदबुदा आदि के रूप में ब्रह्म हत्या को स्वीकार किया।
अब विश्वरूप की हत्या के बाद उनके पिता त्वष्टा ने पुत्र शोक के कारण एक यज्ञ किया और बोले- है इंद्र शत्रु तुम प्रकट हो और इस दुष्ट इंद्र को मार डालो। और इस प्रकार एक विशाल दैत्य प्रकट हो गया।
महाराज! पहाड़ जैसी उसकी आकृति बड़ी-बड़ी उसकी भुजाएं, “काला-काला विकराल उसका शरीर” नाम था उसका वृत्तासुर। देवराज इंद्र अपनी सेना को लेकर वृत्तासुर से युद्ध करने के लिए आए।
बड़ा विचित्र युद्ध हुआ उसके साथ, अब देवता जितने शस्त्र चलावे वृत्तासुर सब को मुंह से ही चवा जाता। जितने बाण वो चलावें वह सबको निगल जाए।
देवता बोले! बाssप रेss यह तो मरता ही नहीं है, बड़ा विचित्र है। सब रोते-रोते ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी बोले- उसे देखकर तो हमें भी डर लगता है। हम कुछ नहीं कर सकते।
तब सब भगवान नारायण के पास पहुंचे, भगवान बोले- देखो यह व्रत्तासुर उत्पन्न हुआ है मंत्र शक्ति से, “इसलिए” यह किसी भी भौतिक शक्ति से मरने वाला नहीं। हां! इसे मारने का उपाय केवल एक है। तुम लोग “ऋषि दधीचि” के पास जाओ और उनसे उनकी हड्डियां प्राप्त करो, और उन हड्डियों से एक वज्र बनाओ। उसी वजह से इसकी हत्या हो सकती है।
अति उत्तम ज्ञान वर्धक
जवाब देंहटाएंअतिसुंदर कथा
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेकिन विस्तार से बताईए इतने संक्षेप में नहीं कृष्ण।
जवाब देंहटाएंकथा बताने के के लिए धन्यवाद 🙏🙏
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