यह सुनकर राजा के कान खड़े हो गए, ये बाबा जी आप कौन हो? देखने में तो पागल से दिखाई देते हो, पर वाणी तो वेदांत की करते हो। राजा ने गौर से देखा तो कंधे में यज्ञोपवीत दिखाई पड़ा। ओहो…. ये कोई ब्राम्हण देवता तो नहीं?...
पालकी से कूद पड़े रहूगण महाराज भरत जी के चरणों में गिर कर क्षमा मांगी।
कस्त्वं निगूढ़श्चरसि द्विजानां। विभर्षि सूत्रं कतयोsवधूतं।।
कस्त्वं – महाराज आप कौन हैं?..
जो भेश बदलकर इस प्रकार भृमण कर रहे हैं?.. आप शायद मेरा ही कल्याण करने के लिए इस भेश को धारण किया है। महाराज! मैं एक बात कहूं?.. इस दुनिया में मैं किसी से नहीं डरता।
नाहं विशंके सुरराज बज्रान, त्र्यक्ष शूलान्न यमस्य दण्डात। नाग्न्यर्क सोमानिल वित्तपास्त्रात, शंके भृशं ब्रह्मकुलावमानात।।
मैं इंद्र के वज्र से नहीं डरता, शिवजी के त्रिशूल से नहीं डरता, किसी से भी नहीं डरता, यहां तक कि कालदंड से भी नहीं डरता। मैं डरता हूं तो सिर्फ ब्राम्हण के क्रोध से, इसलिए महाराज कहीं आप ब्राम्हण देवता तो नहीं है?...
जड़भरत जी बोले- हम हैं तो ब्राह्मण ही पर घबराओ मत हम खतरनाक ब्राह्मण नहीं है, तुम्हें साफ नहीं देंगे। यह सुनकर राजा थोड़ा शांत हुआ। फिर बोला- बाबा जी! बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? भरत जी बोले- बिल्कुल!
बाबा जी! अभी आपने कहा कि मैं तो द्वन्दातीत आत्मा हूं। मुझे सुख, दुख नहीं होता, यह बात मुझे समझ में नहीं आई। आपको दुख नहीं होगा तो किसे होगा। अरे चूल्हे में पड़ी रोटी ना जलेगी तो कौन जलेगा?.. जैसे चूल्हा जल रहा है, चूल्हे पर पतेली है पतेली में पानी और पानी में चावल है। तो आग के ताप से पतेली गरम होगी, पतेली के गरम होने से पानी गरम होगा, और पानी के गरम होने से चावल भात बन जाएगा।
महाराज इसी प्रकार जब शरीर को कष्ट होगा तो इंद्रियों को कष्ट होगा, और जब इंद्रियों को कष्ट हुआ तो मन को भी कष्ट होगा और मन को कष्ट हुआ तो आत्मा को भी कष्ट होना ही चाहिए। यह आपने कैसे कह दिया कि आत्मा हूं, मुझे सुख-दुख, कष्ट-पीड़ा नहीं होता। मैं इस बात को कैसे मानूं।
जड़भरत जी हंसकर बोले राजन हो तो तुम मूर्ख पर विद्वानों का सत्संग सुन-सुनकर तुम्हें योग्यता पूर्ण बातें बनाना आ गया है। पर आता जाता कुछ भी नहीं।
अकोविदः कोविदवादवादान।
वदस्यथो नाति विदां वरिष्ठ:।।
हो मूर्ख पर ज्ञानियों जैसी बातें बनाते हो, अरे भाई तुमने पानी का चावल का बटलोई का आग का दृष्टांत दिया। पर यह सब जड़ पदार्थ है, जड़ की तुलना आत्मा से करना चाहते हो?.. आत्मा कोई जड़ है क्या?.. महाराज आत्मा तो चैतन्य है और चैतन्यता जैसी आत्मा को जड़ से मिला रहे हो।
देखो बटलोई को जला सकती है आग, पानी को उबाल सकती है आग, चावल को भात बना सकती है आग, पर बटलोई का जो आकाश है उसे थोड़ी तपा सकती है आग। आत्मा तो आकाश के समान निरावयव होता है। जैसे- आकाश को आप पकड़ नहीं सकते, आकाश को आप काट नहीं सकते, आकाश को आप दबा नहीं सकते। उसी प्रकार आत्मा भी आकाशवत है। उसे कोई नहीं कर सकता।
ऐसा उपदेश दिया जड़भरत जी ने की राजा रहूगण के होश उड़ गए। राजा का सारा अज्ञान मिट गया। भरत जी ने फिर भवाटवी का उपदेश देकर उसका सारा अज्ञान भंग कर दिया।
।।बोल भक्त वत्सल भगवान की जय।।
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