अब मनु महाराज के दो पुत्र हैं जिनका नाम है प्रियव्रत और उत्तानपाद; ‘प्रियव्रत तो अपने छोटे भाई उत्तानपाद को ही राज भार सौंप कर वन में तपस्या करने चले गए। महाराज उत्तानपाद की रानी का नाम था सुनीति इनको कोई संतान नहीं हो रहा था इसलिए राजा ने सुनीति के कहने पर ही दूसरा विवाह किया जिनका नाम सुरुचि है।
परंतु सुरुचि राजमहल में आते ही बड़ी रानी सुनीति को महल से बाहर निकलवा दिया।
सुरुचि: प्रेयसी पत्युर्नेतरा यत्सुतो ध्रुव:।।
कहते हैं जो बड़ी रानी है उनको बाद में एक पुत्र हुआ जिसका नाम था ध्रुव और दूसरी रानी सुरुचि को उत्तम नाम का पुत्र हुआ। अब जरा ध्यान से सुनना, दूसरी रानी जो है वह राजा उत्तानपाद को आसक्ति में बांध लिया था।
दरअसल हम सभी उत्तानपाद हैं। उत्तान पाद का मतलब? जिसके दोनों पैर ऊपर हों। जीव जब मां के गर्भ में रहता है तब उसके पैर ऊपर की ओर होते हैं। इसलिए हम सब उत्तानपाद हैं और हम जीवों की मुख्य दो पत्नियां हैं। कौन सी?.. “सुनीति और सुरुचि” सुनीति माने सुंदर नीति बुद्धिमानी और सुरुचि माने सुंदर रुचि अर्थात मनमानी, अब बुद्धि भी दो प्रकार की होती हैं।
एक सद्बुद्धि दूसरी दुर्बुद्धि बुद्धिमानी और मनमानी यह दो पत्नियां हम सब की प्रत्येक जीव की है। सुंदर नीति सुंदर ज्ञान शास्त्रों का जिसके आधार पर अपने जीवन को चलाना है, शास्त्र के सिद्धांत पर अपने जीवन को अग्रसर करना है तभी तो ध्रुव की प्राप्ति होगी। ध्रुव माने अटल स्थिर तत्व की प्राप्ति कब होगी?.. जब सुनीति का आश्रय लोगे, जब बुद्धिमानी का आश्रय लोगे और यदि बुद्धिमानी छोड़ मनमानी के चक्कर में पड़ गए तो मनमानी का दूसरा नाम है सुरुचि, मतलब सुनीति की सौत इच्छाओं और मनोकामना का नाम है सुरुचि। अब कामनाएं अच्छी हों, तो ठीक है पर कामनाएं तो कई प्रकार की होती हैं। अच्छी भी बुरी भी तो व्यक्ति जब कामनाओं के पीछे पड़ जाता है। कि नहीं यह होना ही चाहिए तो कभी पूरी नहीं होती है एक आवश्यकता पूरी हुई दूसरी द्वार पर खड़ी है।
दूसरी बात; अब सुरुचि का पुत्र कौन है? उत्तम! हमने यदि अपनी बुद्धि वस्तुओं की इच्छाओं में फसाया तो कामनाएं और बड़ी होंगी। फिर वह उत्तम ही करता है कभी चोरी, तो कभी डकैती, अरे वस्तु को पाने की इच्छा हुई धन है, हमने उसे खरीद लिया। परंतु इच्छा है धन नहीं है, तो परिणाम क्या हुआ?.. हम चोर कहलाएंगे मतलब कि उस चीज, उस वस्तु को हमें पाना है उसके लिए हम चाहे जिस हद तक जाएं किसी को मारना पड़ेगा चाहे जेल भी क्यों न जाना पड़े। यही है उत्तम सुरुचि का पुत्र।
अब उत्तानपाद जब सुरुचि के प्रेम पास में फंस गया तो सुनीति को घर से निकाल बाहर किया उसका मतलब क्या?.. मतलब कि हर प्राणी कामनाओं की पूर्ति में ही प्रसन्न होता है। महाराज! पर यह याद रखो कि सुरुचि से क्या मिलता है और सुनीति से क्या मिलता है यही शिक्षा हमें इस ध्रुव चरित्र से लेनी चाहिए।
ध्रुव की अवस्था अभी मात्र 5 वर्ष की है पिता का सुख क्या होता है यह वह नहीं जानता। कई बार अपने मित्रों से चर्चा करें तो मित्र ने कहा ध्रुव मेरी मां कहती थी कि तुम्हारे पिता तो यहां के राजा हैं। तुम उनसे मिलना चाहोगे?.. तो चलो हम आज ही तुम्हें मिलाते हैं। अब बाल मंडली के साथ महाराज ध्रुव चल पड़े अपने पिता के दर्शन करने, महाराज उत्तानपाद सिंहासन में विराजमान हैं। बालकों ने प्रणाम किया तो ध्रुव ने भी नमस्कार कर लिया। ध्रुव जी को देखते ही महाराज बड़े आकर्षित हुए, बेटा तुम्हारा नाम क्या है?..
