तो मैत्रेय मुनि कहते हैं- विदुरजी! एक बार सूर्यास्त के समय पर कश्यप जी, जब संध्या वंदन कर रहे थे। उसी समय काम से पीड़ित हो महारानी दिति, रती याचना करने लगी।
कश्यप जी ने कहा- सुनो देवी! अभी सूर्य अस्त की बेला है। और सूर्य अस्त के समय पर
आहारं, मैथुनं, सय्याम, स्वाध्याय च विशेषत:।।
भोजन नहीं करना चाहिए,
सयन नहीं करना चाहिए,
स्वाध्याय अर्थात पुस्तकों का अध्ययन
नहीं करना चाहिए, और स्त्री सहवास नहीं करना चाहिए।
देखो देवी! सूर्य अस्त के समय जो सहवास करता है, उसके दुष्ट संतान होती है यह समय तो मात्र भजन करने का होता है। इस प्रकार कश्यप जी ने बहुत समझाया, पर दिति अपने काम ज्वार को रोक न सकी और भगवत इच्छा मान कर कश्यप जी ने उन्हें गर्भधारण कराया। काम ज्वर शांत होने के बाद दिति को पश्चाताप हुआ। महाराज मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया। अब आप ही बताइए ना इसका क्या प्रायश्चित करूं। कश्यप जी ने बताया- देवी तुम्हें यह जो ग्लानि हो रही है, यही तुम्हारा पश्चाताप है; यही प्रायश्चित है।
पाप करने के बाद यदि पश्चाताप हो तो जान लो प्रायश्चित हो गया। कश्यप जी ने कहा- देवी! सूर्यास्त के समय गर्भाधान करने से तुम्हें जो संतान प्राप्त होगी। वह बड़ी दुष्ट होगी, पर तुमने अपने पाप का प्रायश्चित कर लिया है; इसलिए जो तुम्हारा पौत्र होगा वह प्रभु का ऐसा भक्त निकलेगा जो सबको तार देने वाला होगा।
दिति महारानी गर्भवती हुई परन्तु सौ वर्ष बीत गए उन्हें अब तक सन्तान को जन्म नहीं दिया। दिति के शरीर से इतना दिव्य तेज निकलने लगा, कि स्वर्ग लोक जलने लगा। देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचे महाराज! यह प्रकाश कहां से आ रहा है? हमारी तो कुछ समझ में नहीं आता।
ब्रह्मा जी ने ध्यान लगाया और बोले- मेरे पुत्र जो सनकादि मुनि है वह एक बार भगवान नारायण के दर्शन करने वैकुंठ गए। भगवान के जो पार्षद हैं। जय-विजय उन्होंने सनतकुमारों को रोक दिया। ऐ महाराज! आप लोग अंदर नहीं जा सकते, इस समय गोविंद विश्राम कर रहे हैं। उस समय सनतकुमारों को क्रोध आया और उन्हें साफ दे दिया। हम तुम्हें श्राप देते हैं, कि तुम 3 वर्ष तक राक्षस योनि में जन्म लो।
यह वही भगवान नारायण के पार्षद जय और विजय हैं, जो इस समय दिति के गर्भ में हैं; जो राक्षस की योनि में हैं। यह उन्हीं का प्रकाश है, जिस कारण तुम लोगों का तेज मंद हो गया है। तुम लोग परेशान मत हो तुम्हारी रक्षा भगवान अवश्य करेंगे। जब सौ वर्षों के बाद उन दैत्यों ने जन्म लिया, जिनका नाम से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु पड़ा। यह दोनों जन्म लेते ही ऐसे बढ़ने लगे, जैसे जंगल में लगी आग बढ़ती है; इनकी ऊंचाई आकाश को छूने लगी।
अच्छा! इनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु क्यों पड़ा?... ध्यान देना हिरण्य माने सोना या धन और अक्ष माने आंख। अर्थात जिसकी आंख धन में गड़ी हो, अपने धन में नहीं दूसरों के धन में; दूसरे की भूमि में ‘दूसरे की दौलत में’ वह हिरण्याक्ष। जिसे कहते हैं लोभ और हिरण्यकशिपु कौन है हिरण्य मैंने सोना, और कशिपु का मतलब सय्या, अर्थात जिसकी सय्या सोने की है; वह हिरण्यकशिपु। यह भोग का प्रतीक है, भोग की प्रवृत्तियों को जितना भोगा जाए, यह भोग की वासना उतनी ही बढ़ती जाती है। इन इंद्रियों को जितना विषय दो वह इंद्रिय विषय में उतनी ही अनुरागी होती चली जाती हैं। भोग की वृत्ती कभी शांत ही नहीं होती है। यह दोनों लोभ और भोग के प्रतीक हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें