बुधवार, 11 जुलाई 2018

ध्रुव जी को माँ का उपदेश 41

सुरुचि ने भक्त और भगवान दोनों का अपमान किया, सुरुचि अपने गर्भ को भगवान से भी ऊंचा बताया। तू पहले तपस्या कर, जब भगवान मिले तो वरदान मांगना! की हे प्रभु- मेरा जन्म सुरुचि के पेट से हो। तो जब तू मेरे यहां जन्म लेगा तब इस सिंहासन पर बैठेगा।

इसका मतलब कि मेरा गर्भ भगवान से भी ऊंचा है। इस प्रकार भगवान का भी अपमान और भक्त का भी अपराध हुआ। ध्रुव जी को ऐसा लगा कि सर्प को किसी ने डंडा मारा हो। फुस्कारते हुए, लाल लाल आंखें लिए जब कुछ काम ना बना तो अपने घर लौट आए। रोते हुए अपने घर पहुंचे सुनीति मा ने दूर से जब अपने पुत्र को रोते हुए देखा तो दौड़कर गोद में उठा लिया।

अरे पुत्र क्या हुआ? किसने मारा तुझे पर ध्रुव जी महाराज का तो कंठ ही अवरुद्ध हो गया मानो। बोल ही नहीं पा रहे थे, छोटे छोटे बालकों ने बताया। उन्होंने जो सुना जो देखा समझा यथावत सुना दिया। सुनीति मां के हृदय में तो मानो वज्रपात हो गया हो। सुरुचि ने सुनीति को घर से निकलवाया। उस पीड़ा का सहन तो कर लिया सुनिधि ने, पर आज उसके इकलौते पुत्र पर इस प्रकार से व्यंग बाण, व्यंग वचन किए उसको पिता की गोद से उतार कर भगा दिया।

मां अपने पर गुजरे हर संकट को सहन कर सकती है पर उसके बच्चे को कोई टेढ़ी निगाह से भी देखें यह मां के लिए असहनीय हो जाता है। सुनीति मां को बड़ा भारी दु:ख हुआ, पर धन्य है सुनीति का धैर्य! इस पीड़ा को भी वह पी गई। ध्रुव के सामने वेदना प्रकट नहीं होने दिया। सुनीति मां को लगा मैंने अपनी वेदना प्रगट कर दी दु:ख प्रकट किया तो मेरे बालक के हृदय में चोट पहुंचेगी। यह अभी बच्चा है तो कहीं इसका ह्रदय द्वेश की चिंगारी से भड़क उठे। इसमें कहीं द्वेश की भावना जागृत ना हो।

भगवत प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है द्वेश इस लिए सुनीति महारानी ने अपनी पीड़ा को प्रकट होने नहीं दिया। अभी तो उल्टे सुरुचि के हर बात का अनुमोदन करने लगी। अरे बेटा ध्रुव! जैसी मैं हूं! वैसी ही वह भी तो तेरी मां है क्या मैं तुझे नहीं डांटती? उसमें क्या हुआ तुम्हें उसने क्या अनुचित कहा मेरी समझ में तो नहीं आया।

सत्यं सुरुच्याभिहितं भवान्ये
यद दुर्भगाया उदरे गृहीतः।
स्तन्येन वृद्धश्च विलज्जते यां
भार्येति वा वोदुमिडस्पतिर्माम।।
जो कुछ भी कहा सच का यथार्थ कहा ध्रुवजी चौके मां आप उस सौतेली मां का अनुमोदन करती हो।

सुनीति ने कहा- बेटा संसार का प्रत्येक प्राणी गुण और दोष से भरा पड़ा है। अच्छी-बुरी बात सब करते हैं। पर बुद्धिमानी तो यह है की अच्छी- अच्छी बात को स्वीकार कर लो और जो समझ में ना आवे उस बात को छोड़ दो।

जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन महही पय परहरि वार विकार।। हंस जैसे दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है। सत्पुरुष को चाहिए गुण ग्रहण करें, अवगुण को छोड़ दे। बेटा तेरी मां ने दो बातें कही हैं एक तू तपस्या कर और दूसरा भगवान से वरदान मांग। कि सुरुचि के गर्भ से जन्म मिले तो इसमें आधी बात मानने योग्य है और आधी छोड़ने योग्य।

बेटा तू जा! जाकर तपस्या कर परम पुरुष नारायण की आराधना कर। तो यह बात तो मैं भी मानती हूं इसमें हर्ज ही क्या है। तू उस पिता की गोद में क्यों बैठना चाहता है जो संसारी है। वह तो सिर्फ मेरे तेरे पिता है ना। पर भगवान नारायण तो संपूर्ण विश्व के पिता है, तू तो उस नारायण की गोद में बैठने का अधिकारी है फिर उस संसारी पिता की क्या बात है। तेरी मां ने कहा की तप कर। फिर जब भगवान प्रगट हो तो उनसे वर मांग की तेरा जन्म उसकी कोख से हो।

तो यह बात मुझे भी पसंद नहीं इसलिए इस बात को न मानो जो मानने वाली है उसे स्वीकार करो। घुमा फिराकर सुनीति ने सुरुचि के ही वाक्यों का अनुमोदन कर दिया ताकि मेरे ध्रुव के कोमल हृदय में सौतेली मां के प्रति द्वेश की भावना जागृत ना होवे। ध्रुव जी का सीधा सरल स्वभाव, मां से पूछ लिया मां! तुम भी कहती हो कि भगवान की आराधना करो। तो यह बताओ कि भगवान रहते कहां हैं, उनका पता दो मैं आज ही उनसे मिलने जाऊंगा। मां सुनीति ने कहा देख बेटा उनके रहने का कोई एक स्थान होता तो पता लिख देती।

उसका नाम है "विष्णु" जो संसार के कण-कण में समाया है। ध्रुव जी बोले- वह सब जगह है तो दिखाई क्यों नहीं देता?

सुनीति ने कहा देख बेटा दूध से ही घी निकलता है पर क्या दूध में घी दिखाई देता है नहीं अभ्यास करो तो फिर उसी दूध से घी निकल पड़ता है। दूध में घी है तभी तो निकलता है पर दूध के रूप में "घी" इतना समाविष्ट है कि वह दिखाई नहीं पड़ता। प्रयास करो तो प्रगट हो जाएगा। तो जैसे दूध में घी समाया है वैसे ही इस जगत में जगदीश समाया है। प्रेम पूर्वक पुकारोगे तो वहीं से प्रगट हो जाएंगे।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।।
बेटा वह सब जगह रहते हैं प्रेम से जो पुकारे जहां पुकारे वहीं से प्रगट हो जाते हैं ध्रुव जी के कोमल हृदय में यह बात बैठ गई।

5 वर्ष की अवस्था वाले बालक से बहुत प्रेम करना चाहिए 5 से 15 वर्ष तक के बच्चों में संस्कार डालने की अवस्था होती है उस समय प्रेम से अधिक संस्कार पर ध्यान देना चाहिए।

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