सोमवार, 14 जनवरी 2019

प्रचेता दक्ष का नारद जी को शाप 58

लकड़ियों की कितनी भी बड़ी राशि क्यों न हो आग की एक चिंगारी उसे जलाकर राख कर देती है। बस इसी प्रकार प्रभू का एक नाम बड़े से बड़े पाप को जलाकर भस्म कर देता है।

परीक्षित जी ने पूछा- गुरुदेव! प्रचेता दक्ष का क्या हुआ? जो प्राचीनवर्हि के पौत्र हैं।

शुकदेव जी बोले- राजन! मैं ने तुम्हें बताया कि जो प्राचीनवर्हि थे उनके 10 पुत्र हुए। यही तो प्रचेता कहलाते हैं। इनका विवाह पारुषी कन्या से हुआ। जिससे दक्ष नाम का पुत्र हुआ और प्रचेताओं ने दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए।

जब प्रचेता दक्ष राजा बने तो सबसे पहले तपस्या की, भगवान प्रसन्न हुए और “असिक्नी” नाम की कन्या को सौंपकर बोले पुत्र अब तुम इसे पत्नी रूप में स्वीकार करो और सृष्टि विस्तार करो। इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए।

शुकदेवजी कहते हैं- राजन! इस प्रकार कालांतर में प्रचेता दक्ष ने 10 हजार पुत्र उतपन्न किए और उन पुत्रों से भी कहा पुत्रो अब तुम भी विवाह कर सृष्टि का विस्तार करने में मेरी मदद करो। तब उन पुत्रों ने कहा अवश्य पिताजी, परंतु सबसे पहले हम तपस्या करना चाहते हैं और इतना कह, वे सभी वन की ओर चल पड़े।

रास्ते में ही नारद जी से भेंट हो गई। नारदजी बोले- पुत्रो तुम सब एक साथ कहां जा रहे हो? उन दक्ष पुत्रों ने देवर्षि को प्रणाम किया और बोले- महाराज हैम सभी तपस्या करने जा रहे हैं। उसके बाद पिताजी के आदेशानुसार विवाह करके सृष्टि विस्तार में सहयोग करेंगे।

नारद जी बोले- वाह क्या बढ़िया कार्य पाया है तुम लोगों ने, क्या तुम्हारा जन्म मात्र संतानोत्पत्ति के लिए हुआ है? नहीं तुम्हारा यह जन्म तो उस परमात्मा के सानिध्य प्राप्ति के लिए है जिसके लिए सन्त, महात्मा तरसते है। उपदेश पा कर दक्ष के सभी 10 हजार पुत्र ईश्वर मार्ग की ओर चले गए।

दक्ष को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि नारदजी ने मेरे पुत्रों को कर्तव्य पथ से विमुख कर दिया तो फिर से उन्होंने एक हजार पुत्र उत्पन्न किए। नारद जी ने उनको भी मोक्ष का रास्ता बताया। जब फिर इस बात का पता चला तो दक्ष ने नारद जी को शाप देदिया।

अहो असाधो साधुनां साधुलिंगेन नास्त्वया। असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित:।। 36।5।6

अरे असाधू तू तो साधू कहलाने के लायक ही नहीं है, तू मेरे भोले भाले बच्चों को भिखमंगो का मार्ग बताता है। जा मैं तुझे शाप देता हूँ, कि तुम कहीं भी स्थिर न बैठ सको, इस लोकालोक में भटकते रहो।

शुकदेवजी कहते हैं, नारदजी दक्ष के इस शाप को स्वीकार कर के अंतर्ध्यान हो गए। अब इस बार दक्ष ने 60 कन्याएं उत्पन्न करी, दक्ष ने इनमे से 10 कन्याएं धर्म को 13 कश्यप ऋषि को सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नाम धारी कश्यप को व्याही।

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