इधर ध्रुव जी को जब पता चला कि किसी यक्ष ने उसे उनके छोटे भाई की हत्या कर दी तो युद्ध करने निकल पड़े और कईयों का संघार कर दिया। तब मनु महाराज प्रकट होकर बोले- बेटा यह क्रोध छोड़ दो, यह क्रोध का समय नहीं। यह क्रोध जो है नर्क का कारण होता है। एक यक्ष ने तुम्हारे भाई को क्या मार दिया तुमने लाखों यक्षों को मार दिया यह कहां की बुद्धिमानी है। ध्रुवजी को बड़ी ग्लानि हुई पितामह गलती हो गई अब क्या करूं। मनु महाराज ने कहा- जाओ जाकर यक्षों के राजा कुबेर से जाकर क्षमा मांगो। ध्रुव जी ने महाराज कुबेर से क्षमा मांगी तो कुबेर प्रसन्न हो बोले! बेटा तुझे क्या चाहिए। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। ध्रुवजी बोले- न-न महाराज! यह वरदानों से मुझे अब डर लगने लगा है। मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस परमात्मा से मेरा प्रेम बना रहे, बस! यही आशीर्वाद दो। कुबेर ने कहा- वाह! तुम धन्य हो, बेटा न तुमने यक्षों को मारा है और न किसी यक्ष ने तुम्हारे भाई को मारा है। जो होना था सो हो गया। तुमने बैर त्याग दिया, क्षमा मांग ली! बस यही प्रायश्चित है। जाओ भगवान के चरणों में तुम्हारी प्रीति बनी रहे, यह मेरा आशीर्वाद है।
जब ध्रुवजी बड़े हुए तो राज्य अपने पुत्र उत्कल को सौंपकर वन में चले गए। जब 36,000 वर्ष का समय बीता एक दिन ध्रुवजी संध्या वंदन कर रहे थे कि तभी देखा एक सुंदर दिव्य विमान उनके सामने प्रकट हुआ। वह ऐसा लग रहा था मानो साक्षात सूर्य नारायण का रथ हो। भगवान के पार्षद उस विमान पर विराजमान थे पार्षदों ने विमान से उतरकर ध्रुवजी को प्रणाम किया।
बोले- भैया जी प्रभु ने आपको याद किया है। ध्रुव जी शीघ्र ही नित्य-कर्म से निवृत्त हो भू-देवी को प्रणाम किया और जैसे ही विमान में बैठने लगे, सामने एक वृद्ध आ गया। बोला रुको! ध्रुवजी ने देखा बोले- तुम कौन हो? वृद्ध बोला- मेरा नाम है मृत्यु। महाराज! इस मृत्युलोक में जो भी पैदा हुआ है, वह मुझे स्पर्श किए बिना यहां से नहीं गया। तो तुम सशरीर यहां से कैसे जा सकते हो? बेटा! तुम्हारे अंदर भक्ति का इतना प्रभाव है कि मैं तुम्हें स्पर्श भी नहीं कर सकता।
इसलिए प्रत्यक्ष रुप से मैं प्रगट हो, तुमसे प्रार्थना करता हूं; कि तुम पहले मेरा स्पर्श करो और फिर इस विमान पर बैठो। ताकि इसमें मेरी मर्यादा बनी रहे। ध्रुव जी महाराज ने मृत्यु के सिर पर अपना पैर रखा और विमान में चढ़कर बैठ गए।
मृत्योर्मूर्धित पदं दत्त्वा आरुरोहाद्भुतं गृहम।
मृत्यु के सर पर पैर रखने की शक्ति केवल भक्ति में ही हो सकती है। अन्यथा मृत्यु किसी को छोड़ती नहीं। भक्त तो मृत्यु की मर्यादा अर्थात भगवान के द्वारा बनाई मर्यादा का पालन करते हैं। ध्रुव जी महाराज विमान में बैठ गए, आगे बढ़े कि अचानक उन्हें याद आया; कि हमारी माताजी तो नीचे ही रह गई। पार्षदों से कहा। नीचे चलो हमारी माता जी धरातल पर अकेली रह गई हैं। उन्हें भी तो साथ ले जाना है। पार्षद मुस्कुराने लगे! महाराज आपके जैसा भक्त हमने कभी नहीं देखा। भला महान भक्त को जन्म देने वाली जननी नीचे कैसे रह सकती है। आगे देखो वह जो विमान जा रहा है ना; वह आपकी माता जी का ही है। वह विमान में महारानी सुनीति जा रही हैं।
बोल भक्त वत्सल भगवान की जय।।
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