शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अंधेरे को दूर करने के अनेकों उपकरण हैं। बल्व, दीपक, टार्च, लालटेन परन्तु जब भुवन भास्कर का उदय होता है, तो समस्त उपकरण छोटे और फीके पड़ जाते हैं। उसी प्रकार से प्रायश्चित अनेकों है, कोई एकादशी व्रत करता है, कोई यज्ञ अनुष्ठान करता है। पर सर्वोत्तम प्रायश्चित है “भगवन्नाम संकीर्तन” नाम संकीर्तन का प्रकाश जब होता है तो पाप का अंधकार नष्ट हो जाता है।
परीक्षित ने कहा- महाराज! क्षमा कीजिए, बात कुछ जची नहीं। क्यों? बोले- कोई एक प्रायश्चित के करने से भला पाप का अंधकार कैसे दूर हो जाएगा? यह बात कहां तक सच है मेरी तो दिमाग में नहीं बैठती। कोई प्रमाण है इस बात का कि कोई एक प्रभु के नाम से जीवन के सारे पापों को काटकर प्रायश्चित कर लिया हो?..
शुकदेव जी बोले- हां हुआ है। सुनो- अच्छा महाराज! क्या हुआ है? जिसके साथ हुआ है? सब विस्तार से सुनाइए। तब शुकदेव जी ने वह प्रायश्चित सुनाया।
कान्यकुब्जे द्विजः कश्चिद दासी पतीरजामिल:। नाम्ना नष्ट सदाचारो दास्या: संसर्गदूषित:।।21।1।6
कान्यकुब्जे द्विजः कश्चिद दासी पतीरजामिल:। नाम्ना नष्ट सदाचारो दास्या: संसर्गदूषित:।।21।1।6
राजन! यह कन्नौज की घटना है, इस कान्यकुब्ज क्षेत्र में एक अजामिल नाम का ब्राह्मण रहता था। “अजामिल” अजा का मतलब है “माया” जो माया में मिल गया, उसका नाम अजामिल है। यह अपने माता-पिता का भक्त था। माता-पिता ने उसे अच्छे संस्कार दिए, बड़ा हुआ तो एक बार उसने एक स्थान पर किन्हीं दो पशुओं का संसर्ग देख लिया, जिससे उसके अंदर विकार पैदा हुआ। समय व्यतीत हुआ उसके माता-पिता स्वर्ग पधार गए। अब महाराज यह अकेला अपने घर में स्वतंत्रत रहता तो इसने किसी वेश्या को अपने घर ले आया।
अब महाराज यह धन की आपूर्ति और वैश्या के जरूरतों को पूरा करने के लिए डकैती करने लगा। अपने परिवार के पालन पोषण के लिए चोरी करता डकैती करता समय व्यतीत हुआ। हत्याएँ करने लगा तथा किसी भी प्रकार से धन प्राप्ति हेतु अन्यायपूर्ण कर्म करके उसे सन्तुष्टि प्राप्त होने लगी। स्थिति यह हुई कि वेश्या से अजामिल को नौ पुत्र प्राप्त हुए तथा दसवीं सन्तान उसकी पत्नी के गर्भ में थी।
एक दिन कुछ सन्तों का समूह उस ओर से गुजर रहा था। रात्रि अधिक होने पर उन्होंने उसी गांव में रहना उपयुक्त समझा, जिसमें अजामिल रहता था। गाँव वालों से आवास और भोजन के विषय में चर्चा करने पर गाँव वालों ने मजाक बनाते हुए साधुओं को अजामिल के घर का पता बता दिया। सन्त समूह अजामिल के घर पहुँच गया। उस समय अजामिल घर पर नहीं था। गाँव वालों ने सोचा था कि आज ये साधु निश्चित रूप से अजामिल के द्वार पर अपमानित होंगे तथा इन्हें पिटना भी पड़ेगा। आगे से ये स्वयं ही कभी इस गाँव की ओर कदम नहीं रखेंगे। सन्त मण्डली ने उसके द्वार पर जाकर राम नाम का उच्चारण किया। घर में से उसकी वही वेश्या पत्नी बाहर आई और साधुओं से बोली- "आप शीघ्र भोजन सामग्री लेकर यहाँ से निकल जायें अन्यथा कुछ ही क्षणों में अजामिल आ जायेगा और आप लोगों को परेशानी हो जायेगी।" उसकी बात सुनकर समस्त साधुगण भोजन की सूखी सामग्री लेकर उसके घर से थोड़ी ही दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भोजन बनाने का उपक्रम करने लगे। भोजन बना, भोग लगा और सन्तों ने जब पा लिया, तब विचार किया कि यह भोजन किसी संस्कारी ब्राह्मण कुलोत्पन्न के घर का है। किन्तु समय के प्रभाव से यह कुसंस्कारी हो गया है।
सभी सन्त पुन: फिर से अजामिल के घर पहुँचे। उन्होंने बाहर से आवाज़ लगाई। अजामिल की स्त्री बाहर आई। सन्तों ने कहा- "बहन हम तुमसे एक बात कहने आये हैं।" स्त्री ने बताने के लिए कहा। सन्तों ने कहा- "तुम्हारे यहाँ जन्म लेने वाले शिशु का नाम 'नारायण' रखना।" संतगणों के ऐसा कहने पर अजामिल की स्त्री ने उन्हें ऐसा ही करने का वचन दिया। अजामिल की स्त्री ने दसवीं सन्तान के रूप में एक पुत्र को ही जन्म दिया, और उसका नाम 'नारायण' रख दिया। नारायण सभी का प्रिय था।
अब अजामिल स्त्री और अपने पुत्र के मोह जाल में लिपट गया। कुछ समय बाद उसका अंत समय भी नजदीक आ गया। अति भयानक यमदूत उसे दिखलाई पड़े। भय और मोहवश अजामिल अत्यंत व्याकुल हुआ। अजामिल ने दु:खी होकर अपने पुत्र नारायण को पुकारा।
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