ऐसा सुंदर उपदेश दिया नारद जी ने प्राचीनवर्हि को तब वह अहिंसा के मार्ग पर लौटा। राजा प्राचीनवर्हि के 10 बेटा थे। जिन्हें प्रचेता गण कहते हैं। उन्होंने शुकदेवजी से ही रुद्र गीत सुना, सत्संग की महिमा सुनी और बाद में मारिषा नाम की कन्या से विवाह किया। तब दक्ष नाम के पुत्र हुए। ये वही दक्ष हैं जिन्होंने नारद जी को भटकते रहने का श्राप दिया।
इस प्रकार प्रचेता गण, दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए। रास्ते में नारद जी से भेंट हुई, नारद जी ने यहां पर प्रचेताओं को तीन सूत्र दिए।
दयया सर्वभूतेषु संतुष्टया येन केन वा।
सर्वेन्द्रि योपशान्तया च तुष्यत्याशु जनार्दन:।।
1. पहला सूक्त है “दयया सर्वभूतेषु” प्राणी मात्र पर दया करो।
2. दूसरा सूक्त है “संतुष्टया येन केन वा” तुम्हारे पास जो भी जितना भी है उसी में संतुष्ट रहो।
3. तीसरा सूक्त है “सर्वेन्द्रि योपशान्तया च तुष्यत्याशु जनार्दन:।“ अपनी इंद्रिय रूपी घोड़े को सम्हाल के रखो इंद्रिय रूपी घोड़े यदि पेशियों में भटकेंगे तो तुम्हारी देह रूपी रथ को ही गड्ढे में दे मारेंगे।
इसलिए इंद्रियों को वश में करना सीखो और हर परिस्थिति में जिसने जीना, रहना सीख लिया। भगवान उस पर बहुत जल्द प्रसन्न हो जाते हैं। नारद जी ने यह तीन सूत्र बताए और यहीं पर चौथा स्कन्ध समाप्त होता है, अब पंचम स्कन्ध में प्रवेश करते हैं।
पंचम स्कंध में प्रियव्रत का चरित्र है, शुकदेव जी महाराज कहते हैं- राजा मनु के जो बड़े पुत्र प्रियव्रत हैं, पहले तो इन्हें नारद जी का उपदेश सुन वैराग्य हुआ। बाद में ब्रह्माजी के समझाने पर इन्होंने विवाह किया। पहली रानी के एक और दूसरी रानी के 3 पुत्र हुए महाराज प्रियव्रत ने सोचा हम रात्रि को होने ही नहीं देंगे, क्योंकि लोग रात्रि में सो करके अपना समय खराब कर लेते हैं। तो सूर्य के ही समान एक विमान प्रकट किया। पृथ्वी के सात परिक्रमा लगाएं और 7 दिन तक रात ही नहीं होने दिया। जब ब्रह्मा जी ने समझाया, तब ऐसा करना छोड़ दिया। उस सूर्यरथ के ही प्रताप से पृथ्वी पर सात द्वीप और सात समुद्र हो गए।
प्रियव्रत महाराज के जो 10 बेटा थे, उनमें से 3 तो महात्मा हो गए बचे सात, तो उन्हें उन नौ द्वीपों का राजा बना दिया और अंत में खुद भजन करने वन में चले गए।
प्रियव्रत के बड़े पुत्र का नाम था जिसका विवाह पूर्वचित्ती नाम की अप्सरा से हुआ। इसके 9 बेटा हुए तब इन्होंने जंबूद्वीप के नौ खंड करके इन 9 द्वीपों को बराबर बांट दिया। अवनींद्र के बड़े पुत्र थे नाभि जिनका विवाह मेरुदेवी से हुआ परंतु इनको कोई संतान नहीं हुई फिर इन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। जिससे प्रसन्न हो भगवान स्वयं प्रगट हो बोले वर्मा को हम बहुत प्रसन्न हैं ना भी भगवान को देख गदगद हो गए तब ब्राह्मणों ने कहा प्रभु राजा आप जैसी संतान चाहते हैं भगवान ने कहा मेरे जैसा तो मैं ही हूं पर ब्राह्मणों ने कहा है तो हम ही तुम्हारे यहां बेटा बनकर आएंगे और कालांतर में मेरु देवी के यहां ऋषभ देव जी का जन्म हुआ।
ऋषभदेव भगवान की जय।।
भारत के ज्ञानी जनों से अनुरोध है कि वे भगवान के भक्तों के बारे में विस्तार से ज्ञान चर्चा करने की कृपा करें ताकि जो विवेचना भक्तमाल में संक्षिप्त रूप में है वह और विस्तृत होकर पिपासू जनों को तृप्त कर सके. कोटि कोटि धन्यवाद.नमन.🙏🙏
जवाब देंहटाएंआचार्य जी आपका लेख बहुत ही ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक है । आपको कोटि कोटि नमन । आप जैसे ज्ञानीजनों के कारण ही श्रीमद्भागवत का प्रचार-प्रसार और सही ज्ञान जन-जन तक पहुंचाना संभव हो पाया है ।
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