ब्राह्मण लोग हवन में स्वाहा करने ही वाले थे कि ब्रह्मा जी ने हाथ पकड़ लिया। पंडित जी महाराज! क्या गड़बड़ कर रहे हो, देवराज इंद्र को ही स्वाहा करने लगे। ब्रह्मा जी को प्रणाम किया तब ब्रह्मा जी ने महाराज पृथु को समझाया, पुत्र हम तुम्हारे यज्ञ से बहुत पसंद है। तुम इंद्र को क्षमा कर दो पितामह की बात सुनकर के इंद्र को हृदय से लगाया और पृथु महाराज के इस स्नेह शीलता से प्रकट हो गए भगवान श्री हरि। बोलिए लक्ष्मी नारायण भगवान की जय।
यहां पर 9 श्लोकों में वंदना स्तुति करी है पृथु जी ने। भगवान प्रश्न हो बोले तुम्हें क्या चाहिए पुत्र?...तब पृथु जी ने कहा प्रभु मुझे कुछ नहीं चाहिए और यदि कुछ देना ही है, तो मुझे- विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः।।
आप मुझे कुछ देना चाहते हैं; तो बस मुझे 10,000 कान दे दें। भगवान बोले इस 10,000 कानों से क्या करोगे?
बोले प्रभु दुनिया में कहीं भी आप की कथा हो रही हो, वह कथा मैं घर बैठे सुनना चाहता हूं। आप की कथा हो जाए और मैं ना सुनू! तो मुझे बड़ी ग्लानी होती है। इसलिए मुझे 10,000 कान दे दो ताकि मैं किसी भी कथा से वंचित ना रह पाऊं।
पृथु महाराज की स्तुति से गोविंद प्रसन्न हुए महाराज पृथु ने अपने पुत्र विजताश्व को सत्ता सौंपकर भजन को भा गए। देवाराधना से अंत में परम पद को प्राप्त किया। इन्हीं के कुल में आगे चलकर राजा प्राचीनवर्जित हुए। राजा बहुत बड़े कर्मकांडी थे, कमी इनमें सिर्फ इतनी थी; कि प्रत्येक यज्ञ में यह पशुओं की बलि चढ़ाया करते थे। हिंसात्मक यज्ञ होने लगे, तब नारद जी आए और राजा को एक उपाख्यान सुनाया। वही पुरंजन उपाख्यान है, लेकिन यह उपाख्यान प्राचीनवर्ही के समझ में नहीं आया। तब नारद जी ने विस्तार से बताया।
पुरंजन और कोई नहीं, हम तुम ही पुरंजन हैं यानी आत्मा और जो अभिज्ञात है वह परमात्मा है। यह दोनों सच्चे सखा है जीवात्मा और जीवात्मा जब परमात्मा से पृथक हो कर संसार में आता है तो परमात्मा कहते हैं। मित्र जा तो रहे हो; पर हमें भूल मत जाना। लेकिन यह आत्मा ही ठहरी इस मायावी संसार में आते ही परमात्मा को भूल जाता है और दूसरों से स्नेह लगा लेता है। बड़े भक्त बनते हो; कभी परमात्मा को देखा है?.. अरे देखा तो तूने भी है पर खुद भूल कर उसे भी अलग करना चाहता है। खुद तो भजन करते नहीं और दूसरों को भी रोकते हैं। अगर कोई भगवान को जानने की कोशिश भी करता है; तो उससे ही भगवान की परिभाषा पूछने लगते हैं। बस परमात्मा को भूल कर के इस जन्म-मरण के प्रपंच में ही पड़ा रहता है। घूमते-घूमते उसे एक बंगला मिला जो उसे पसंद आया और उसी में वह प्रवेश कर गया। मतलब 84 लाख योनियां है गधा बना, घोड़ा बना, कुत्ता बना, सांप बना, पक्षी बना पर इनमें से कोई भी शरीर इसे पसंद नहीं आया।
जब वह मानव शरीर में आया जिसमें 9 दरवाजे हैं जब 9 दरवाजे की पुरी में प्रवेश किया पुरंजन ने, तो जीव आत्मा की पहली मित्रता होती है एक कन्या से। वह कन्या कौन है? इस शरीर की स्वामिनी है बुद्धि। क्योंकि बुद्धि के ही निर्णय से तो सारी इंद्रियां काम करती हैं। 10 सैनिक हैं, पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां; ज्ञानेंद्रियां है- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। कर्मेंद्रियां हैं- हाथ-पैर, मुख, गुदा और मूत्र द्वार।
एक पांच फन वाला सर्प भी है जो पांच प्राण उदान, अपान, प्राण, समान, व्यान। अब जो दस इंद्रियां हैं उनका एक सेनापति भी तो है; कौन?... वह है मन। मन के आदेश से ही तो सभी इंद्रियां काम करती हैं। यह तो हुई इन बंगले की बात, अब वह कौन है जिस से कोई शादी नहीं करना चाहता, वह है जरा। जरा माने बुढ़ापा; दुनिया में कोई भी ऐसा नहीं जो चाहता हो कि मैं बूढ़ा हो जाऊं। चन्डवेग का मतलब है, संवत्सर! यह वर्ष के रूप में चन्डवेग है जिसके पास 365 दिन और 365 रात्रियां हैं। जो सेना का काम करती हैं। बालक का जब से जन्म होता है तब से ही जरा नाम की कन्या दिन और रात्रि नामक सैनिकों को लेकर आक्रमण करना शुरु कर देती है। वह कन्या आक्रमण करते-करते जब जवानी के बाद बुढ़ापा आता है अर्थात जरा को अपना लेता है। जरा जब आक्रमण करती है तो सबसे पहले कर्मेंद्रियां अपना काम करना बंद कर देती है। फिर ज्ञानेंद्रियां इस प्रकार से 10 सैनिक मारे जाते हैं। फिर पंचप्राण अपने को अकेला समझता है तो वह भाग जाता है और फिर बुद्धि और मन भी आत्मा को छोड़ कर चले जाते हैं। अपनी पत्नी की याद में वह आत्मा रोता है। फिर दूसरी शादी करने की सोचता है। बस इसी प्रकार वह यहां से वहां भटकता रहता है।
यह ब्लाॅग मैंने भागवत ज्ञान के लिए लिखना प्रारम्भ किया ताकि भागवत कथा का मूल ज्ञान हम सब जान सकें.. !
शनिवार, 14 जुलाई 2018
पुरञ्जनोपाख्यान 49
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बहुत सुंदर कथा
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर व्याख्या की कृपा की है.नमन🙏🙏
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