सोमवार, 25 दिसंबर 2017

तीसरे दिन की कथा, सृष्टि विस्तार 30

विदुर जी ने मैत्रीय जी से बोले- महाराज! कृपा करके आप मुझे यह बताइए-

सुखाय कर्माणि करोति लोको
      न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा।
             विन्देत भुयस्तत एव दुःखं
                      यदत्र युक्तं भगवान वदेन्न:।।
अर्थात- संसार में सब लोग सुख के लिए कर्म करते हैं। परंतु उनसे ना तो उन्हें कोई सुख ही मिलता है और ना उनका दुख ही दूर होता है। ऐसा क्यों?..

तब मैत्रेय मुनि ने विस्तार से बताया पहले तो उन्होंने सृष्टि का स्वरूप बताया। बोले- विदुर जी! भगवान ने बड़ी कृपा करी जो संसार में दु:ख ही दु:ख भर दिया। जीव जब भगवान से पृथक होता है तो संसार में जन्म लेने के लिए रोने लगा। प्रभु! मैं आपको छोड़कर जा रहा हूं, भगवान बोले- तू दु:खी मत हो तू वापस मेरे पास आएगा। बोला- वह कैसे?

भगवान बोले- मैंने मृत्युलोक में एक उपाय किया है, वहां मैंने दु:ख ही दु:ख भर दिया है। उस से क्या होगा? भगवान बोले- जब तू उस दु:ख से परेशान हो जाएगा, पीड़ित होने लगेगा। तब तुझे सुख की चाह होगी, उस दिन तू मुझे याद करेगा और मैं तुम्हें अपने पास बुला लूंगा।

विदुरजी! यह संसार एक दु:खालय है। फिर यहां सुख कैसे मिल सकता है? लोग अपने सुख के लिए चाहे जितनी पूर्ति कर ले पर मिलेगा उन्हें उससे दुख ही। फिर मैत्रेयजी! सृष्टि की रचना के अंतर्गत वर्णन करते हैं। कहते हैं! भगवान नारायण की नाभि से कमल हुआ।

कमल पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए तप किया, तप से उन्हें भगवान नारायण के दर्शन हुए। जब ब्रह्मा जी ने प्रथम सृष्टि करी, तो ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम भगवान का ध्यान करके चार कुम्हारों को प्रकट किया। जिनका नाम सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार। ब्रह्मा जी ने सनत कुमारो से कहा- बच्चों जाओ और सृष्टि का विस्तार करो। तब सनत कुमार ने कहा- पिताजी! हम तो भगवान का भजन करेंगे। यह सृष्टि आप ही करिए। तब क्रोधित हो ब्रह्मा जी ने अपनी भ्रकुटी से एक नीलवर्ण का बालक प्रकट हुआ। वह बालक रुदन कर रहा था, यह देख ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रुद्र रख दिया।

ब्रह्मा जी बोले- जाओ तुम सृष्टि करो अब रुद्रदेव सृष्टि विस्तार में सांप, बिच्छू, अजगर, भूत-प्रेत इत्यादि को उत्पन्न करने लगे। यह देख ब्रह्मा जी घबराए और बोले- अरे-अरे यह क्या कर रहे हो। ऐसी सृष्टि मुझे नहीं चाहिए। अपनी यह सृष्टि समेटो और जाओ कैलाश में वास करो।

इस प्रकार भगवान शिव ने अपना निवास स्थान कैलाश में बनाया। अब ब्रह्माजी परेशान हो गए क्या करूं कैसे हो यह सृष्टि?.. तो अबकी बार ब्रह्मा जी ने मानसिक संकल्प के द्वारा 10 मानस पुत्रों को जन्म दिया मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, और दसवें हैं नारद जी।

यह मानस पुत्र है ब्रह्मा जी के, और वाणी से सरस्वती नाम की कन्या को भी जन्म दिया। सरस्वती जी के दिव्य सौंदर्य को देखकर ब्रह्मा जी स्वयं मोहित हो गए। यह देख मरीचि ऋषि ने पिता ब्रम्हा को समझाया। तब ब्रह्मा जी को बड़ी ग्लानि हुई और वह फिर अपने उस शरीर का परित्याग कर दिया। फिर दूसरे दिव्य शरीर में प्रकट हुए। तब उनकी छाया से कर्दम जी का जन्म हुआ। फिर ब्रह्मा जी के वाम अंग से एक कन्या का और दक्षिण अंग से एक पुरुष का जन्म हुआ। जिनका नाम मनु और शतरूपा हुआ। ब्रह्मा जी बोले- अब तुम मैथुनी सृष्टि का प्रारंभ करो। तब सर्वप्रथम मनु शतरूपा से 5 संताने हुईं। जिनमें दो बेटे और तीन बेटियां है, बेटों का नाम था प्रियव्रत व उत्तानपाद; बेटियों का नाम था, देवहूति आकूति और प्रसूति।

संतान उत्पत्ति के बाद मनु ने ब्रम्हाजी से प्रार्थना किया। पिताजी आप इस जगत में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने योग्य स्थान बताइए, हम कहां रहे। सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी तो इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप उसे बाहर निकालने का प्रयत्न करें। तब ब्रह्मा जी ने भगवान नारायण का ध्यान किया तभी अचानक ब्रह्मा जी के नाशा छिद्र से भगवान वराह प्रकट हुए।
     ।।बोल वराह भगवान की जय।।

भगवान वराह समुद्र में जाकर रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को अपने दाँढों में रख कर बाहर लाए। जब भगवान पृथ्वी को बाहर ला रहे थे। उसी समय एक हिरण्याक्ष नाम का असुर वहां पर भगवान से युद्ध करने को आया और भगवान ने उसका उद्धार किया।

विदुर जी ने कहा- महाराज! यह हिरण्याक्ष कौन है और भगवान से युद्ध करना क्यों चाहता है?.. तब मैत्रेय जी बोले- विदुर! ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि की पत्नी कला से महात्मा कश्यप जी का जन्म हुआ। वैसे तो कश्यप जी के 13 पत्नियां थी, पर उनमें मुख्य दो ही मानी जाती हैं। एक तो अदिति जिनसे आदित्य हुए और दूसरी दिति जिनसे दैत्य हुए।

ध्यान दीजिए सतगुण को हम कश्यप कहते हैं, और कश्यप जी को दो पत्नियां हैं। जो अदिति है, वह है अभेद बुद्धि और दिति माने भेद बुद्धि। तो जहां भेद बुद्धि है वहां भोग और लोभ का जन्म होता है, और जहां अभेद बुद्धि है; वहां दैवत्व प्रकट होता है। देवता माने सद्गुण।

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