एक दिन छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा भैया जी! शरीर तो लंबा-चौड़ा मिल गया पर लड़ने वाला आज तक कोई न मिला, हाथ में बड़ी खुजली मच रही है।
बड़े भाई ने कहा- एक काम करो दिग्विजय करने निकल पड़ो कोई न कोई मिल ही जाएगा। हिरण्याक्ष अकेले ही गदा लेकर दिग्विजय करने निकल पड़ा, देवताओं के यहां जाकर जो गर्जना करी देवता स्वर्ग छोड़ भागे। किसी का साहस नहीं जो एक क्षण के लिए इसके सामने खड़ा हो जाए।
अब गर्जना करता हुआ वापस लौटा तो समुद्र की लहरों में जब गधा का प्रहार किया तो समुद्र का जल भी फट गया और समुद्र के अंदर घुस वरुण लोक पहुंचा। महाराज वरुण से ताल ठोक कर पूछा महाराज हो जाए दो-दो हाथ। बड़ा बुरा लगा महाराज वरुण को, ऐसे दुष्ट से भगवान बचाए। हाथ जोड़कर महाराज वरुण बोले देखो भैया जी हमारा बुढ़ापा है और तुम्हारी नई अवस्था है। हम आपसे क्या लड़ें, हम तो आशीर्वाद देते हैं कि भगवान तुम्हारी इच्छा पूरी करे। इस प्रकार महाराज वरुण का अपमान कर लौट रहा था कि रास्ते पर नारद जी मिल गए।
यहां पर ध्यान दें संत कहते हैं जिस किसी को भी नारद जी के दर्शन हुए हैं, उसे भगवान का दर्शन अवश्य हुआ है। इसलिए नारद जी का एक नाम है नारदो देवदर्शनः। नारदजी मिले तो पकड़ लिया, ऐ बाबा किधर जाता है, यह तुझे कोरा नारायण-नारायण कहना आता है या लड़ना भिड़ना भी आता है?
नारद जी बोले- भैया जी! हमसे लड़ना भिड़ना तो बिल्कुल नहीं आता लड़ाना भिड़ाना खूब आता है। यह बताओ तुम चाहते क्या हो? बोला! मैं दुनिया भर में घूमा पर मुझसे लड़ने वाला अभी तक कोई नहीं मिला, तुम्हारी नजर में कोई हो तो बताओ। नारद जी ने कहा- नजर में तो इतना बढ़िया है कि लड़ने की इच्छा तुम्हारी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। नारद जी ने बताया- अभी-अभी एक वीर योद्धा ने अवतार लिया है जो पृथ्वी को समुद्र से लेकर भागे जा रहा है उसी के पास जाओ यही मौका है।
अब हिरण्याक्ष दौड़ा-दौड़ा समुद्र में पहुंचा, जहां पर भगवान वाराह पृथ्वी को बाहर निकाल कर स्थापित करना चाहते थे। तभी वहां पर हिरण्याक्ष पहुंचा और बोला अरे जंगली सूकर इस पृथ्वी को कहां लिए जा रहा है। तूने अभी मेरी शक्ति को जाना नहीं। यह सब सुनकर भी भगवान कुछ बोले नहीं, और पृथ्वी को यथास्थान लाकर स्थापित कर दिया। अब भगवान वराह हिरण्याक्ष से बोले- हां श्रीमान जी! आपको क्या तकलीफ है जो आपने हमें जंगली सूकर कहा।
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
युष्मद्विधामृगये ग्रामसिंहान।
न मृत्युपाशै: प्रतिमुक्तस्य वीरा
विकत्थनं तब गृह्णन्त्य भद्र।। 10|18|3
तुम सत्य कहते हो, कि मैं जंगली हूं। पर तुम जैसे ग्राम सिंह के भौंकने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। सचमुच हम जंगली जीव हैं जो तुम जैसे गांव के कुत्ते का शिकार हेतु ढूंढते रहते हैं।
यह सुन हिरण्याक्ष तो क्रोध से आगबबूला हो गया। हिरण्याक्ष बोला- तुमने मुझे कुत्ता कहा- जैसे ही क्रोधित हो गदा फेंक कर भगवान की छाती पर मारी देवता का आप गए, पर भगवान को उस गदा का प्रहार ऐसे लगा; जैसे मतवाले हाथी को किसी ने माला फेंक कर मारा हो, कोई अंतर नहीं। विविध प्रकार से युद्ध हुआ। युद्ध का वर्णन है भागवत जी में, हिरण्याक्ष जितने भी शस्त्रों का प्रयोग किया भगवान ने सब को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। अंत में दौड़कर भगवान ने एक थप्पड़ हिरण्याक्ष के गाल में मारा, तो एक ही थप्पड़ के प्रहार से घूमता हुआ पृथ्वी पर धराशाई हो गया।
।।बोल बाराह भगवान की जय।।
इस प्रकार से हिरण्याक्ष का उद्धार हुआ। अब महाराज देवताओं ने जब यह दृश्य देखा तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। इस प्रकार भगवान बड़े क्रोध भाव में थे। जब अपने शरीर को हिलाया तो भगवान वराह के कुछ रोम टूटकर पृथ्वी पर गिरे वही रोम कुश कहलाया। जिसे बड़ा ही पवित्र माना जाता है। कहते हैं जिस घर में गंगाजल ना हो और गंगाजल की आवश्यकता हो, तो साधारण जल में कुशा डूबा देने से वह गंगाजल के समान पवित्र हो जाता है। इसलिए हम लोग पूजा में कुश का प्रमुख रुप से उपयोग करते हैं।
अब देवताओं ने भगवान की स्तुति गाई महाराज देवताओं का तो काम ही इतना है, कि जब भगवान ने अवतार लिया तो स्तुति करने पहुंच गए। किसी राक्षस का वध किया स्तुति गाने पहुंच गए। जब सुखी रहते हैं तब तो न भगवान की चिंता और ना किसान की चिंता। जब भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया तो सब पहुँच गए। पुष्प बरसा करी, दो चार स्तुति गाई। और स्वर्ग जाकर नाचने गाने लगे। इसलिए इन्हीं को भय बना रहता है कि हमारा यह सुख कहीं कोई छीन ना ले।
अगर हमारे पास कोई बहुमूल्य वस्तु हो तो हमें भी यही बीमारी लग जाती है कि हमारी यह वस्तु हमसे कोई छीन ना ले। क्योंकि हम उस वस्तु में अपना सुख देखते हैं। पर मिलता क्या है दु:ख, इसलिए देवताओं को बार-बार कष्टों का सामना करना पड़ता है। देवता स्तुति करते हैं-
नमो नमस्ते अखिलयज्ञ तन्तवे
स्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये।
दिष्ट्या हतोयं जगतामरुन्तु
द्स्त्वत्पादभक्त्या वयमीश निर्वृता:।।
हे भगवान! आपके ही रोम से कुशा का प्रादुर्भाव हुआ। जिससे यज्ञ के कार्य को संपादित किया जाता है। हे यज्ञ पुरुष भगवन! हम आप को बारंबार नमस्कार करते हैं। दिष्ट्या हतोयं
बड़ा अच्छा हुआ जो यह पापी मारा गया। इसके भय से हमें रात्रि को नींद नहीं आती थी। महाराज! बड़ी कृपा करी जो इस दुष्ट को मारकर आपने हमें निश्चिंत कर दिया। भगवान अपनी स्थिति सुन अंतर्ध्यान हुए।
मैत्रेय मुनि कहते हैं- विदुर जी! तब मनु महाराज इस पृथ्वी पर सृष्टि का विस्तार कर पाए।
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