ध्रुव बोले- महाराज लोग मुझे ध्रुव कहते हैं।
अच्छा बेटा! तुम्हारे मां बाप कौन है?..
ध्रुव ने कहा- मेरी मां का नाम है सुनीति और मेरे पिता का नाम श्री उत्तानपाद है।
क्या...? क्या.. कहा तुमने?
तुम सुनीति के पुत्र हो।
ऐसा कहते हुए उत्तानपाद सिंहासन से उतरकर दौड़े और ध्रुव को गले से लगा लिया राजा की आंखों में पनीरे बहने लगे। राजा ने ध्रुव को लेकर सिंहासन में अपने साथ बैठा लिया, यह देख कर ध्रुव बड़े प्रसन्न हुए ध्रुव ने कहा- राजा जी यह मेरा मित्र है। यह कहता था, कि आप मेरे पिता हैं। बोलो ना! क्या आप ही मेरे पिताजी हो?.. राजा ने कहा हां पुत्र मैं ही तुम्हारा पिता हूं।
पिता-पुत्र में वार्तालाप चल ही रहा था कि वहां पर सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को साथ लिए आई। राजा ने कहा महारानी देखो तो आज कौन आया है! रानी ने पूछा कौन है यह?
यह हमारा बड़ा पुत्र ध्रुव है यह सुनते ही सुरुचि की आंखें फट गई अच्छा तो यह है मेरी सौत का बेटा और इसे इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार किसने दिया। यह कहते ही कहते सुरुचि ध्रुव का हाथ पकड़ कर नीचे उतार दिया और सिंहासन पर उत्तम को बैठा दिया ध्रुव ने कहा मां मैं भी तो आपका पुत्र हूं यह भी तो मेरे पिता हैं फिर मुझे आपने इस सिंहासन से क्यों उतार दिया। उस सिंहासन पर इन पिता पर मेरा भी तो अधिकार है अच्छा तू मुझे अधिकार का पाठ सिखाएगा नादान बालक तेरी इतनी हिम्मत कि इस सिंहासन को अपना अधिकार बताएं ध्रुव जी ने हाथ जोड़कर कहा- माता मेरा अनुज मेरा भाई उत्तम जब महाराज की गोद में बैठ सकता है, सिंहासन पर बैठ सकता है तो मैं क्यों नहीं मुझ में भला कौन सी कमी है।
सुरुचि ने कहा- अच्छा तो तू उत्तम की बराबरी करेगा अपनी औकात देखी है, सिंहासन में बैठने के लिए राजा का पुत्र होना जरूरी नहीं, जितना मेरा पुत्र होना जरूरी है। तूने तो एक अभागन मां के गर्भ से जन्म लिया है पिता के साथ साथ मां का स्थान भी तो ऊंचा होना चाहिए। ध्रुवजी को यह शब्द बाण की तरह शुभ रहे थे, मेरी मां को यह अभागन कह रही है। क्रोध में आंखें लाल हो गई।
महाराज ध्रुवजी पूछने लगे! अच्छा इस सिंहासन पर मैं यदि बैठना चाहूं! तो मुझे क्या करना पड़ेगा?. यह सुन सुरुचि हंसने लगी। अच्छा तो तू सिंघासन पर बैठना चाहता है। बेटा पहले तो तू तपस्या कर-
तपसाsराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे।
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम।।
महाराज के सिंहासन पर यदि बैठना चाहता है, तो जा... तपस्या कर!
भगवान प्रकट हो तो उनसे वरदान मांगना। कि हे भगवान! मेरा जन्म सुरुचि के गर्भ से हो फिर इस शरीर को त्याग कर मुझसे जन्म लेना। तब तुम्हें इस सिंहासन पर बैठने का पूर्ण अधिकार मिलेगा सुरुचि के इन शब्दों से भक्त और भगवान दोनों का अपमान हुआ।
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